जिन तथ्यों से मैं अनभिज्ञ था विगत कुछ वर्षों से वही देख रहा हूँ. इतने समीप से कुछ न देखा था पर अब प्रायः देखता हु, क्या कहूँ? भारत आदि काल से ऐसा था या अब हो गया है मेरी समझ से परे है, जिन आदर्शों का हम दंभ भरते हैं वह कहा हैं? किस कोने में? मैं तो थक गया हूँ पर कहीं पद चिन्ह नहीं मिले उन आदर्श सिद्धांतों के जिन्हें हम विश्व समुदाय के सामने गर्व से कहते हैं.
क्या यह वही देश है जहाँ नारियों की पुजा होती थी, पर अब तो बलात्कार हो रहा है, मुझे नहीं लगता कि कभी नारी को उसका सम्मान मिला. अगर इतिहास में कभी हुआ हो तो द्रौपदी के साथ क्या हुआ था? क्या उस युग की महान विभूतियाँ दुर्योधन की सभा में द्रौपदी का सम्मान कर रहीं थीं? अगर ये सम्मान है तो अपमान क्या था? वास्तविकता तो ये है की नारी कि जैसी दशा हजारों साल पहले थी वैसी ही अब भी है, फर्क इतना है की तब बहुत कम घटनाएं प्रकाश में आती थीं और अब अधिकतर घटनाएं संज्ञान में आ जाती हैं.
नारी युगों से शोषण और उपेक्षा की विषय रही है, शरीर से शक्ति की अवधारणा केवल धर्म ग्रंथों में ही मिलती है जिसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं होता अब भी जब पुरुष इकठे होते हैं तो स्त्री देह उनके चर्चा का मुख्या विषय होती है, उनकी धार्मिक परिचर्चा कब नारी चर्चा में बदलती है कुछ पता ही नहीं लगता, चर्चा शुरू होते ही जो धर्म कर्म कि बात करते हैं सबसे पहले उनके ही ज्ञान कि पोथी खुलती है, फिर क्या जिनके पावँ कबर में होते हैं वे भी कान उटेर के सुनते हैं क्योंकि भारतीय गप्पे मरने के अलावा कुछ नहीं करते, जो कर्मठी होते हैं वे यहाँ टिकते ही नहीं.
हम पश्चिम को अकारण ही व्यभिचार और वासना का जनक कहते हैं, कम से कम वो जो करते हैं उनके जीवन का सामान्य हिस्सा है पर हम वासना और व्यभिचार ढ़ोते हैं और तर्क देते हैं अपने गौरव शाली अतीत का, जिन्हें हम कब का रौंद चुके हैं. २१ साल कि युवती हो या ५ साल कि छोटी बच्ची, हमारे यहाँ कोई सुरक्षित नहीं है. हम कितने गर्व से कहते हैं कि सबसे पुरानी सभ्यता हमारी है, ये क्यों नहीं कहते कि वो पुरानी सभ्यता अब असभ्यता में बदल गयी है, कोई थोडा भी जागरूक विदेशी हो तो हमसे यही कहेगा कि तुम उसी भारत के हो जहाँ बलात्कार नियमित होते हैं और जनता तमाशा देखती है, और बलात्कार होने के बाद सरकार पर गुस्सा जाहिर करती है, पर बदलाव का कोई वादा नहीं खुद से करती है. ''निकम्मी जनता-निकम्मी सरकार''.
किसी विदेशी इतिहासकार ने क्या खूब कहा है की ,'' भारतीय स्वाभाव से ही दब्बू और भ्रष्ट होते हैं''. पढ़ कर कुछ अजीब लगा पर जब सोचा तो लगा की हमने खुद को साबित किया है नहीं तो कोई विदेशी हमें ऐसा क्यों कहता. क्यों हम ऐसे हैं? दोहरा चरित्र क्यों जीते हैं हम? मुखौटे लगा के हर इंसान बैठा है व्यक्ति का वास्तविक रूप क्या है कुछ पता ही नहीं चलता. अध्यात्म का चोगा पहन कर मुजरा देखना तो फितरत बन गयी है.
