गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

आत्ममुग्धता

आत्मप्रशंसा, आत्मश्लाघा और आत्ममुग्धता जीवन के अपरिहार्य अवयव हैं। इन तीनों तत्वों के अभाव में अवसाद जन्म लेता है, जो व्यक्ति को जीवित शव बनाता है।
 जैसे शक्तिहीन शिव शव के सामान हैं वैसे ही इन तत्वों के अभाव में व्यक्ति शव है।
 वह व्यक्ति निष्प्राण है जो इन तत्वों से विरत है।
 आत्मप्रशंसा हमें कई जघन्य कृत्यों से विलगित करता है। इससे हम प्रायः दूसरों की आलोचना, अनुशंसा और निंदा से बच जाते हैं। निंदा चाहे अपनी हो या अपनों की हो केवल विषाद को जन्म देती है। निंदा परिणामहीन पथ है जिस पर चलकर केवल वैमनस्य जन्म लेता है। वैमनस्य जहाँ भी जन्म लेता है वहाँ विनाश होता है…बुद्धि का सम्पूर्ण ह्रास होता है।
 जब हम आत्मप्रशंसा की राह थामते हैं तो इस महापाप से स्वतः बच जाते हैं अतः
 आत्मप्रशंसा अनिवार्य है।
 आत्मश्लाघा, आत्मप्रशंसा से तनिक पृथक है। आत्मश्लाघा में व्यक्ति अपने सद्भावपूर्ण कृत्यों की प्रशंसा करता है। आपसे अनभिज्ञता में अथवा संज्ञान में कोई भी ऐसा सत्कर्म हो जाए जो समाज के लिए हितकर हो, अनुकरणीय हो तो उसे प्रचारित और प्रकाशित अवश्य करें…ऐसा करना नारायण की सहायता करने जैसा है।
 आत्ममुग्धता; संसार का श्रेष्ठतम तप है। आत्ममुग्धता तो परमतत्व को प्राप्त करने का साधन है। जब तक आप स्वयं से प्रेम करना नहीं सीखते आप प्रेम जानते ही नहीं। जो स्वयं से प्रेम करता है वह विश्व से प्रेम करता है। व्यक्तिवाद से ऊपर उठ अध्यात्मवाद की ओर चलता है, जहाँ न कोई जड़ है न कोई चेतन है।
 विश्व में जितने भी महापुरुष हुए हैं उनकी पहली और अंतिम साधना आत्ममुग्धता रही है। आत्ममुग्धता हीन भावना से नहीं उपजती, श्रेष्ठ कर्मों से उपजती है। कर्म ही कर्म को आकर्षित कर सकता है इसके लिए कर्मठ बनना पड़ता है…आत्ममुग्धता तब जन्म लेती है। स्मरण रहे आत्ममुग्धता अहंकार से पृथक तत्त्व है।
” एकोहम् द्वितीयो नास्ति न भूतो न भविष्यतिः” अहंकार है आत्ममुग्धता नहीं। अहं भाव तो सब दुखों का कारण है, यह ऐसी मनोवृत्ति है जिसका कोई उपचार नहीं है। जिसमे लेशमात्र भी यह गुण है वह मानव होते हुए भी अमानव है…उसके व्यथा का भी यही एक मात्र कारण है।
 जब व्यक्ति आत्ममुग्धता की ओर अग्रसर होता है तो उसका प्रतिद्वंदी ही नहीं रहता, यह व्यक्ति की सर्वोत्तम अवस्था होती है।
 आत्मप्रशंसा,आत्मश्लाघा और आत्ममुग्धता तीनों को पृथक न देखने पर एक ही भाव मन में उपजता है जिसे “प्रेम” कहा जाता है। प्रेम चाहे संसार के प्रति हो या स्वयं के प्रति प्रेम-प्रेम होता है। प्रेम का अर्थ ही कल्याण होता है।
