शुक्रवार, 18 मार्च 2022

मधूलिका, जयशंकर प्रसाद की अद्वितीय नायिका




कोशल का राजवैभव जिसे तुच्छ लगा वह मधूलिका थी. राजकीय अनुग्रह की ऐसी अवहेलना कृषक कुमारी ही कर सकती थी. भूमि उसकी थी, श्रम उसका था, राजा का कुछ नहीं था, राजविधान को छोड़कर.


महाराज जिस भूमि को देख लें वह उनकी. राष्ट्र नियम वही जिसे राजा ने तय किया है. राजकीय स्वर्ण मुद्राओं का ऐसा तिरस्कार कोशल के इतिहास में किसी ने नहीं किया था. 


जो विनिमय को तैयार नहीं, उसे विपणन से क्या प्रत्याशा?


महाराज का प्रलोभन अयाचित ही रहा.


सिंहमित्र ने राष्ट्र के लिए प्राणोत्सर्ग किया था. सर्वोच्च बलिदान, उसका संस्कार था. मधूलिका जानती थी कि यम से कैसा भय, स्वाभिमान के प्रदर्शन की यह परिणति हो सकती है. राजदंड का भय उसे कहां जिसकी नियति में इच्छा मृत्यु हो? 


मधूलिका, मधूक के पेड़ तले बैठी थी. एक निर्वासित राजकुमार को उससे प्रेम हो गया था.


मगध के विद्रोही निर्वासित राजकुमार अरुण, मधूलिका को वह सबकुछ देना चाह रहे थे जिसकी कल्पना ने उसे क्षणिक सुख दिया लेकिन दीर्घकालिक दासता का भान भी. अपने राष्ट्र पर शत्रु का आधिपत्य कहां स्वाभिमानी स्वीकारते हैं.


पिता का रक्त जगा तो राष्ट्र की बरबस सुधि आ गई. मधूलिका ने प्रेमी के षड्यंत्र की सूचना महाराज को दे दी. अरुण ने उसी भूमि पर युद्ध की अधारशिला रखी, जिसकी याचना मधूलिका ने राजा से की थी. राजद्रोह का एक ही दंड होता है, मृत्युदंड.


अरुण के लिए राजाज्ञा घोषित हुई कि मृ्त्युदंड दिया जाए. उसी समय मधूलिका के लिए पुरस्कार की घोषणा हुई. मधूलिका ने पुरस्कार में मृत्युदंड मांगा. उसने राष्ट्र धर्म भी निभाया और प्रीत भी. 


बरबस इस पेड़ को देखकर यह कहानी याद आ गई. कहानी लिखी है जयशंकर प्रसाद ने. शीर्षक है पुरस्कार. प्रसाद, सच में प्रसादांत कहानियां लिखते हैं. जो एक बार पढ़ ले, पढ़ने के सम्मोहन से कभी न निकल पाए.

मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा

 भड़भाड़ जानते हैं? मुझे इसका नाम हिंदी या अंग्रेजी में नहीं पता है. खोजने का मन भी नहीं है. अद्भुत फूल है यह. अम्मा या मम्मी से सुना है कि पहले जो लोग मिट्टी का तेल नहीं खरीद पाते थे उनके लिए यह उजाले का साधन था.

भड़भाड़ में फूल के अलावा फल भी लगता है. इसका फल देखने में बहुत सुंदर होता है. पौधा जब परिपक्व हो जाता है तब फल आने शुरू होते हैं. जब फल पक जाता है तब उसमें दरारें पड़ जाती हैं. फल के भीतर के कोष में चायपत्ती की आकार के दाने होते हैं. 

संरचना भी चायपत्ती के दानों की तरह. अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है. पहले मुझे लगता था कि यही चायपत्ती है.

भड़भाड़ के दानों को अगर महीन पीसा जाए तो इनसे तेल निकलता है. पहले लोग इसे इकट्ठा करते थे और तेल निकालते थे. खाने के लिए नहीं बल्कि दीया जलाने के लिए. कभी बहुत उपयोगी रहा भड़भाड़ अब खर-पतवार की तरह है. 

कांटेदार पौधा होता है इसलिए लोग इसे पनपने नहीं देते हैं. कुछ औषधीय गुण भी होते हैं इस पौधे में. अगर आंख उठी हो (कंजक्टिवाइटिस) तो इसका दूध बहुत लाभदायक होता है. जड़ों का इस्तेमाल भी प्राकृतिक पद्धति में चिकित्सक करते हैं.  

