सोमवार, 1 जून 2020

मौलिकता भ्रम से इतर कुछ भी नहीं.....

मौलिकता अनैतिक भ्रम से इतर कुछ भी नहीं. एक साहित्यकार पूरा जीवन पढ़ने-लिखने में खपा दे, घट-घट भटके, अनुभवों की गंगा पार कर ले तो भी जीवन के अंत तक वह कुछ भी मौलिक नहीं लिख सकता है. कुंवर नारायण यह कहकर जा चुके हैं. उनसे पहले भी कई लोगों ने यही कहा है, उनके बाद भी कई लोग यही कह रहे हैं. आगे भी लोग यही कहेंगे.

मौलिकता एक आदर्श स्थिति है, आदर्श स्थितियां अस्तित्व में होने के लिए नहीं होतीं. सोचकर देखिए कि ऐसा क्या आप कहेंगे, जिसे दूसरों ने न कहा हो. क्या लिख देंगे, जिसे कभी न लिखा गया हो. ऐसा क्या आपने पढ़ा है, जो इससे पहले न लिखा गया हो. जो मैं लिख रहा हूं ये भी मौलिक नहीं. जो आप लिखेंगे उसे भी मौलिक नहीं कहा जा सकता. सब कही-सुनाई बातें हैं, पढ़ते-गुनते चलिए.

मौलिक होने का चस्का जिसे लगता है, उसकी साहित्यिक गतिविधियां धीरे-धीरे कम होने लगती हैं. लिख दें तो लगता है कि यह तो लिखा जा चुका है. न लिखें तो लगता है कि रचनाओं को गर्भ के भीतर ही मार दे रहे हैं.

रचनाकारों की ऐसी भी प्रजाति है जो ख़ुद तो न जाने क्या-क्या लिखते हैं लेकिन दूसरे की रचनाओं को अमौलिक होने का प्रमाणपत्र देते हैं. सच यही है कि किसी ने कुछ भी मौलिक नहीं लिखा है. लिखा ही नहीं जा सकता है. अब अगर महर्षि वाल्मीकि, वेदव्यास या कालिदास फिर से अवतार ले लें तो भी कुछ ऐसा न लिख सकें, जो कभी लिखा न गया हो.

दोहराव सामान्य सी बात है. एक ही बात लोग रोज़ कह रहे हैं. आगे भी कोई कुछ नया नहीं कहेगा. नहीं, मैं भविष्य में कोई किताब या महाकाव्य नहीं लिख रहा जिसके अमौलिक होने पर लोग कोसेंगे मुझे, जिसके बचाव की अग्रिम पटकथा मैं लिख रहा हूं.

मैंने कुछ भी मौलिक नहीं लिखा है, लिख भी नहीं सकता. जिन्हें पढ़ा है, उनका प्रभाव हो सकता है मेरी शैली में झलके. ऐसा भी हो सकता है कि मैं पूरी तरह वही भाव लिख रहा हूं लेकिन सच मानिए यह जानबूझकर नहीं होगा. ऐसा होता रहेगा, बार-बार होता रहेगा. मैं चाहूं भी तो मौलिकता के भ्रम में जी नहीं सकता.

प्यारे वरिष्ठ साथियो,
यह भ्रम आपको भी नहीं होना चाहिए............सृजनशीलता बनी रहेगी.

5 टिप्‍पणियां:

  1. हा हा। अब जो साहित्यकार नहीं हैं? दूसरा साहित्यकार कौन है उसका पैमाना कौन तय करेगा?
    सबसे अच्छा है सबके अपने अपने भ्रम बने रहें। क्यों कुछ गलत कहा?

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  2. बिलकुल सही कहा आपने शत प्रतिशत सहमत हूँ मैं। जिन्हें भी हम पढ़ते हैं उनके प्रभाव में ही हम लिखते हैं बचपन में पढ़े से लेकर अब तक जो पढ़ रहे हैं सारा ज्ञान और विचार संचार उन्ही से होता है अतः कुछ अंश समाहित होना स्वाभाविक है। हाँ लिखने के अंदाज़ अलग सबके हो सकते हैं लेकिंन विषय और विचार लगभग एक से ही होते हैं तो दोहराव स्वाभाविक ही है और मौलिक आप लिखेंगे क्या जो घट रहा है जो महसूस कर रहे हैं उसी पर अपनी अभिव्यक्ति देंगे और ये स्वीकार्य होनी ही चाहिए।

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    1. हां, लेकिन लोग ढीठ हैं. स्वीकारते ही नहीं हैं.

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