पहाड़ों को ज़मीन अच्छी लग रही थी। ज़मीनों को समंदर। समंदर पठार बनना चाहता था; पठार अपने भीतर के घाव से जूझ रहा था।
पठार की कुंठा थी कि हाय! न हम समंदर बने, न समतल रहे, न पहाड़ों में गिनती हुई।
जिसका जो यथार्थ था, वही उसे काटने दौड़ रहा था। ईश्वर उलाहने, ताने सुनकर क्षुब्ध था, सबकी अतृप्त अभिलाषाओं का ठीकरा उस पर फूट रहा था। सबकी व्याधियों का नियंता वह तो नहीं, फिर दोषी क्यों?
दुःखी ईश्वर के मुंह से अनायास फुट पड़ा, संतुष्टि के आतिथ्य का अधिकारी वही, जो जड़बुद्धि हो
तब से ही, अवधूत सुखी हैं, बुद्धिमान पीड़ित। मूर्ख परमानंद में हैं, ज्ञानी कुंठित। इच्छा, अभीप्सा और प्रत्याशा के आराधक अवसाद में हैं, जड़भरत के अनुयायी मगन।
जो प्रश्न, बुद्ध से अनुत्तरित रहे, उन्हें अवधूतों ने सुलझा लिया। जहां बुद्धि है, वहां असंतोष है। जहां आनंद है, वहां बुद्धि का क्या प्रयोजन?
इतनी सी बात न ज़मीन को समझ आई, न समंदर को। न पहाड़ ने यथार्थ समझा, न पठार ने। अंततः हुआ यह कि पहाड़ दरकने लगे, पठार सिकुड़ने लगे, ज़मीन खिसकने लगी और समंदर विश्व के अपशिष्टों को सोख रहा है, धरती बनने के लिए।
इनमें से किसी की इच्छा, अभी तो पूरी नहीं हो रही, कुंठा है कि आकाश धर रही है।
ईश्वर, विपद और विपत्तियों पर प्रसन्न हैं। आंख मूंदकर सोए हैं। कह रहे हैं- भोगो, अपनी-अपनी आकांक्षाओं का प्रारब्ध।
-अभिषेक शुक्ल.