आत्मप्रशंसा, आत्मश्लाघा और आत्ममुग्धता जीवन के अपरिहार्य अवयव हैं। इन तीनों तत्वों के अभाव में अवसाद जन्म लेता है, जो व्यक्ति को जीवित शव बनाता है।
जैसे शक्तिहीन शिव शव के सामान हैं वैसे ही इन तत्वों के अभाव में व्यक्ति शव है।
वह व्यक्ति निष्प्राण है जो इन तत्वों से विरत है।
आत्मप्रशंसा हमें कई जघन्य कृत्यों से विलगित करता है। इससे हम प्रायः दूसरों की आलोचना, अनुशंसा और निंदा से बच जाते हैं। निंदा चाहे अपनी हो या अपनों की हो केवल विषाद को जन्म देती है। निंदा परिणामहीन पथ है जिस पर चलकर केवल वैमनस्य जन्म लेता है। वैमनस्य जहाँ भी जन्म लेता है वहाँ विनाश होता है…बुद्धि का सम्पूर्ण ह्रास होता है।
जब हम आत्मप्रशंसा की राह थामते हैं तो इस महापाप से स्वतः बच जाते हैं अतः
आत्मप्रशंसा अनिवार्य है।
आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा से तनिक पृथक है। आत्मश्लाघा में व्यक्ति अपने सद्भावपूर्ण कृत्यों की प्रशंसा करता है। आपसे अनभिज्ञता में अथवा संज्ञान में कोई भी ऐसा सत्कर्म हो जाए जो समाज के लिए हितकर हो, अनुकरणीय हो तो उसे प्रचारित और प्रकाशित अवश्य करें…ऐसा करना नारायण की सहायता करने जैसा है।
आत्ममुग्धता; संसार का श्रेष्ठतम तप है। आत्ममुग्धता तो परमतत्व को प्राप्त करने का साधन है। जब तक आप स्वयं से प्रेम करना नहीं सीखते आप प्रेम जानते ही नहीं। जो स्वयं से प्रेम करता है वह विश्व से प्रेम करता है। व्यक्तिवाद से ऊपर उठ अध्यात्मवाद की ओर चलता है, जहाँ न कोई जड़ है न कोई चेतन है।
विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी पहली और अंतिम साधना आत्ममुग्धता रही है। आत्ममुग्धता हीन भावना से नहीं उपजती, श्रेष्ठ कर्मों से उपजती है। कर्म ही कर्म को आकर्षित कर सकता है इसके लिए कर्मठ बनना पड़ता है…आत्ममुग्धता तब जन्म लेती है। स्मरण रहे आत्ममुग्धता अहंकार से पृथक तत्त्व है।
” एकोहम् द्वितीयो नास्ति न भूतो न भविष्यतिः” अहंकार है आत्ममुग्धता नहीं। अहं भाव तो सब दुखों का कारण है, यह ऐसी मनोवृत्ति है जिसका कोई उपचार नहीं है। जिसमे लेशमात्र भी यह गुण है वह मानव होते हुए भी अमानव है…उसके व्यथा का भी यही एक मात्र कारण है।
जब व्यक्ति आत्ममुग्धता की ओर अग्रसर होता है तो उसका प्रतिद्वंदी ही नहीं रहता, यह व्यक्ति की सर्वोत्तम अवस्था होती है।
आत्मप्रशंसा,आत्मश्लाघा और आत्ममुग्धता तीनों को पृथक न देखने पर एक ही भाव मन में उपजता है जिसे “प्रेम” कहा जाता है। प्रेम चाहे संसार के प्रति हो या स्वयं के प्रति प्रेम-प्रेम होता है। प्रेम का अर्थ ही कल्याण होता है।
यह मानव का स्वभाव ही है कि वह बहुत शीघ्र निष्कर्ष तक पहुँच जाता है, भले ही निष्कर्ष कल्पित हो।
अपने गुणों को(खूबियों को) संसार के सामने प्रकट करो, दुर्गुण (खामियां) तो संसार स्वतः खोज लेता है।
मुझमे अनंत दोष हैं और दुर्गुण भी, यदि अपने दुर्गुणों को मैं सबसे बताता चलूँ तो मैं उनका प्रचार कर रहा हूँ उन्हें प्रोत्साहित कर रहा हूँ। हो सकता है किसी का मैं आदर्श हूँ, हो सकता है कोई मुझसे प्रभावित हो यदि वह मेरे अवगुणों को जानेगा तो उन्हें अपना सकता है क्योंकि प्रायः यही देखा गया है कि अवगुण, गुणों की अपेक्षा अधिक आकर्षक होते हैं…यदि मैं अपने अवगुण सबके सामने प्रकट करूँ तो ये किस तरह का कृत्य होगा?
