31 दिसंबर 2018। दुनिया नए साल के स्वागत की तैयारी कर रही थी, मैं अम्मा(दादी) की अस्थियों को गंगा में विसर्जित करने वाराणसी जा रहा था, भवानी चाचा के साथ। साल बीत रहा था, साथ ही अम्मा की स्मृतियां भी।
रात के 12 बजे ट्रेन में हैप्पी न्यू ईयर बोल रहे थे लोग लेकिन मेरे लिए कुछ अच्छा नहीं था। जिसने ख़ुद से हमें कभी कभी अलग नहीं किया, जिसका होने हमारे लिए भगवान के होने से कहीं ज्यादा ज़रूरी था, उसका मंदिर ही ख़त्म हो चुका था। राख बची थी। स्वार्थी होने का मन कर रहा था उस वक़्त। मन कर रहा था कि अम्मा को हमेशा ही ऐसे ही रहने दूं। नहीं रख सकता था। ये मिस्र नहीं, भारत है।
पूरे साल एक गहरा अवसाद रहा लेकिन हंसने से भी परहेज़ नहीं रहा। इस साल शेखर के जाने के कुछ दिनों बाद ही अम्मा भी चली गई। कई बार विश्वास नहीं होता है कि कोई गया है।
लगता है कि शेखर अचानक से कूदकर बोलेगा, 'भइया का सोचत हो?'...और..अम्मा बोल देगी 'ललनवा।'
दोनों अब कुछ नहीं बोलेंगे, ख़ुद को हर बार पूरे साल तसल्ली देते रहे.
अम्मा जब कभी सपने में दिखती है, मानने का मन ही नहीं करता है कि अब नहीं है. ऐसा लगता है, अम्मा अब बुलाएगी. कुछ कहेगी. बहुत अफनाहट होती है, अचानक से कभी कभी.
उस वक़्त लगता है अम्मा है, मेरे आस पास ही। सब ठीक है, तभी कुछ ठक से लग जाता है। एहसास होता है सपना था। अम्मा तो वह थी जो धुआं बनकर उड़ गई। हमारी आंखों के सामने ही। 24 दिसंबर को।
इंसान होने में तक़लीफ़ बहुत है। समझ होती है। सपने को सच नहीं मान सकते। सच को सपना। मन कहता है कि सब सपना था, नींद टूटते ही जो बुरा सपना हमने देखा था, टूट जाएगा। कुछ टूटता नहीं लेकिन भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट रहा होता है।
शेखर विलक्षण प्रतिभा का धनी था, उतना ही प्यारा। ईश्वर के प्रति अगाध समर्पण। दुनिया के तौर-तरीक़ों से अछूता, सच में किसी ऋषि-मुनि की तरह। ईश्वर ने उसे हमारे पास रहने ही नहीं दिया। 20 की उम्र में पलायन। ऐसा गया कि लौटने की सारी संभावनाएं ख़त्म हो गईं।
और अम्मा!
सुबह उठकर सबसे पहला काम अम्मा को फ़ोन करना होता था। हर 2 घंटे में एक बार। अम्मा थी तो बातें थीं, अब अम्मा नहीं है तो बातें ख़त्म हो गई हैं।
आज भी कई बार हूक सी उठती है अम्मा को फ़ोन करना है..फ़ोन पर नज़र जाती है और....
अम्मा की गोदी, अब महसूस भी नहीं कर पाता….अब ख़ुद को बच्चा भी नहीं मान पाता..अब लगने लगा है बहुत बड़ा हो गया हो गया हूं मैं..बहुत ज़्यादा।
कई लोग चले गए। अजीब ही साल था। नाना अप्रैल में चले गए। नाना अब बच्चे हो गए थे। पहले वाले नाना से डर लगता था, नानी के जाने के बाद नाना मासूम हो गए थे। प्यार आता था। एक ही बात दस बार पूछते, फिर भूल जाते..अब नाना भी नहीं हैं।
बड़की मौसी भी अब नहीं है। जुलाई में मौसी की तबीयत बिगड़ी, फिर कुछ दिन कोमा में रही, एक दिन ख़बर आई मौसी अब नहीं है...मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में एक था जो दौड़कर अपने मौसी के पास जा सकते हैं...अब अम्मा की तरह मौसी भी जा चुकी है।
जुलाई में ही पाले काका भी चले गए......किसी को नहीं जाना था। रुकना था..ऐसी भी क्या जल्दी थी जाने की। दुनिया इतनी बुरी भी जगह नहीं है जहां रहा न जा सके।
काश, कोई ऐसी युक्ति होती जिससे जो गए हैं, उन्हें लौटा लाते। वैसे ही जैसे सावित्री ने यम से सत्यवान को छीन लिया था... या जैसे कृष्ण अपने भाइयों को लौटा लाए थे....।
अच्छा ज़माना था जब स्वर्ग तक इंसानों का आना-जाना था। अब कोई चुपके से आता है, उठा ले जाता है।
यह साल, सच में पलायन का साल था।
रात के 12 बजे ट्रेन में हैप्पी न्यू ईयर बोल रहे थे लोग लेकिन मेरे लिए कुछ अच्छा नहीं था। जिसने ख़ुद से हमें कभी कभी अलग नहीं किया, जिसका होने हमारे लिए भगवान के होने से कहीं ज्यादा ज़रूरी था, उसका मंदिर ही ख़त्म हो चुका था। राख बची थी। स्वार्थी होने का मन कर रहा था उस वक़्त। मन कर रहा था कि अम्मा को हमेशा ही ऐसे ही रहने दूं। नहीं रख सकता था। ये मिस्र नहीं, भारत है।
पूरे साल एक गहरा अवसाद रहा लेकिन हंसने से भी परहेज़ नहीं रहा। इस साल शेखर के जाने के कुछ दिनों बाद ही अम्मा भी चली गई। कई बार विश्वास नहीं होता है कि कोई गया है।
लगता है कि शेखर अचानक से कूदकर बोलेगा, 'भइया का सोचत हो?'...और..अम्मा बोल देगी 'ललनवा।'
दोनों अब कुछ नहीं बोलेंगे, ख़ुद को हर बार पूरे साल तसल्ली देते रहे.
