जब हम हद से ज़्यादा बोलते हैं, तब हमें अंदाज़ा भी नहीं होता कि हम कितना ग़लत बोल गए हैं. बोलना ग़लत नहीं है, लेकिन इतना ज़्यादा बोलना, हर बात पर बोलना, बिना सोचे-समझे बोलना, सही भी नहीं है. सोचने में वक़्त लगता है, बोलने में मुंह खोलने की देर होती है, शब्द ख़ुद-ब-ख़ुद आने लगते हैं.
ज़्यादा बोलना, कभी-कभी कुछ लोगों को देखकर लगता है कि गंभीर क़िस्म की बीमारी है, जिसका इलाज अभी बना नहीं है. अगर होता तो वे लोग ख़ुद जाकर दवाई लेते. क्योंकि पता तो उन्हें भी होता होगा कि वे ज़्यादा बोलते हैं, जो सेहत के लिए ठीक नहीं है. सिर्फ़ इसलिए कि वे सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बने रहें, बोलना है.
बोलना न किसी नशे की तरह होता है, जिस इंसान में बोलने की आदत लगे, उसे दुनिया के किसी रिहैबिलेशन सेंटर में डाल दीजिए, निकलकर फिर उसे उतना ही बोलना है, जितना वो पहले बोलता था. सच न, कभी ज़्यादा हो नहीं सकता. थोड़ा सा होता है, लिमिटेड. झूठ की ख़ासियत है कि वो इतना ज़्यादा होता है, कि उसे एक्सप्लेन करने के लिए, ये ज़िन्दगी छोटी पड़ जाए.
झूठ एक आर्ट है. झूठों से बड़ा आर्टिस्ट कोई होता ही नहीं है. पलभर में ऐसा सीन क्रिएट करते हैं कि हां, ऐसा ही हुआ होगा, यही हुआ होगा. सच सिंपल होता है. बिलकुल भी अट्रैक्टिव नहीं. कई बार इतना सादा कि सच से ऊब हो जाए. कुछ बेहद अच्छी बॉलीवुड की आर्ट फ़िल्मों की तरह.
तस्वीर- IIMC के दौरान की है. 4 साल पहले. |
हदें, कुछ सोचकर बनाई गई होंगी. शायद अतिरेक रोकने के लिए. लेकिन बोलने की आदत लग जाए, तो बोलते रहेंगे, नए सीन क्रिएट करते रहेंगे. अपनी ही बातों में फंसते रहेंगे, पर बोलेंगे. क्योंकि बोलना ही है. आदत है. अच्छी हो या बुरी, पर है तो है.
जो चीज़े बोलने पर लागू होती हैं, लिखना भी कुछ वैसा ही है. बहुत लिख रहे होते हैं तो पता भी नहीं लगता कितना ग़लत लिख गए हैं.
आदतें हैं, एक सी ही होती हैं....