बचपन में मैंने मम्मी से एक कहानी सुनी थी. शर्मा और श्रीवास्तव जी कहानी के मुख्य पात्र थे.
शर्मा जी का परिवार बहुत सात्विक था. मीट-मांस तो दूर कोई लहसुन-प्याज तक नहीं खाता था. सुबह-शाम आरती भजन का कार्यक्रम चलता रहता था. बिना भोग लगाये अन्न क्या कोई जल तक ग्रहण नहीं करता था.
उन्हीं के बगल में श्रीवास्तव जी का परिवार रहता था. मांस-मदिरा बिना तो एक दिन भी नहीं गुजरता था. मंगलवार अपवाद था.
श्रीवास्तव जी जब भी खा कर बाहर निकलते तो गली-गली में घूम कर डकार मारते. उनके डकार में भी प्रचार का पुट था. हर बार मटन-चिकन, मछली, मुर्गा ज़्यादा खा लेने की वज़ह से उन्हें डकार आ जाता था. अपने समृद्धि का प्रचार-प्रसार करने में श्रीवास्तव जी कभी नहीं चूकते थे. उनकी पत्नी उनसे भी ज़्यादा दिखावे में विश्वास रखती थीं.
एक दिन शर्मा जी के घर कुछ मेहमान आये. मेहमान क्या दामाद और समधी वो भी पहली बार. समधी और दामाद ठहरे मांस भक्षी. उन्हें भी श्रीवास्तव जी वाली लत लगी थी. शर्मा जी आवभगत में समधी जी से पूछ बैठे कि भोजन में क्या लेंगे ?
समधी जी ने कहा जी ने कहा कि बकरा कटवाइए. आज तो मौसम भी अच्छा है आनंद आएगा.
शर्मा जी धार्मिक आदमी ठहरे, मान्य की इच्छा कैसे न मानते. कसाई के घर से बकरे का मांस मंगवाया गया. शर्माइन काकी मांस देखते ही कूद पड़ीं. बोलीं जीवन भर की त्याग और तपस्या एक झटके में किसी के कहने पर लुटा दे रहे हैं. न समधी, न दामाद जी भगवान यहाँ साथ जायेंगे.
क्या मुंह दिखायेंगे भगवान को ?
लेकिन शर्मा जी टस से मस न हुए. उन्हें तो समधी जी की इच्छा पूरी करनी थी. किचन में ला पटके मांस का थैला. शर्माइन काकी भी कहाँ पीछे रहतीं, बहुरिया के साथ मिलकर किचन से सारे बर्तन पूजा घर में लगा बैठीं.
अब शर्मा जी धर्म संकट में फंस गये. समधी जी की इच्छा न पूरी करते तब भगवान नाराज़ होते और पत्नी से झगड़ा करते तो लक्ष्मी मैया.
शर्मा जी ने एक विकल्प तलाशा. श्रीवास्तव जी यहाँ रोज़ मुर्गा मटन बनता था तो उनसे बर्तन मांगने में कोई हर्ज़ न था. कुछ मेहमान बढ़ गए हैं यही बहाना मार के श्रीवास्तव जी यहाँ से कड़ाही, थाली मांग लाये.
समधी जी ने भोग लगाया. दामाद जी भी डकारे. शर्मा जी ने भी वर्षों का त्याग छोड़ कर एक कौर मार लिया. खाते ही उन्हें लगा व्यर्थ में ही सारा जीवन निष्फल किया, धर्मपत्नी का का मन दुखाया यह तो दो कौड़ी का स्वाद है. बेचारे से एक कौर भी न खाया गया.
सुबह-सुबह जब श्रीवस्तवाइन काकी अपना बर्तन मांगने शर्मा जी के घर गईं तो देखा बर्तनों में हड्डियाँ पड़ी हैं. अब दिमाग ठनक गया काकी का.
इतना बड़ा छल? उन्हें ख़ुद जब मीट खाना होता था तो वे कहीं और से बर्तन मांग कर लाती थीं. अपना बर्तन तो केवल मंगलवार के दिन इस्तेमाल करती थीं. उन्हें गहरी ठेस पहुँच गयी शर्मा जी के छल से.
जैसे-तैसे बर्तन साफ करवा के अपने घर ले गईं. शाम को जब श्रीवास्तव जी घर आये तो बदला लेने पर पूरे परिवार ने मंथन किया. कैसे शर्मा जी से बदला लिया जाये. कुछ लोग कह रहे थे शर्मा जी से बर्तन मांग कर नाली में डाल देते हैं फिर सादे पानी से धुलकर दे देंगे बदला पूरा हो जायेगा. तो कुछ कह रहे थे दक्खिन टोला के मंगरुआ को खाना खिलाओ शर्मा जी के थाली में उनका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा. इतने में श्रीवस्तवाइन काकी के दिमाग में एक एक्सक्लूसिव आइडिया आया. उन्होंने कहा कि क्यों न हम शर्मा जी की थाली में टट्टी(मल ) खा लें. परिवार भर को आइडिया पसंद आया. सबने बारी बारी से एक-एक कौर गटक लिया.
