मंगलवार, 4 मार्च 2014

उलझन

यूँ तो ख़ामोश हूँ मैं
पर
आती है आवाज़ कहीं से
मेरी ही
रह-रह कर;

घबराहट होती है
अपनी आवाज सुनकर,
तड़पता  हूँ अक्सर 
अपने दर्द से,
चोट भी मुझे लगती है
और चीख भी
मेरी निकलती है.
घुट रहा हूँ
पर
हस  -हस कर.
क्या कहुँ?
रोना मक्कारी लगता है
हंसना
मुमकिन  नहीं
टूटते रिश्तों को
जोड़ना  मुश्किल है
और
तोडना और भी मुश्किल.
क्या करूँ ?
हसूँ
तो दुनिया,
रोऊँ तो दुनिया।




7 टिप्‍पणियां:

  1. हसूँ
    तो दुनिया,
    रोऊँ तो दुनिया।.........बहुत सुन्दर...

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  2. इस उलझन से खुद ही पार पाना होता है ...

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  3. कल 07/03/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद !

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  4. बहुत-बहुत आभार...ऐसे ही निरंतर स्नेह की आप सबसे अपेक्षा है।

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