यदि मैं सद् गुण को, अपने कला को संसार के सामने प्रकट करूँ तो हो सकता है कोई मार्ग से भटका व्यक्ति पुनः सन्मार्ग पर आ जाये।
मानवता तो यही कहती है न कि सत्कर्मों को विश्व में फैलाओ…..कुकर्मों को नहीं।
किसी महान विभूति ने कहा है कि “जब-तक हम अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों पर गर्व करना नहीं सीखते तब-तक हमारे जीवन में किसी बड़ी उपलब्धि का प्रस्फुटन नहीं होता।” गर्व करो…पर अहंकार युक्त नहीं आत्ममुग्धता युक्त।
प्रयत्न तो यह हो कि अवगुणों से पृथक रहो उन्हें स्वयं पर हावी मत होने दो, दबा दो किन्तु यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो अवगुणों पर पर्दा डालो…उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करो…अवगुणों का अधिवक्ता न बनो। उन्हें सुरक्षित रखना मेरे मति से महापाप है और जान-बूझ कर पाप करना उचित कैसे हो सकता है?
अपनी खूबियों को संसार के सामने लाओ बुराइयां तो लोग खुद ही ढूंढ लेंगे।
पुरुष स्वाभाव से ही व्यभिचारी होता है, कुछ को अवसर मिलता है कुछ व्यभिचार न कर पाने की कुंठा में जीते हैं, कुछ अवसर तलाशते हैं और कुछ सदाचार से व्यभिचार को अस्तित्वहीन करते किंतु यह खामी हर इंसान में होती है तो क्या इसकी वकालत करते चलें? इसे सुरक्षा दें?
ऐसा करना सर्वथा अनुचित है।
अपनी खामियों की चर्चा मत करो…उन्हें ख़त्म हो जाने दो…मिट जाने दो…तुम्हारी अच्छाइयों से दुनिया का और तुम्हारा भला होगा बुराइयों से नहीं।
अपने खामियों की चर्चा करना वीरता नहीं भीरुता है..इतनी कमज़ोरी क्यों की अपने ही मनोदशा पर नियंत्रण न रहे?
जब माँ भारती के प्रांगण में जन्म ले ही लिया है जहाँ परोपकार संस्कार में मिलता है…वहाँ बिना सत्कर्मों का बीज बोए पलायन करना उचित तो नहीं?
आओ! इस जीवन यज्ञ में शुभ कर्मों का सन्धान करें….संसार को सन्मार्ग पर प्रेरित करें…भले ही हमारा यह प्रयत्न अपेक्षाकृत कम प्रभावी हो…किन्तु अस्तित्वहीन तो न होगा?
(मेरे भैया की कलम से .)
लेखक-
अनुराग
अधिवक्ता,
चैम्बर नंबर २३,सिद्धार्थ बार एसोसिएशन
सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश.
जैसे शक्तिहीन शिव शव के सामान हैं वैसे ही इन तत्वों के अभाव में व्यक्ति शव है।
वह व्यक्ति निष्प्राण है जो इन तत्वों से विरत है।
आत्मप्रशंसा हमें कई जघन्य कृत्यों से विलगित करता है। इससे हम प्रायः दूसरों की आलोचना, अनुशंसा और निंदा से बच जाते हैं। निंदा चाहे अपनी हो या अपनों की हो केवल विषाद को जन्म देती है। निंदा परिणामहीन पथ है जिस पर चलकर केवल वैमनस्य जन्म लेता है। वैमनस्य जहाँ भी जन्म लेता है वहाँ विनाश होता है…बुद्धि का सम्पूर्ण ह्रास होता है।
जब हम आत्मप्रशंसा की राह थामते हैं तो इस महापाप से स्वतः बच जाते हैं अतः
आत्मप्रशंसा अनिवार्य है।
आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा से तनिक पृथक है। आत्मश्लाघा में व्यक्ति अपने सद्भावपूर्ण कृत्यों की प्रशंसा करता है। आपसे अनभिज्ञता में अथवा संज्ञान में कोई भी ऐसा सत्कर्म हो जाए जो समाज के लिए हितकर हो, अनुकरणीय हो तो उसे प्रचारित और प्रकाशित अवश्य करें…ऐसा करना नारायण की सहायता करने जैसा है।
आत्ममुग्धता; संसार का श्रेष्ठतम तप है। आत्ममुग्धता तो परमतत्व को प्राप्त करने का साधन है। जब तक आप स्वयं से प्रेम करना नहीं सीखते आप प्रेम जानते ही नहीं। जो स्वयं से प्रेम करता है वह विश्व से प्रेम करता है। व्यक्तिवाद से ऊपर उठ अध्यात्मवाद की ओर चलता है, जहाँ न कोई जड़ है न कोई चेतन है।
विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी पहली और अंतिम साधना आत्ममुग्धता रही है। आत्ममुग्धता हीन भावना से नहीं उपजती, श्रेष्ठ कर्मों से उपजती है। कर्म ही कर्म को आकर्षित कर सकता है इसके लिए कर्मठ बनना पड़ता है…आत्ममुग्धता तब जन्म लेती है। स्मरण रहे आत्ममुग्धता अहंकार से पृथक तत्त्व है।
