सहज भाषा के नाम पर हमने, भाषा का वास्तविक सौंदर्य बोध खो दिया है।
नई पीढ़ी कितना कुछ क्लिष्ट कहकर अनदेखा कर देगी। कितने अध्याय अनछुए रह जाएंगे।
भाषाई सरलीकरण के नाम पर कितने शब्दों की निर्मम हत्या हुई है। उन्हें याद रखने वाली पीढ़ी अंग्रेज़ी में भविष्य तलाश रही है।
एक पूर्वाग्रह कि हिंदी में लिखा जो कुछ भी है, सब अपशिष्ट है; गहरे तक बैठ गया है। इसे पुष्ट करने वाले लोगों में कोई अपराधबोध नहीं है। उन्हें लगता है, उन्होंने भाषा को जनवादी बनाया है।
जनवाद!
भाषा पर बहस करने वाले ज़्यादातर लोगों के भीतर निपट आभिजात्य आत्मा है। स्वप्न या मद में भी इन्हें 'जन' की सुधि कहां?
समाचारों की भाषा साहित्य की भाषा बन गई है। संपादकों ने अपने 'वरिष्ठों' से सीखा है कि भाषा ऐसी हो, जिसे अनपढ़ भी समझ ले। किसी ने अनपढ़ को सुपढ़ बनाने में रुचि ही नहीं दिखाई, क्योंकि 'जन' की सुधि किसे?
यही वजह है कि अनपढ़ व्यक्ति को 'एक्सक्यूज़ मी' और 'प्लीज़' कहना आ गया लेकिन 'कृपया' अथवा 'क्षमा' कहना नहीं आया।
साहित्य वही नहीं है जिसे प्रेमचंद ने लिखा है, दिनकर, प्रसाद, अज्ञेय, महादेवी और भारतेंदु ने भी जो लिखा उसे भी साहित्य ही कहेंगे। बहुत नाम छूटे भी हैं इनमें।
विश्वभर की तमाम भाषाएं लोग सीख रहे हैं। जिन लिपियों और भाषाओं से हमारा कोई परिचय नहीं, उन्हें हम सीख लेते हैं, लेकिन हिंदी?
शब्द क्लिष्ट नहीं होते, सहज होते हैं। क्लिष्ट कहकर उन्हें प्रचलन से बाहर कर दिया जाता है। वे किताबें जिनमें तथाकथित 'क्लिष्टता' का प्रयोग ज़्यादा है, वे निरर्थक नहीं, उन्हें पढ़ा और समझा जा सकता है।
क्लिष्टता से जुड़ा हुआ एक प्रसंग याद आ रहा है। उन दिनों मैं दिनकर को पढ़ रहा था। उन्होंने लिखा,
"गत्वर, गैरेय, सुघर भूधर से, लिए रक्त-रंजित शरीर,
थे जूझ रहे कौंतेय-कर्ण, क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर।"
मुझे गत्वर, गैरेय, सुघर और भूधर का अर्थ नहीं पता था। मुझे लगा कि ये शब्द मुझसे कह रहे हों कि 'दिनकर को समझना हो तो पढ़ो। तुम्हें समझ में नहीं आ रहे शब्द तो यह तुम्हारी जड़ता है, दिनकर इसके लिए दोषी नहीं हैं।'
हम सब शब्दों के अपराधी हैं। हमने शब्दों की उपेक्षा की है। सृजनशीलता की चौखट से शब्द अपमानित होकर लौटे हैं। शब्द निहार रहे हैं नई पीढ़ी को, मिल रही उपेक्षा से टूटते जा रहे हैं।
जब किसी देश में नवीन राज व्यवस्था जन्मती है और वृद्ध राजा को अपदस्थ कर, नया राजा पदस्थ होता है तब वृद्ध राजा राजपाट, संन्यास या वानप्रस्थ नहीं चाहता। वह मृत्यु चाहता है।
कुछ शब्द वही चाह रहे हैं। नई पीढ़ी उनकी अंतिम इच्छा पूरी कर रही है.
शनैः शनैः।
आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 22 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया।
हटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंआभार सर।
हटाएंबहुत सुंदर
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