जीवन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण सूक्तियां गांवों में रची गई हैं. भले ही वे इस मंशा के साथ न रची गई हों कि कालांतर में उन्हीं पंक्तियों पर जीवन का कार्य-व्यवहार टिका होगा. भले ही शहर उन्हें खारिज करें, या पूर्वाग्रह के चलते उनका बहिष्कार कर दें लेकिन यथार्थ इससे परे नहीं.
सूक्तियां ऐसी, जो बोधगम्य हैं. उनके दर्शन को समझने के लिए किसी विद्वान की ज़रूरत नहीं. सुनते-सुनते बरबस समझ आए. कभी किसी खेत की मेड़ पर, या कहीं बरगद तले. या किसी काकी-माई को आपस में काना-फूसी करते हुए देखते वक़्त.
उन बातों को भाषाविद किसी भी श्रेणी में बांट लें. उन्हें सूक्ति कहें, मुहावरे कहें, लोकोक्तियां कहें या कोई भी नाम दें, लेकिन दुनियादारी समझने की कुंजियां वही हैं.
शेष सब बौद्धिक वितंडा से इतर कुछ नहीं.
मिमांसा विद्वान करें, लेकिन वर्तमान इन्हीं सूक्तियों की व्याख्या है.
'नाचै गावै तूरै तान, तेकर दुनिया राखै मान'
मीडिया से लेकर सत्ता तक.
'अपने उघार बिलरिया कै गांती'
आत्मश्लाघा के अतिरेक में पागल मीडिया, जिसमें रहकर किसी भी सभ्य व्यक्ति का दम घुटे.
'बाड़ी बिस्तिुइया बाघेस नाजारा मारै.'
सीमाओं पर नजर फेरिये.
'सब हसै-सब हसै, चलनी का हसै जौने में 72 छेद.'
पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दिख रही है हर भारतीय को लेकिन अपनी दरिद्रता?
'चिरई कै जान जाय, लड़िकन कै खेलौना.'
मीडिया ट्रायल. चरित्र हनन.
'सेमर पालि सुगा पछितानै, मारै ठोड़ भुआ उधियाने'
कृतघ्नों पर परोपकार.
और नहीं याद आ रहा. जब याद आएगा, तब की तब देखेंगे.