 यह मानव का स्वभाव ही है कि वह बहुत शीघ्र निष्कर्ष तक पहुँच जाता है, भले ही निष्कर्ष कल्पित हो।
 अपने गुणों को(खूबियों को) संसार के सामने प्रकट करो, दुर्गुण (खामियां) तो संसार स्वतः खोज लेता है।
 मुझमे अनंत दोष हैं और दुर्गुण भी, यदि अपने दुर्गुणों को मैं सबसे बताता चलूँ तो मैं उनका प्रचार कर रहा हूँ उन्हें प्रोत्साहित कर रहा हूँ। हो सकता है किसी का मैं आदर्श हूँ, हो सकता है कोई मुझसे प्रभावित हो यदि वह मेरे अवगुणों को जानेगा तो उन्हें अपना सकता है क्योंकि प्रायः यही देखा गया है कि अवगुण, गुणों की अपेक्षा अधिक आकर्षक होते हैं…यदि मैं अपने अवगुण सबके सामने प्रकट करूँ तो ये किस तरह का कृत्य होगा?
यदि मैं सद् गुण को, अपने कला को संसार के सामने प्रकट करूँ तो हो सकता है कोई मार्ग से भटका व्यक्ति पुनः सन्मार्ग पर आ जाये।
 मानवता तो यही कहती है न कि सत्कर्मों को विश्व में फैलाओ…..कुकर्मों को नहीं।
 किसी महान विभूति ने कहा है कि “जब-तक हम अपनी छोटी-छोटी उपलब्धियों पर गर्व करना नहीं सीखते तब-तक हमारे जीवन में किसी बड़ी उपलब्धि का प्रस्फुटन नहीं होता।” गर्व करो…पर अहंकार युक्त नहीं आत्ममुग्धता युक्त।
 प्रयत्न तो यह हो कि अवगुणों से पृथक रहो उन्हें स्वयं पर हावी मत होने दो, दबा दो किन्तु यदि ऐसा कर पाना संभव न हो तो अवगुणों पर पर्दा डालो…उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करो…अवगुणों का अधिवक्ता न बनो। उन्हें सुरक्षित रखना मेरे मति से महापाप है और जान-बूझ कर पाप करना उचित कैसे हो सकता है?
अपनी खूबियों को संसार के सामने लाओ बुराइयां तो लोग खुद ही ढूंढ लेंगे।
 पुरुष स्वाभाव से ही व्यभिचारी होता है, कुछ को अवसर मिलता है कुछ व्यभिचार न कर पाने की कुंठा में जीते हैं, कुछ अवसर तलाशते हैं और कुछ सदाचार से व्यभिचार को अस्तित्वहीन करते किंतु यह खामी हर इंसान में होती है तो क्या इसकी वकालत करते चलें? इसे सुरक्षा दें?
ऐसा करना सर्वथा अनुचित है।
 अपनी खामियों की चर्चा मत करो…उन्हें ख़त्म हो जाने दो…मिट जाने दो…तुम्हारी अच्छाइयों से दुनिया का और तुम्हारा भला होगा बुराइयों से नहीं।
 अपने खामियों की चर्चा करना वीरता नहीं भीरुता है..इतनी कमज़ोरी क्यों की अपने ही मनोदशा पर नियंत्रण न रहे?
जब माँ भारती के प्रांगण में जन्म ले ही लिया है जहाँ परोपकार संस्कार में मिलता है…वहाँ बिना सत्कर्मों का बीज बोए पलायन करना उचित तो नहीं?
आओ! इस जीवन यज्ञ में शुभ कर्मों का सन्धान करें….संसार को सन्मार्ग पर प्रेरित करें…भले ही हमारा यह प्रयत्न अपेक्षाकृत कम प्रभावी हो…किन्तु अस्तित्वहीन तो न होगा?
 (मेरे भैया की कलम से .)

लेखक-
अनुराग
 अधिवक्ता,
चैम्बर नंबर २३,सिद्धार्थ बार एसोसिएशन
 सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश.

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

बौद्धिकता से परे भारतीय राजनीति

किसी भी विकासशील राष्ट्र के मूल समस्या में उस देश के धार्मिक,सांप्रदायिक अथवा जातीय विभेदों के नाम पर होने वाले संघर्ष शामिल नहीं होते न ही ऐसे विषय राष्ट्रीय चिंतन का केंद्र बिंदु बनने योग्य होते हैं किन्तु संयोग से भारतीय राजनीति में राष्ट्रीय चिंतन के ये एकमात्र केंद्रबिंदु बन गए हैं.”असहिष्णुता, अमानवीयता और असंवेदनशीलता पूरे विश्व में समापन की ओर है किन्तु भारत में उत्थान की ओर” यह एक आम धारणा बन गयी है लगभग-लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों की जिनके मतभेद भारतीय जनता पार्टी से हैं.भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक दलों के नेताओं के बयान भी ऐसे अर्थहीन और अप्रासंगिक होते हैं जिनका उल्लेख करना भी किसी शिक्षित व्यक्ति की बौद्धिकता पर सवाल उठा सकता है.
कभी-कभी लगता है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी ने लोगों को इतना अमर्यादित कर दिया है कि इस अधिकार के सामने देश की एकता और अखंडता की कोई कीमत नहीं रह गयी है.अभिव्यक्ति के नाम पर ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंडियन आर्मी मुर्दाबाद, और कश्मीर की आज़ादी तक जंग जारी रहेगी ‘ जैसे जुमले क्षमा योग्य हैं क्योंकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्र सबको मिली हुई है. वाह क्या अधिकार है अभिव्यक्ति का अधिकार भी. जिस राष्ट्र द्वारा संचालित विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं उसी राष्ट्र कि गरिमा को तार-तार किया जा रहा है ऐसी सहिष्णुता विश्व में कहाँ मिलेगी?
देश का एक बड़ा तबका प्रगतिवादी सोच की भेंट चढ़ रहा है. ये प्रगतिवादी आचरण से नहीं हैं अपितु सोच से हैं. प्रगतिवाद की परिभाषा इन्होने नयी बनायीं है. प्रगतिवाद के दायरे में क्या-क्या आता है यह भी उल्लेखनीय है, जैसे- देश को गाली देना,सत्तारूढ़ सरकार को गाली देना, भारत मुर्दाबाद के नारे लगाना, महिषासुर जयंती मनाना, अफ़ज़ल,कसाब और याकूब की बरसी मनाना, तिरंगा फाड़ना ये सब प्रगतिवाद है.
भारत में विचारधाराओं के साथ सबसे ज्यादा छेड़-छाड होती है. यहाँ हर महान व्यक्तित्त्व के नाम को भुनाया जाता है.हर विचारधारा पर चलने का एकमात्र उद्देश्य राजनीती की रोटी सेंकनी होती है.राजनीतिक पार्टियां और इन पार्टियों के नेताओं का एकमात्र उद्देश्य जनता के बीच मतभेद कराकर वोट बैंक तैयार करना है.जनता भी फायदेमंद खेती है, नफरत बो कर मलाई काटी जाती है.
रोहित वेमुला के आत्महत्या का जिस तरह से तमाशा खड़ा किया गया की जैसे लग रहा था सभी राजनीतिक पार्टियों में करुणा,दया, वात्सल्य और वीभत्स रस प्रदर्शित करने का दौर चल पड़ा हो. सभी संवेदनशील हो गए थे रोहित के लिए.कितनी असीम संवेदना उस मासूम के लिए सबके ह्रदय में थी. कोई पागल व्यक्ति भी इन राजनीतिक पार्टियों के ढोंग को भांप लेता पर भारतीय जनता और मिडिया दोनों को इन सबकी आदत बन गयी है. एक के आँख पर तो पट्टी पड़ी है और एक को तो हर न्यूज़ में मसाला मार के अपनी टी.आर.पी बढ़ानी है.
आत्महत्या पर प्राइम शो चलने का क्या मतलब होता है? आत्महत्या का भी विज्ञापन? लोगों में जीने की जिजीविषा पैदा करना साहित्यकारों,पत्रकारों का काम है पर ये लोग आत्महंता से भी सहानभूति रखने लगे? रोहित की मौत को सही ठहराने लगे..कैसी बौद्धिकता है इस देश की?