जब शर्मा जी के यहाँ काम करने वाली महरिन काकी श्रीवास्तव जी के यहाँ बर्तन मांगने गईं तो देखा आँगन में बर्तन पड़ें हैं. श्रीवस्तवाइन काकी ने महरिन काकी से कहा जाओ बर्तन उठा लो. महरिन काकी ने कहा ठीक है मालकिन उठाई लेत हन. पास गईं तो देखा बर्तनों में कुछ पीला-पीला लगा है. पहले उन्हें लगा दाल है लेकिन सूंघ के देखा तो एहसास हुआ टट्टी है.
वहां से महरिन काकी श्रीवास्तव जी के परिवार को गरियाते हुए निकलीं. गावं भर में घूम-घूम कर सबको बताने लगीं कि, 'ललाइन कै बर्तन में हमार मालिक मीट खाइन लेकिन बदला काढ़े के खरतिन ललाइन कै घर भर मालिक के थरिया में गुह खाइस.'
मतलब श्रीवास्तव जी का पूरा परिवार सिर्फ़ बदला लेने के लिए शर्मा जी की थाली में पोटी गटक लिया.
श्रीवास्तव जी की पूरे गाँव में थू-थू हुई उन्हें मजबूरन गाँव छोड़ कर जाना पड़ा.
ये कहानी भारतीय राजनीति पर फ़िट बैठती है. भाजपा और संघ की बुराई के लिए सारे राजनीतिक दल किसी भी स्तर पर जा सकते हैं. पिछले कुछ दिनों में दर्जन भर उदाहरण आपको मिल जायेंगे. विरोध के लिए किसी भी स्तर पर जाने के लिए लोग तैयार हैं.
ऐसा करके वो भाजपा, संघ या मोदी का विरोध नहीं कर रहे बल्कि इस विचारधारा को सार्वभौमिक बना दे रहे हैं. मोदी पल भर भी जनता के आंख-कान से दूर नहीं हुए हैं. उनके विरोधियों ने उनकी छवि भगवान जैसी बना दी है. सपने में मोदी, जगने पर मोदी. अच्छा हो तो मोदी, बुरा हो तो मोदी. मोदी मतलब भारत.
मीडिया, राजनीतिक पार्टियां और बुद्धिजीवी मोदी को पल भर भूल नहीं पा रहे हैं. ऐसी स्तरहीन आलोचना कभी और कहीं कम देखने को मिलती है.
जब राजनीति में चिंतन का केंद्र बिंदु एक व्यक्ति, संस्था और विचारधारा को बना दिया जाता है तब ज़रूरी मुद्दे अप्रासंगिक लगने लगते हैं और उन पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता. ध्यान जाये भी तो कैसे जब विपक्ष की आलोचना एक व्यक्ति के आस-पास मंडराने लगे.
इस कहानी में भाजपा है शर्मा जी. छीछालेदर भी मचा लिए, धर्मभ्रष्ट भी हुए, न स्वाद मिला न समधी जी ही मेहरबान हुए.
श्रीवास्तव जी ने अपनी भी थू-थू कराई और परिवार की भी, फलतः गाँव छोड़ कर जाना पड़ा. मतलब जो था वो भी गया. तो विपक्ष हुआ श्रीवास्तव जी का परिवार.
अब महरिन काकी है भारतीय जनता. शर्मा जी और श्रीवास्तव जी के कुकर्मों की पोल गाँव में घूम-घूम कर कर खोल दी.
जनता को अब यही काम करना चाहिए. न मोदी न विपक्ष न मीडिया. किसी की न सुने. खुद परखे और जाने किसने कितना बड़ा झोल किया है. वैसे भी अब कुछ भी जानना बहुत आसान हो गया है अगर कोई जानना चाहे तो. न चाहे तो उसका अपना मन.
किसी और से कुछ मत पूछिए. सबने एक चश्मा लगा रखा है. सबको उस चश्मे से एक ख़ास रंग ही दिखता है. किसी को केसरिया, किसी को हरा, किसी को लाल तो किसी को नीला. सफेद सिर्फ जनता का चेहरा है जो इन लोगों को सुन-सुन कर पीला पड़ता जा रहा है.
कुछ और दिन सुन लिया चेहरे पर छाला पड़ जाएगा. कीड़े पड़ेंगे फिर उसमें.
अब भी वक़्त है.
सच जानने के लिए किसी पर निर्भर न रहें...खुद सच तलाशें. सच की आपसे दुश्मनी नहीं है...आपसे लुक्का-छिप्पी नहीं खेलेगा.