” एकोहम् द्वितीयो नास्ति न भूतो न भविष्यतिः” अहंकार है आत्ममुग्धता नहीं। अहं भाव तो सब दुखों का कारण है, यह ऐसी मनोवृत्ति है जिसका कोई उपचार नहीं है। जिसमे लेशमात्र भी यह गुण है वह मानव होते हुए भी अमानव है…उसके व्यथा का भी यही एक मात्र कारण है।
जब व्यक्ति आत्ममुग्धता की ओर अग्रसर होता है तो उसका प्रतिद्वंदी ही नहीं रहता, यह व्यक्ति की सर्वोत्तम अवस्था होती है।
आत्मप्रशंसा,आत्मश्लाघा और आत्ममुग्धता तीनों को पृथक न देखने पर एक ही भाव मन में उपजता है जिसे “प्रेम” कहा जाता है। प्रेम चाहे संसार के प्रति हो या स्वयं के प्रति प्रेम-प्रेम होता है। प्रेम का अर्थ ही कल्याण होता है।
यह मानव का स्वभाव ही है कि वह बहुत शीघ्र निष्कर्ष तक पहुँच जाता है, भले ही निष्कर्ष कल्पित हो।
अपने गुणों को(खूबियों को) संसार के सामने प्रकट करो, दुर्गुण (खामियां) तो संसार स्वतः खोज लेता है।
मुझमे अनंत दोष हैं और दुर्गुण भी, यदि अपने दुर्गुणों को मैं सबसे बताता चलूँ तो मैं उनका प्रचार कर रहा हूँ उन्हें प्रोत्साहित कर रहा हूँ। हो सकता है किसी का मैं आदर्श हूँ, हो सकता है कोई मुझसे प्रभावित हो यदि वह मेरे अवगुणों को जानेगा तो उन्हें अपना सकता है क्योंकि प्रायः यही देखा गया है कि अवगुण, गुणों की अपेक्षा अधिक आकर्षक होते हैं…यदि मैं अपने अवगुण सबके सामने प्रकट करूँ तो ये किस तरह का कृत्य होगा?
यदि मैं सद् गुण को, अपने कला को संसार के सामने प्रकट करूँ तो हो सकता है कोई मार्ग से भटका व्यक्ति पुनः सन्मार्ग पर आ जाये।
मानवता तो यही कहती है न कि सत्कर्मों को विश्व में फैलाओ…..कुकर्मों को नहीं।
किसी महान विभूति ने कहा है कि “जब-तक हम अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों पर गर्व करना नहीं सीखते तब-तक हमारे जीवन में किसी बड़ी उपलब्धि का प्रस्फुटन नहीं होता।” गर्व करो…पर अहंकार युक्त नहीं आत्ममुग्धता युक्त।
प्रयत्न तो यह हो कि अवगुणों से पृथक रहो उन्हें स्वयं पर हावी मत होने दो, दबा दो किन्तु यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो अवगुणों पर पर्दा डालो…उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करो…अवगुणों का अधिवक्ता न बनो। उन्हें सुरक्षित रखना मेरे मति से महापाप है और जान-बूझ कर पाप करना उचित कैसे हो सकता है?
अपनी खूबियों को संसार के सामने लाओ बुराइयां तो लोग खुद ही ढूंढ लेंगे।
पुरुष स्वाभाव से ही व्यभिचारी होता है, कुछ को अवसर मिलता है कुछ व्यभिचार न कर पाने की कुंठा में जीते हैं, कुछ अवसर तलाशते हैं और कुछ सदाचार से व्यभिचार को अस्तित्वहीन करते किंतु यह खामी हर इंसान में होती है तो क्या इसकी वकालत करते चलें? इसे सुरक्षा दें?
ऐसा करना सर्वथा अनुचित है।
अपनी खामियों की चर्चा मत करो…उन्हें ख़त्म हो जाने दो…मिट जाने दो…तुम्हारी अच्छाइयों से दुनिया का और तुम्हारा भला होगा बुराइयों से नहीं।
अपने खामियों की चर्चा करना वीरता नहीं भीरुता है..इतनी कमज़ोरी क्यों की अपने ही मनोदशा पर नियंत्रण न रहे?
जब माँ भारती के प्रांगण में जन्म ले ही लिया है जहाँ परोपकार संस्कार में मिलता है…वहाँ बिना सत्कर्मों का बीज बोए पलायन करना उचित तो नहीं?
आओ! इस जीवन यज्ञ में शुभ कर्मों का सन्धान करें….संसार को सन्मार्ग पर प्रेरित करें…भले ही हमारा यह प्रयत्न अपेक्षाकृत कम प्रभावी हो…किन्तु अस्तित्वहीन तो न होगा?
(मेरे भैया की कलम से .)
लेखक-
अनुराग
अधिवक्ता,
चैम्बर नंबर २३,सिद्धार्थ बार एसोसिएशन
सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश.