गुरुवार, 27 अगस्त 2015

यूँ अचानक पकड़ कर तुम हाथ मेरा, क्यों दिखाना चाहती हो प्यार फिर से?



यूँ अचानक पकड़ कर तुम
हाथ मेरा
क्यों दिखाना चाहती हो प्यार फिर से?
प्रेम है अवसाद का ही रूप
दूजा
वर्षों से ये तथ्य दुनिया कह
रही है,
क्या नहीं दिखती तुम्हे
अश्रु गंगा
आज मेरे आँखों से जो
बह रही है।
तुम विरह के वेदना की मुख्य कारक!
ह्रदय की एकांकी होगी
न तुमसे,
यूँ अचानक पकड़ कर तुम
हाथ मेरा.....

आज भी भूला नहीं हूँ उस
तिथि को
विरह का एक ज्वार जब जीवित हुआ था,
शून्यमय इस विश्व में आकार
 लेकर
प्रेम का उद्गार मेरा मृत हुआ
हुआ था।
लोग कहते शाश्वत जिस
कल्पना को
आज उसका हो गया तक़रार मुझसे,
अहंकारित स्वरों का अट्टहास
उसका
सुन सहजता रूठ बैठी
 पुनः मुझसे
यूँ अचानक पकड़ कर तुम
हाथ मेरा...

क्यों निराशा स्वयं में आशा जगाती
और मन आशान्वित हो
गुनगुनाता?
पर भला किसमें है
सामर्थ्य  ऐसा?
प्रेयसी से बिछुड़ कर जो मुस्कुराता?
मैं विरह से व्याप्त मन की
उपज हूँ,
और तुम परमात्मा की
श्रेष्ठ रचना
मैं बना अवधूत जग में
घूमता हूँ
तुमने सीखा ही कहाँ
निर्लज्ज रहना?
यूँ अचानक पकड़ कर तुम
हाथ मेरा...

स्मरित करना कभी तुम उस मिलन को
जब मुझे भी स्वयं का आभास
न था
मैं अलग हूँ क्या प्रिये
तुमसे कभी?
तुम्हें अपने आप पर विश्वास
न था
वह मधुर संयोग जो तुम
भूल बैठी
अब नहीं करना मुझे स्वीकार
कुछ भी
मन तुम्हारे पाश् से मुक्त
है अब
है नहीं जीवन में मेरे प्यार
कुछ भी
और सुनना चाहती हो क्या
तुम मुझसे?
यूँ अचानक पकड़ कर तुम
हाथ मेरा
क्यों दिखाना चाहती हो प्यार फिर से?
                                                                          -अभिषेक शुक्ल

( इस चित्र को मेरी छोटी बहिन हिमानी ने बनाया है....मैंने कुछ दिन पहले सोचा था इस चित्र के लिए कोई कविता लिखूँगा पर लिख नहीं सका। कोई कविता इस योग्य लिख ही नहीं पाया जिसे इस चित्र के साथ पोस्ट कर सकूँ।
प्रेम का संयोग पक्ष तो मेरे लिए अनभिज्ञ है.....वियोग की ही तरह..पर वियोग लिखना तनिक आसान है...मैंने वियोग श्रृंगार लिखने की कोशिश की कुछ पल के लिए ये मत सोचियेगा कि ये प्रकृति और पुरुष हैं जो कभी पृथक ही नहीं होते..कुछ पल के लिए ये मानना है की ये चित्र किसी प्रेमी युगल के अतीत की ऐसी छवि है जिसका कोई वर्तमान या भविष्य नहीं है)



9 टिप्‍पणियां:

  1. आप की लिखी रचना और चित्र दोनों ही बेहद सुंदर है ।

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  2. बहुत सुन्दर रचना और उससे भी सुन्दर चित्र ! आपकी रचना ने बच्चन जी की कविता की याद दिला दी !
    रात आधी, खींच कर मेरी हथेली
    एक उँगली से लिखा था प्यार तुमने !

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-08-2015) को "आया राखी का त्यौहार" (चर्चा अंक-2082) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    भाई-बहन के पवित्र प्रेम के प्रतीक
    रक्षाबन्धन के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. चित्र सुंदर और कविता भी।

    बांसुरी छोडो तो बजाऊँ।

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ...बधाई !

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  6. मन को छूती बहुत भावपूर्ण रचना...चित्र बहुत सुन्दर है...

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  7. क्यों निराशा स्वयं में आशा जगाती
    और मन आशान्वित हो
    गुनगुनाता?
    पर भला किसमें है
    सामर्थ्य ऐसा?
    प्रेयसी से बिछुड़ कर जो मुस्कुराता?
    मैं विरह से व्याप्त मन की
    उपज हूँ,
    और तुम परमात्मा की
    श्रेष्ठ रचना
    मैं बना अवधूत जग में
    घूमता हूँ
    तुमने सीखा ही कहाँ
    निर्लज्ज रहना?
    यूँ अचानक पकड़ कर तुम
    हाथ मेरा...
    बहुत ही शानदार प्रस्तुति मित्रवर अभिषेक जी ! और हिमानी को भी बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं

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