दोस्ती का नाम ज़ेहन में आते ही सरस्वती संस्कार मंदिर की कक्षा याद आने लगती है। उस वक़्त क्लास जैसी कोई चीज़ नहीं हुआ करती थी और 'सर' नहीं आचार्य जी हुआ करते थे।
कक्षा शिशु में मेरे चार बेस्ट फ्रेंड बने। सुमित, अमित, सूरज और अनिल। टिकाऊ दोस्त थे। इनके रहते बहुत दिनों तक कोई और दोस्त बन नहीं पाया। सूरज का मुंडन नहीं हुआ था। बालों में रुमाल बांध कर आता था।
सुमित और अमित असली वाले दोस्त थे। सुमित के पास बहुत से क़िस्से होते थे। पता नहीं कहां-कहां से चुनकर लाता था। गांव-मोहल्ला, ज़िला-जवार सब जगह की जानकारी भाई को थी। चलता-फिरता एंटरटेनमेंट।
अमित हंसने में उस्ताद था। क़िस्से उसके पास भी थे लेकिन सुमित के क़िस्से उसे भी पसंद आते थे। इसलिए नौबत ही नहीं आती थी कुछ सुनाने की।
लेकिन कुछ क़िस्से अमित, सूरज को सुनाता था कोने में ले जाकर। भगवान ही जाने क्या था उसके पीछे का राज़।
अनिल और मेरा गांव एक ही है। इसलिए दोस्ती हो गई। अनिल अपने पूरे कुनबे के साथ आता था।
सूरज अब कहां है, नहीं पता। छठी क्लास में कहीं और पढ़ने चला गया था। अनिल भी छह पास होने के बाद कहीं चला गया था। उसके बारे में ज़्यादा पता नहीं, गांव जाकर ही उसकी ख़बर मिलती है। सूरज और अनिल दोनों फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।
सुमित के साथ एक क़िस्सा याद आता है। दूसरी या तीसरी में पढ़ रहे थे। गर्मी का महीना था। शायद अप्रैल-मई का। स्कूल की टाइमिंग बदल गई थी। सुबह आंख खुलते ही स्कूल भागना होता था और 1 बजे दोपहर में छुट्टी हो जाती थी।
शहर से बाहर घर के आधे रास्ते में एक दिन चप्पल का फीता टूट गया। आसपास किसी मोची की दुकान भी नहीं थी। तपती दोपहर में नंगे पैर लगभग तीन किलोमीटर पैदल जाना था मुझे।
हमारा स्कूल घर से क़रीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। सुमित को खरगवार जाना होता था और मुझे परिगवां।
सुमित का रास्ता छतहरी से अलग हो जाता था। उसे भी लगभग इतनी ही दूरी तय करनी होती थी।
सुमित को जब पता कि मेरी चप्पल टूट गई है, उसने अपनी चप्पल उतार दी। मैंने मना किया तो वह ज़िद पर उतर आया। पहन के जाना ही है। उस वक़्त कट्टी का बहुत डर होता था। दोस्त अगर कट्टी ले ले तो पट्टी करने में अगले कई दिन ख़राब हो जाते थे।
सुमित को मुझसे कहीं ज़्यादा ख़राब रास्ते पर जाना होता था। उबड़-खाबड़ रास्ते पर। पर सुमित मानने वाला कहां था। कह दिया तो कह दिया।
डायलॉग अब भी याद है उसका, 'यार हमार तो आदत परा है, तू नाहीं चल पाइबा बाऊ।' मतलब मेरी तो आदत है, तुम नंगे पैर नहीं चल पाओगे।
हम पैदल ही जाते थे। ख़ूब सारे भाई बहन लेकिन संयोग से उस दिन मैं अकेला ही था, भाई-बहनों में कोई स्कूल नहीं आया था। वह दिन मुझे हमेशा याद रहेगा।
सुमित, सच में सु-मित है।
बड़ा होता गया, दोस्त बनते गए। सूरज और उपेंद्र भाई थे, दोस्त बन गए। कभी-कभी परेशान होता हूं तो इन्हें फ़ोन कर लेता हूं। पेनकिलर की तरह हैं दोनों।
सरस्वती संस्कार मंदिर में ही कुछ और दोस्त बने थे। विवेक, बलराम, रविन्द्र, अरविंद, अखिलेश, रहीम, शाहिद, शीबू, अजय, सुरेंद्र, अभिषेक। कुछ दोस्तों के नाम भी याद नहीं रहे। चेहरा सबका याद है।
इनमें से बहुत कम दोस्त संपर्क में हैं।
विवेक जहां 10 नम्बरी आदमी, बलराम वहीं बुद्धिमान और शांत। विवेक तो अब पूरी तरह बदल गया है, सौम्य ज़मीनी नेता बन गया है। मसीहा टाइप।
शीबू स्कूल में मेरा जूनियर रहा है पर बहुत अच्छा दोस्त है। स्कूल में ख़ूब गाना सुनाया है भाई ने। 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी...।'
लड़कियों में तो ज़्यादातर की शादी हो गई होगी। बचपन की बस एक ही दोस्त अब टच में है। फ़ेसबुक बाबा की कृपा से।
जब संस्कार मंदिर छूटा तो कई दोस्त छूट गए। कुछ नए दोस्त बने भी। शिवपति इंटर कॉलेज। नौवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई यहीं से हुई। इस दौरान भी कई दोस्त बन पर ज़्यादातर ग़ायब हैं।
विनय, अमित(द्वितीय), अभिषेक(द्वितीय) और योगेश के अलावा कोई संपर्क में नहीं है।
अम्बरीष, पंकज, सर्वेश, अमित, अभिषेक, सुधीर, सुभाष और केसरी भी ग़ायब हैं इन दिनों। बहुत सारे दोस्त ग़ायब हैं। कहीं रिपोर्ट लिखवाने का सिस्टम हो तो कितना अच्छा हो।
बारहवीं के बाद बने सारे दोस्त सही सलामत और टच में हैं। मोबाइल ने काम आसान कर दिया है। IIMT से IIMC तक जितने दोस्त बने सब फ़ेसबुक पर हैं। अपने ज़िंदा होने का एहसास दिलाते रहते हैं।
बारहवीं के बाद वाले दोस्तों की बातें बाद में।
पढ़ाई से अलग फ़ेसबुक या ब्लॉग पर जिनसे दोस्ती हुई
उनकी भी दोस्ती कम ख़ूबसूरत नहीं। सारे दोस्त बेहद ख़ास हैं।
फेसबुक को मेरे बचपन में भी रहना था, कुछ दोस्त छूटते नहीं, खोजने से भी अब जो नहीं मिल रहे।
आज फ़्रेंडशिप डे है। वैसे मेरा मानना है जितना दिन आपका दोस्तों के साथ ख़राब होता है, फ़्रेंडशिप डे ही होता है। फिर भी, हैप्पी फ़्रेंडशिप डे दोस्तो!