शर्मा जी का परिवार बहुत सात्विक था. मीट-मांस तो दूर कोई लहसुन-प्याज तक नहीं खाता था. सुबह-शाम आरती भजन का कार्यक्रम चलता रहता था. बिना भोग लगाये अन्न क्या कोई जल तक ग्रहण नहीं करता था.
उन्हीं के बगल में श्रीवास्तव जी का परिवार रहता था. मांस-मदिरा बिना तो एक दिन भी नहीं गुजरता था. मंगलवार अपवाद था.
श्रीवास्तव जी जब भी खा कर बाहर निकलते तो गली-गली में घूम कर डकार मारते. उनके डकार में भी प्रचार का पुट था. हर बार मटन-चिकन, मछली, मुर्गा ज़्यादा खा लेने की वज़ह से उन्हें डकार आ जाता था. अपने समृद्धि का प्रचार-प्रसार करने में श्रीवास्तव जी कभी नहीं चूकते थे. उनकी पत्नी उनसे भी ज़्यादा दिखावे में विश्वास रखती थीं.
एक दिन शर्मा जी के घर कुछ मेहमान आये. मेहमान क्या दामाद और समधी वो भी पहली बार. समधी और दामाद ठहरे मांस भक्षी. उन्हें भी श्रीवास्तव जी वाली लत लगी थी. शर्मा जी आवभगत में समधी जी से पूछ बैठे कि भोजन में क्या लेंगे ?
समधी जी ने कहा जी ने कहा कि बकरा कटवाइए. आज तो मौसम भी अच्छा है आनंद आएगा.
शर्मा जी धार्मिक आदमी ठहरे, मान्य की इच्छा कैसे न मानते. कसाई के घर से बकरे का मांस मंगवाया गया. शर्माइन काकी मांस देखते ही कूद पड़ीं. बोलीं जीवन भर की त्याग और तपस्या एक झटके में किसी के कहने पर लुटा दे रहे हैं. न समधी, न दामाद जी भगवान यहाँ साथ जायेंगे.
क्या मुंह दिखायेंगे भगवान को ?
लेकिन शर्मा जी टस से मस न हुए. उन्हें तो समधी जी की इच्छा पूरी करनी थी. किचन में ला पटके मांस का थैला. शर्माइन काकी भी कहाँ पीछे रहतीं, बहुरिया के साथ मिलकर किचन से सारे बर्तन पूजा घर में लगा बैठीं.
अब शर्मा जी धर्म संकट में फंस गये. समधी जी की इच्छा न पूरी करते तब भगवान नाराज़ होते और पत्नी से झगड़ा करते तो लक्ष्मी मैया.
शर्मा जी ने एक विकल्प तलाशा. श्रीवास्तव जी यहाँ रोज़ मुर्गा मटन बनता था तो उनसे बर्तन मांगने में कोई हर्ज़ न था. कुछ मेहमान बढ़ गए हैं यही बहाना मार के श्रीवास्तव जी यहाँ से कड़ाही, थाली मांग लाये.
समधी जी ने भोग लगाया. दामाद जी भी डकारे. शर्मा जी ने भी वर्षों का त्याग छोड़ कर एक कौर मार लिया. खाते ही उन्हें लगा व्यर्थ में ही सारा जीवन निष्फल किया, धर्मपत्नी का का मन दुखाया यह तो दो कौड़ी का स्वाद है. बेचारे से एक कौर भी न खाया गया.
सुबह-सुबह जब श्रीवस्तवाइन काकी अपना बर्तन मांगने शर्मा जी के घर गईं तो देखा बर्तनों में हड्डियाँ पड़ी हैं. अब दिमाग ठनक गया काकी का.
इतना बड़ा छल? उन्हें ख़ुद जब मीट खाना होता था तो वे कहीं और से बर्तन मांग कर लाती थीं. अपना बर्तन तो केवल मंगलवार के दिन इस्तेमाल करती थीं. उन्हें गहरी ठेस पहुँच गयी शर्मा जी के छल से.
जैसे-तैसे बर्तन साफ करवा के अपने घर ले गईं. शाम को जब श्रीवास्तव जी घर आये तो बदला लेने पर पूरे परिवार ने मंथन किया. कैसे शर्मा जी से बदला लिया जाये. कुछ लोग कह रहे थे शर्मा जी से बर्तन मांग कर नाली में डाल देते हैं फिर सादे पानी से धुलकर दे देंगे बदला पूरा हो जायेगा. तो कुछ कह रहे थे दक्खिन टोला के मंगरुआ को खाना खिलाओ शर्मा जी के थाली में उनका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा. इतने में श्रीवस्तवाइन काकी के दिमाग में एक एक्सक्लूसिव आइडिया आया. उन्होंने कहा कि क्यों न हम शर्मा जी की थाली में टट्टी(मल ) खा लें. परिवार भर को आइडिया पसंद आया. सबने बारी बारी से एक-एक कौर गटक लिया.
