शेली, किट्स और ब्राउनिंग कभी पसंद नहीं आए। पसंद आई तो विलियम वर्ड्सवर्थ की फंतासी। नौवीं में पहली बार पढ़ी और अब तक पढ़ रहा हूं लूसी ग्रे। मैथ्यू अर्नाल्ड भी पसंद आए। टेनिसन को पढ़ा तो नींद आई।
और भी होंगे, जिन्हें पढ़ा लेकिन जाना नहीं। कुछ याद रखने लायक लगा ही नहीं। क्या है न जब आपको कविता पढ़ने के लिए डिक्शनरी खोलनी पड़े तो क्या ही मज़ा?
हम भाषा सीख सकते हैं, शब्दार्थ समझ सकते हैं लेकिन मर्म नहीं जान सकते। जानते तो शायद गीतांजलि हमें भी समझ आ गई होती।
ये लोग काव्य जगत के सर्वकालिक कवि हैं, साहित्य के विद्यार्थियों को इन पर श्रद्धा होगी लेकिन जिसने मन को छुआ, वह कोई और था। कुछ ने कहा कबीर हैं, कुछ ने कहा शब्द जानो, कवि क्षणभंगुर है।
और कवि ने ख़ुद आकर कहा-
भँवरवा के तोहरा संग जाई...
मैंने कहा, 'इसका क्या प्रयोजन?'
कवि ने कहा कि दुनिया ही निष्प्रयोज्य है, तुम्हें प्रयोजन की प्रत्याशा क्यों?
मैंने कहा, 'अर्थ की लालसा।'
कवि ने कहा कि लालसा से बुद्ध भागे, तुम कहां टिकोगे?
मैंने पूछा, 'क्या बुद्ध लालसा के मारे थे?'
कवि ने कहा हां, 'लालसा ने उन्हें बुद्ध बनाया, तुम्हें बुद्धू।'
कवि से कई बार कई सवाल किया, लेकिन कवि इतना ही दोहराता रहा,
भँवरवा, के तोहरा संग जाई....
-अभिषेक शुक्ल.