आज कल साधू -महात्मा भी कम नहीं हैं, आश्रमों की तलाशी ली जाए तो पता चलेगा कि ये साधू नहीं सवादु हैं और सारे अनैतिक कामों का सबसे सुरक्षित अड्डा बाबाओं के पास ही है. न जाने कितने ढोंगी मंच पे नारी को माँ बुलाते हैं और प्रवचन के बाद उनका शोषण करते हैं. फिर भी हाय! रे भारतीय जनता ढोंगियों को भी पलकों पे बिठा के रखती है.
एक नारी जिन्दगी भर चीखती-बिलखती रहती है और पुरुष समाज कभी उसके देह से तो कभी भावना से खिलवाड़ करता है, अपने शैशव काल से ही दोयम दर्जे कि जिन्दगी जीती लड़की बड़ी होते ही घर वालों कि नज़रों में भले ही बच्ची रहे पर समाज उसे बड़ा कहना शुरू कर देता है, अपने खेलने खाने कि उम्र में भेड़ियों का या तो सिकार हो जाती है, या शादी करके ससुराल भेज दी जाती है. गरीब बाप में समाज से लड़ने का दम नहीं होता और ससुराल में गुडिया को ढंग नहीं आता. दयनीय स्थिति तब होती है जब ससुराल में लड़की रुलाई जाती है कभी दहेज़ के लिए, तो कभी लड़की पैदा करने के लिए. नारी होना जिस समाज में अभिशाप हो उस समाज या राष्ट्र को महान कहना उचित है?
मैथिलि शरण गुप्त जी कि कविता बरबस याद आती है, ''अबला तेरी यही कहानी, अंचल में दूध आँखों में पानी''.
ये सत्य है कि एक औरत जिन्दगी भर रॊति बिलखती रहती है , पर पुरुष उसे निचा दिखाकर अपना पुरुषत्व सिद्ध करता है, इतना क्यों सहती है नारी? क्या महाकाली या चंडी माँ कि संकल्पना कॊरि कल्पना मात्र है? सहना स्वाभाव है अथवा विवशता?
''अबला तुझे समझना चाहा
पर
समझ न सका,
तेरे अनगिनत रूपों को देखा
पर एक को भी
पहचान न सका,
देख रहा हूँ सदियों से
तुझे पिसते,
पर कभी
नही देखा तुझे
उफ़ तक करते.
बचपन में घर में
भेदभाव,
समाज में
भेड़ियों कि चुभती नज़रें,
सहती आई,
पर कोई प्रतिकार नहीं,
शांत समुद्र में भी
ज्वार और भाटा उठते हैं,
पर
तू तो समुद्र होते हुए भी
चुप रहती है,
दोपहर में
तपती धुप में
बर्तन धुलती
आंगन में
तू दिखती है,
पाँव में पड़े छाले
तुझे दुःख नहीं देते?
जो तू पगडंडियों
पर पति के लिए ले जाती है
खाना,
वो खुद भी आ सकते थे,
पर तू उन्हें कैसे दुःख
दे सकती है,
जो तुझे आजीवन दुःख
देते हैं.
बच्चा बीमार हो तो तू,
ठीक हो जाती है,
पति कि मार सहती है,
पर
उसके लम्बी उम्र कि
कामना करती है,
माँ तू है क्या,
मैं न समझ सका
तू ही मुझे बता?''
क्या कहूँ एक नारी है जो सहती है, दबती है और एक पुरुष है जो भारत के अखंड गौरव को मिटने पर तुला है.
एक भारतीय होने के नाते मैं अंतिम दम तक भारत को महान कहूँगा पर एक इंसान होने के नाते मैं चाहूँगा कि मेरे देश में कुछ सुधार हो, और तब तक मैं इसे महान नहीं कहूँगा जब तक ये महान होगा नहीं, किसी देश कि जनता उस देश को महान बनती है, हम फिर क्यों अपने राष्ट्र कि अवमानना करने पर तुले हुए हैं?