विदेशी दर्शन और विदेशी विचारकों से प्रभावित होना भारतियों की एक और विशेषता है.कुछ अच्छी चीज़ें सीखें या न सीखें बुरी चीज़ें पहले सीख लेते हैं. भारत में प्रगतिवादियों के कुछ ख़ास चेहरे हैं जिनके पदचिन्हों पर चलना एक ख़ास बौद्धिक वर्ग को अधिक अभीप्सित है. उन चेहरों के नाम हैं- ”कार्ल मार्क्स, लेनिन,रूसो और माओत्से तुंग”.
ये सारे चेहरे परिस्थितिजन्य थे और अब ये कहीं से भी किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र के लिए प्रासंगिक नहीं रहे हैं.इनके रास्तों पे चलकर गृहयुद्ध,कलह और अराजकता के अतिरिक्त और कुछ हासिल नहीं किया जा सकता.जिन देशों में इन चेहरों का जन्म हुआ वहीँ ये विचारधाराएं अप्रासंगिक हो चुकी हैं किंतु भारत में जूठन ढ़ोने की परंपरा रही है.
क्या चीन की मासूम जनता माओवाद से मुक्ति नहीं चाहती? क्या उसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता नहीं चाहिए? क्या अभिजात्यवर्ग के सशन की अपेक्षा लोकतंत्र जनता को नहीं प्रिय होगा? हाँ! प्रिय है किन्तु जिन विचारधारों को भारतीय प्रगतिवादी ओढ़ रहे हैं उन्ही से चीन की मासूम जनता मुक्ति चाहती है. लेकिन भारतीय मार्क्सवादियों को ये कब समझ में आएगा…उन्हें तो बस अंधानुकरण की आदत है.
कुछ ऐसे भी बुद्धिजीवी मिले जिन्होंने ‘शहीद भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद’ तक को कम्युनिस्ट बता दिया.शायद उन्हें राष्ट्रवाद और मार्क्सवाद के बीच का अंतर नहीं पता है.
जे.एन.यू में जो कुछ भी हुआ या एन.आई.टी.श्रीनगर में जो किया गया क्या यह भारतियों के मूल भावनाओं के साथ खिलवाड़ नहीं है? हाय! अब पाकिस्तान भी रहने योग्य हो गया…जय हो बौद्धिक आतंकवाद की.
इन दिनों भारतीय राजनीति में जो उथल-पुथल मची है उसे देख कर लग रहा है कि बहस के विषय बड़े संकीर्ण हो गए हैं.किसी को भी मुद्दों पर बात नहीं करनी है केवल बकवास पर सारा ध्यान केंद्रियत करना है.
किसी भी पार्टी या न्यूज़ चैनल वालों के बहस का विषय गरीबी,बेरोजगारी, भूखमरी, बीमारी, भ्रष्टाचार नहीं है बल्कि मोहन भागवत, आदित्यनाथ, ओवैसी या दो चार और चिरकुट नेताओं ने क्या बयान दिए, कौन भारत माँ की जय नहीं बोला , कौन बोल रहा है या कौन नहीं बोलेगा? ये बहस का विषय है.
आज जितनी भटकी शैली मे मैंने लिखा है उससे कहीं ज्यादा भटकी भारतीय राजनीति है .राजनीती इतनी गन्दी हो गयी है कि सत्तापक्ष का विरोध करना विपक्ष का मौलिक कर्तव्य और विपक्ष की आलोचना करना सत्तारूढ़ पार्टी का मूल कर्तव्य हो गया है. इस तरह की विचारधारों से यदि देश बहार नहीं निकलता है तो भारत का भविष्य कभी भी स्वच्छ लोकतंत्र की ओर नहीं बढ़ सकता.
इन परिस्थितियों से उबरने के लिए जनता और मिडिया दोनों को पहल करनी होगी.जो ख़बरें धार्मिक,जातीय,सांप्रदायिक तनाव पैदा करें उनका प्रसारण न किया जाए.देश में और भी कई समस्याएं हैं उनपर ध्यान केंद्रित करना अधिक उचित होगा अपेक्षाकृत ”किसने क्या कहा?” इस पर शो बनाने से.
जनता को भी समझदारी दिखानी चाहिए की देश धर्म,जाती या संप्रदाय से परे होता है,यदि सब साथ मिलकर नहीं चलेंगे तो बिखर जाएंगे, फिर जो लोग इस देश के उज्जवल भविष्य का सपना लिए शहीद हुए उन्हें अपने बलिदान पर पश्चाताप होने लगेगा….कृतघ्न नहीं कृतज्ञ बनिए और संवैधानिक मूल्यों पर चल कर देश को प्रगति के पथ पर अग्रसर कीजिये…यही उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी जिन्होंने अपने प्राणों की परवाह किये बिना हँसते-हँसते मौत को गले लगा लिया..आपके लिए..हमारे लिए..अपने सपनों के भारत के लिए…
जय हिन्द…वन्दे मातरम!
(दैनिक जागरण में सम्पादकीय पृष्ठ पर आज प्रकाशित)