जब शर्मा जी के यहाँ काम करने वाली महरिन काकी श्रीवास्तव जी के यहाँ बर्तन मांगने गईं तो देखा आँगन में बर्तन पड़ें हैं. श्रीवस्तवाइन काकी ने महरिन काकी से कहा जाओ बर्तन उठा लो. महरिन काकी ने कहा ठीक है मालकिन उठाई लेत हन. पास गईं तो देखा बर्तनों में कुछ पीला-पीला लगा है. पहले उन्हें लगा दाल है लेकिन सूंघ के देखा तो एहसास हुआ टट्टी है.
वहां से महरिन काकी श्रीवास्तव जी के परिवार को गरियाते हुए निकलीं. गावं भर में घूम-घूम कर सबको बताने लगीं कि, 'ललाइन कै बर्तन में हमार मालिक मीट खाइन लेकिन बदला काढ़े के खरतिन ललाइन कै घर भर मालिक के थरिया में गुह खाइस.'
मतलब श्रीवास्तव जी का पूरा परिवार सिर्फ़ बदला लेने के लिए शर्मा जी की थाली में पोटी गटक लिया.
श्रीवास्तव जी की पूरे गाँव में थू-थू हुई उन्हें मजबूरन गाँव छोड़ कर जाना पड़ा.
ये कहानी भारतीय राजनीति पर फ़िट बैठती है. भाजपा और संघ की बुराई के लिए सारे राजनीतिक दल किसी भी स्तर पर जा सकते हैं. पिछले कुछ दिनों में दर्जन भर उदाहरण आपको मिल जायेंगे. विरोध के लिए किसी भी स्तर पर जाने के लिए लोग तैयार हैं.
ऐसा करके वो भाजपा, संघ या मोदी का विरोध नहीं कर रहे बल्कि इस विचारधारा को सार्वभौमिक बना दे रहे हैं. मोदी पल भर भी जनता के आंख-कान से दूर नहीं हुए हैं. उनके विरोधियों ने उनकी छवि भगवान जैसी बना दी है. सपने में मोदी, जगने पर मोदी. अच्छा हो तो मोदी, बुरा हो तो मोदी. मोदी मतलब भारत.
मीडिया, राजनीतिक पार्टियां और बुद्धिजीवी मोदी को पल भर भूल नहीं पा रहे हैं. ऐसी स्तरहीन आलोचना कभी और कहीं कम देखने को मिलती है.
जब राजनीति में चिंतन का केंद्र बिंदु एक व्यक्ति, संस्था और विचारधारा को बना दिया जाता है तब ज़रूरी मुद्दे अप्रासंगिक लगने लगते हैं और उन पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता. ध्यान जाये भी तो कैसे जब विपक्ष की आलोचना एक व्यक्ति के आस-पास मंडराने लगे.
इस कहानी में भाजपा है शर्मा जी. छीछालेदर भी मचा लिए, धर्मभ्रष्ट भी हुए, न स्वाद मिला न समधी जी ही मेहरबान हुए.
श्रीवास्तव जी ने अपनी भी थू-थू कराई और परिवार की भी, फलतः गाँव छोड़ कर जाना पड़ा. मतलब जो था वो भी गया. तो विपक्ष हुआ श्रीवास्तव जी का परिवार.
अब महरिन काकी है भारतीय जनता. शर्मा जी और श्रीवास्तव जी के कुकर्मों की पोल गाँव में घूम-घूम कर कर खोल दी.
जनता को अब यही काम करना चाहिए. न मोदी न विपक्ष न मीडिया. किसी की न सुने. खुद परखे और जाने किसने कितना बड़ा झोल किया है. वैसे भी अब कुछ भी जानना बहुत आसान हो गया है अगर कोई जानना चाहे तो. न चाहे तो उसका अपना मन.
किसी और से कुछ मत पूछिए. सबने एक चश्मा लगा रखा है. सबको उस चश्मे से एक ख़ास रंग ही दिखता है. किसी को केसरिया, किसी को हरा, किसी को लाल तो किसी को नीला. सफेद सिर्फ जनता का चेहरा है जो इन लोगों को सुन-सुन कर पीला पड़ता जा रहा है.
कुछ और दिन सुन लिया चेहरे पर छाला पड़ जाएगा. कीड़े पड़ेंगे फिर उसमें.
अब भी वक़्त है.
सच जानने के लिए किसी पर निर्भर न रहें...खुद सच तलाशें. सच की आपसे दुश्मनी नहीं है...आपसे लुक्का-छिप्पी नहीं खेलेगा.