![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhZ_RXGhyphenhyphenEwy4_Fi5fkbEWETjfJ81psjUVP-erWXAs7n-vJucvOz7VPY6WCrYWun386iCwiwTe6AsY9XmHkSwg6T6JbT33aNFmVzuXyjOn3CkSfynE4wlyDN3KFU80g9L1vevoVpRPMn89q/s400/delhi.jpg)
कितना जर्जर ये लोकतँत्र है,
इससे तो तानाशाही अच्छी,
केवल हम दँश झेलते हैँ,
सरकार यहाँ है नरभक्षी.
जब लोकतँत्र के मँदिर मे,
भगवान भ्रष्ट हो बैठा है,
करता जनता का शोषण,
जाने किस बल पर ऐठा है,
सच के लिये जो लडते हैँ,
उन पर चलती हैँ बन्दूकेँ
आजादी कि कोयल अब
बोलो किस बल पर कूके?
क्या सत्ता मेँ आकर शासक,
मानवता को जाता भूल,
या इनके कलुषित ह्रदयोँ मेँ
चुभते रहते नियमित शूल.
"पदच्युत हो जाते इन्द्र यहाँ,
मानव कि औकात ही क्या,
हमसे ही हमारा शासन है,
फिर सत्ता कि सौगात हि क्या,?
"अब होश मेँ आओ गद्दारोँ,
भेजेँगे तुम्हे तड़ि पार,
बचने कि उम्मीद न करना,
जनता मारेगी बहुत मार."