तमाम गुणों के बाद भी यह पौधा उपेक्षित है. हेय है. इंसानों की सारी प्रत्याशाएं ईश्वर भी पूरा नहीं कर पाता तो यह तो अंकिचन पौधा ठहरा. कोई बच्चा अगर बहुत बिगड़ जाए तो उसके लिए अवधी में एक कहावत कही गई है. मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा. बुकवा का अर्थ लेप होता है. शुद्ध हिंदी में इसे आलेप कहते हैं.

बिगड़े हुए बच्चों के संरक्षकों पर सारा दोष मढ़ा जाता है. लोग कहते हैं कि अभिभावकों के दुलार ने उन्हें बिगाड़ के रख दिया है. हिंदी में इस अवस्था के लिए कोई कहावत याद आती है? मुझे पता नहीं है कि किसी ने इसके लिए कुछ भी लिखा है. अवधी में बच्चों की इस स्थिति पर कई कहावतें कही गई हैं. अवधी में कहते हैं, 'मारे दुलारे भड़भाड़े कै बुकवा.'

अर्थ है कि दुलार में किसी को भड़भाड़ का लेप लगाना. अयाचित दुलार से लाभ हो न हो, नुकसान बहुत होता है. भड़भाड़ के लेप में कांटे हो सकते हैं, इससे कुछ फायदा नहीं हो सकता है. गड़ सकता है, चुभ सकता है. अधिकांश मामलों में माता-पिता भड़भाड़ का बुकवा नहीं लगाते, बच्चे खुद ही लगा लेते हैं अपने भविष्य पर. नुकसान होता है, इतना कि उसकी भरपाई न हो सके. जानबूझकर कांटो का लेप मूर्ख ही लगाते हैं. बचना चाहिए, मूर्ख बनने से.

...आखिर मूर्खता का क्या प्रयोजन?



गुरुवार, 3 मार्च 2022

प्रतिरोध की आवाज़ क्यों कर्कश लगती है?

 कभी-कभी कुछ काम इंसान अनायास ही कर बैठता है. कोई प्रयोजन पूछ ले तो भरसक उत्तर न सूझे. प्रयोजन होता भी नहीं है. जैसे यह सब लिखने का कोई प्रयोजन नहीं है, अनायास ही लिख रहा हूं. दो-तीन साल पहले तक लिखने की आदत थी. कभी-कभी कविता, अकविता, कहानी, निबंध या जो बन पड़ता, लिख देता था. मानता था कि लिखना अच्छी आदत है. पता नहीं कैसे आदत छूट गई. 

मतलब लिखना छूटा नहीं है, स्वांत: सुखाय लेखन छूट गया है. एक दिन किसी ने कहा कि लिखते क्यों नहीं हो. मैंने कहा कि लिखा नहीं जा रहा है. एक उस्ताद जैसे दोस्त ने कहा कि राइटर्स ब्लॉक का नाम सुना है. मैंने नहीं सुना था. बात टालनी थी मैंने कहा कि नहीं जनाता.

उन्होंने कहा कि एक अवस्था है, जिससे लिखने-पढ़ने वाले लोग ज़िन्दगी के किसी न किसी हिस्से में ज़रूर जूझते हैं. ठीक हो जाएगा लिखने लगोगे. ध्यान दिया तो कुछ ऐसा ही लगा. थोड़ा बहुत इसके बारे में ढूंढकर पढ़ा तो पता चला कि ऐसा होता है. राइटर्स ब्लॉक भी कोई बला है, इसे ज़रा देर से जाना.


मैं इन दिनों कुछ भी नया नहीं लिख रहा हूं. साहित्य के नाम पर दोहा नहीं लिखा जा रहा है. कुछ सीख भी नहीं पा रहा हूं. कई सारी उलझी चीज़ों में दिमाग उलझा है. ठीक उसी तरह जैसे समाज का एक बड़ा तबका मेंटल ब्लॉक से गुजर रहा है.

उसे कुछ न समझ आ रहा है, क्या करना है यह भी पता नहीं चल रहा है. क्या आस पास हो रहा है, इन सबमें उलझा है. अज्ञात डर खाए जा रहा है. लोगों के प्रति असहिष्णुता इतनी बढ़ गई है कि कुछ भी सुनने से पहले उसकी प्रतिक्रिया आ जाती है.

सच कहूं तो राइटर्स ब्लॉक से किसी एक शख्स को खतरा होता है. मेंटल ब्लॉक से समाज को. राइटर्स ब्लॉक ठीक हो य न ठीक हो लेकिन मेंटल ब्लॉकेज खुलनी चाहिए. तभी शायद बात बने.

(फोटो सोर्स- Flicker)