वही कविताएं सबसे ख़ूबसूरत होती हैं जो कवि के मन में पलती हैं। जिन्हें कोई और नहीं सुन पाता। जिनकी तारीफ़ कवि ख़ुद ही करता है, जिन्हें वह ख़ुद लिखकर मिटा देता है।
उसकी नज़रों में अपनी अनगढ़ कविताएं सबसे ख़ूबसूरत होती हैं लेकिन दुनिया के लिए वह उन्हें छंदों की बेड़ियों में जकड़ता है, अलंकारों का तड़का लगाता है, आलम्ब खोजता है, समास जोड़ता है, संयोग तलाशता है, वियोग ख़ुद छलक जाता है।
दरअसल यह सब दिखावा है। कवि की जिन कविताओं को लोग पढ़ते हैं वे बनावटी होती हैं। असली कविताएं तो कवि के मन में पलती हैं, जिन्हें वह किसी से नहीं कहता। ख़ुद से भी नहीं।
अच्छी कविता की तलाश में हैं तो कवि को पढ़ें, उसकी रचनाओं को नहीं। बहुत बनावटी होते हैं किताबों के अक्षर।
कवि अपनी रचनाओं में उन्माद की हद तक काट-छांट करता है। ज़रा भी दयावान नहीं।
कवि को पता है कि उसकी रचनाएं उत्पाद नहीं हैं जिनके विनिमय से उसे कुछ मिले। कवि जानता है कि वह मूर्तिकार नहीं है, उसे पता है कि वह सुनार भी नहीं, फिर भी उसे कविताओं की काट-छांट बहुत प्यारी है। क्यों है, इसका जवाब उसे भी नहीं पता।
वह उलझता है, टूटता है, थकता है, बेचैन रहता है, कहते-कहते अटकता है क्योंकि कवि मन की कभी कह नहीं पाता।
अंततः कृत्रिमता उस पर बहुत भारी पड़ती है, जो उसे भीतर से ख़ाली कर देती है।
रिक्तता!
कवि की यही नियति है जो उसे बिन मांगे मिल जाती है, जिसमें वह कुछ रचने की संभावनाएं तलाशता है।
-अभिषेक शुक्ल
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