बुधवार, 6 अप्रैल 2016

करूँ मैं नयनों से अभिषेक

सखे! क्या स्मृति तुमको शेष
खुले थे स्वतः तुम्हारे केश
किया हमने एकांत में बात
आह वह संकल्पों की रात,
अरे वह गगन सुता का दृश्य
और उसमें स्वर्णिम सी नाव
प्रकाशित अन्तःमन का कक्ष
ब्रम्ह का अद्भुत अकथ प्रभाव,
बढे हम तीर्थाटन की ओर
नहीं लाख पाये कोई छोर
कहाँ थी दिशा कोई भी ज्ञात
तुम्हारी हर लीला अज्ञात
नहीं था कोई भी उद्देश्य
नहीं अनुमानित कोई विधेय
विश्व ने घोषित किया प्रमेय
सखे! तुम मानव से अज्ञेय,
एक सागर जो है तटहीन
सकल ब्रम्हांड उसी में लीन
वहीं पर कहा प्रणय के गीत
मित्र तुम पर अर्पित संगीत,
स्वरों का कौतूहल आह्लाद
लहरों में अद्भुत उठा प्रमाद
ध्वनित होती मधुरिम झंकार
मिला संसार का नीरव प्यार
तरंगों की गतियां उत्ताल
मूढ़मति होने लगा निहाल,
शब्दों के बंधन से उन्मुक्त
भावना स्वतः हुई अभियुक्त
सकल ब्रम्हाण्ड यदि हुआ सुप्त
स्वप्न का समय नहीं उपयुक्त,
सहसा मन को मिली फटकार
अभी तो हिय में शेष विकार
यदि कर्तव्य कर्म हों शेष
जीव को मिलता नहीं प्रवेश
द्वीप से मुड़े स्वतः ही पांव
नयनों से ओझल हुआ वो गांव,
छाने लगी उषा चिर काल
विश्व में व्यापित मायाजाल
खग-विहग लौटे अपने द्वीप
आने लगी निशा ज्यों समीप
जाने किसने फेंका था पाश
हुआ मति का मेरे अवकाश
और सम्यक दृष्टि से हीन
अहं में हुआ मेरा मन लीन,
यही पथ की बाधा थी मित्र!
धूमिल हुआ तुम्हारा चित्र,
नयनों पे कुहरे का है प्रभाव
कहीं तो भटक रही है नाव
नाव में हुआ है ऐसा छेद
डुबोता मेरे मन के भेद,
सुझाओ मुझको ऐसी राह
नाव को मिलती रहे प्रवाह,
विचरण करूँ सदा स्वछन्द
कभी न गति मेरी हो मंद,
मुझे बस वही दिशा मिल जाए
जहाँ दर्शन तेरा मिल जाए
कामना जहाँ गौण हो जाए
कौतूहल जहाँ मौन हो जाए,
अभीप्सित मुझे वही स्थान
जहाँ अवलोकित हों भगवान,
मेरी इच्छा है केवल एक
करूँ मैं नयनों से ''अभिषेक''।।
-अभिषेक शुक्ल