सोमवार, 12 सितंबर 2016

जीत लो जग का निश्छल प्यार

नयन में उतर रहे कुछ स्वप्न
सार जिनका मुझसे अनभिज्ञ
आज और कल की ऊहापोह
अब कहाँ रहा मेरा मन विज्ञ ?


कई युग बीत गए हैं मित्र
यथावत रहा कहाँ संसार,
नित्य परिभाषाएं बदलीं
हुआ केवल मन का अभिसार.


यही है जीवित मन की शक्ति
यही मानव मन का उद्गार,
एक ही कर्म मनुज के योग्य
जीत लो जग का निश्छल प्यार .
-अभिषेक शुक्ल

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (14-09-2016) को "हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-2465) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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