अम्मा जब कभी सपने में दिखती है, मानने का मन ही नहीं करता है कि अब नहीं है. ऐसा लगता है, अम्मा अब बुलाएगी. कुछ कहेगी. बहुत अफनाहट होती है, अचानक से कभी कभी.
उस वक़्त लगता है अम्मा है, मेरे आस पास ही। सब ठीक है, तभी कुछ ठक से लग जाता है। एहसास होता है सपना था। अम्मा तो वह थी जो धुआं बनकर उड़ गई। हमारी आंखों के सामने ही। 24 दिसंबर को।
इंसान होने में तक़लीफ़ बहुत है। समझ होती है। सपने को सच नहीं मान सकते। सच को सपना। मन कहता है कि सब सपना था, नींद टूटते ही जो बुरा सपना हमने देखा था, टूट जाएगा। कुछ टूटता नहीं लेकिन भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट रहा होता है।
शेखर विलक्षण प्रतिभा का धनी था, उतना ही प्यारा। ईश्वर के प्रति अगाध समर्पण। दुनिया के तौर-तरीक़ों से अछूता, सच में किसी ऋषि-मुनि की तरह। ईश्वर ने उसे हमारे पास रहने ही नहीं दिया। 20 की उम्र में पलायन। ऐसा गया कि लौटने की सारी संभावनाएं ख़त्म हो गईं।
और अम्मा!
सुबह उठकर सबसे पहला काम अम्मा को फ़ोन करना होता था। हर 2 घंटे में एक बार। अम्मा थी तो बातें थीं, अब अम्मा नहीं है तो बातें ख़त्म हो गई हैं।
आज भी कई बार हूक सी उठती है अम्मा को फ़ोन करना है..फ़ोन पर नज़र जाती है और....
अम्मा की गोदी, अब महसूस भी नहीं कर पाता….अब ख़ुद को बच्चा भी नहीं मान पाता..अब लगने लगा है बहुत बड़ा हो गया हो गया हूं मैं..बहुत ज़्यादा।
कई लोग चले गए। अजीब ही साल था। नाना अप्रैल में चले गए। नाना अब बच्चे हो गए थे। पहले वाले नाना से डर लगता था, नानी के जाने के बाद नाना मासूम हो गए थे। प्यार आता था। एक ही बात दस बार पूछते, फिर भूल जाते..अब नाना भी नहीं हैं।
बड़की मौसी भी अब नहीं है। जुलाई में मौसी की तबीयत बिगड़ी, फिर कुछ दिन कोमा में रही, एक दिन ख़बर आई मौसी अब नहीं है...मैं उन ख़ुशनसीब लोगों में एक था जो दौड़कर अपने मौसी के पास जा सकते हैं...अब अम्मा की तरह मौसी भी जा चुकी है।
जुलाई में ही पाले काका भी चले गए......किसी को नहीं जाना था। रुकना था..ऐसी भी क्या जल्दी थी जाने की। दुनिया इतनी बुरी भी जगह नहीं है जहां रहा न जा सके।
काश, कोई ऐसी युक्ति होती जिससे जो गए हैं, उन्हें लौटा लाते। वैसे ही जैसे सावित्री ने यम से सत्यवान को छीन लिया था... या जैसे कृष्ण अपने भाइयों को लौटा लाए थे....।
अच्छा ज़माना था जब स्वर्ग तक इंसानों का आना-जाना था। अब कोई चुपके से आता है, उठा ले जाता है।
यह साल, सच में पलायन का साल था।