ख़ुद के होने का एहसास दिलाते रहो।
ज़िंदा रहो।
- अभिषेक शुक्ल
कक्षा शिशु में मेरे चार बेस्ट फ्रेंड बने। सुमित, अमित, सूरज और अनिल। टिकाऊ दोस्त थे। इनके रहते बहुत दिनों तक कोई और दोस्त बन नहीं पाया। सूरज का मुंडन नहीं हुआ था। बालों में रुमाल बांध कर आता था।
सुमित और अमित असली वाले दोस्त थे। सुमित के पास बहुत से क़िस्से होते थे। पता नहीं कहां-कहां से चुनकर लाता था। गांव-मोहल्ला, ज़िला-जवार सब जगह की जानकारी भाई को थी। चलता-फिरता एंटरटेनमेंट।
अमित हंसने में उस्ताद था। क़िस्से उसके पास भी थे लेकिन सुमित के क़िस्से उसे भी पसंद आते थे। इसलिए नौबत ही नहीं आती थी कुछ सुनाने की।
लेकिन कुछ क़िस्से अमित, सूरज को सुनाता था कोने में ले जाकर। भगवान ही जाने क्या था उसके पीछे का राज़।
अनिल और मेरा गांव एक ही है। इसलिए दोस्ती हो गई। अनिल अपने पूरे कुनबे के साथ आता था।
सूरज अब कहां है, नहीं पता। छठी क्लास में कहीं और पढ़ने चला गया था। अनिल भी छह पास होने के बाद कहीं चला गया था। उसके बारे में ज़्यादा पता नहीं, गांव जाकर ही उसकी ख़बर मिलती है। सूरज और अनिल दोनों फ़ेसबुक पर भी नहीं हैं।
सुमित के साथ एक क़िस्सा याद आता है। दूसरी या तीसरी में पढ़ रहे थे। गर्मी का महीना था। शायद अप्रैल-मई का। स्कूल की टाइमिंग बदल गई थी। सुबह आंख खुलते ही स्कूल भागना होता था और 1 बजे दोपहर में छुट्टी हो जाती थी।
शहर से बाहर घर के आधे रास्ते में एक दिन चप्पल का फीता टूट गया। आसपास किसी मोची की दुकान भी नहीं थी। तपती दोपहर में नंगे पैर लगभग तीन किलोमीटर पैदल जाना था मुझे।
हमारा स्कूल घर से क़रीब चार किलोमीटर की दूरी पर था। सुमित को खरगवार जाना होता था और मुझे परिगवां।
सुमित का रास्ता छतहरी से अलग हो जाता था। उसे भी लगभग इतनी ही दूरी तय करनी होती थी।
सुमित को जब पता कि मेरी चप्पल टूट गई है, उसने अपनी चप्पल उतार दी। मैंने मना किया तो वह ज़िद पर उतर आया। पहन के जाना ही है। उस वक़्त कट्टी का बहुत डर होता था। दोस्त अगर कट्टी ले ले तो पट्टी करने में अगले कई दिन ख़राब हो जाते थे।
सुमित को मुझसे कहीं ज़्यादा ख़राब रास्ते पर जाना होता था। उबड़-खाबड़ रास्ते पर। पर सुमित मानने वाला कहां था। कह दिया तो कह दिया।
डायलॉग अब भी याद है उसका, 'यार हमार तो आदत परा है, तू नाहीं चल पाइबा बाऊ।' मतलब मेरी तो आदत है, तुम नंगे पैर नहीं चल पाओगे।
हम पैदल ही जाते थे। ख़ूब सारे भाई बहन लेकिन संयोग से उस दिन मैं अकेला ही था, भाई-बहनों में कोई स्कूल नहीं आया था। वह दिन मुझे हमेशा याद रहेगा।
सुमित, सच में सु-मित है।
बड़ा होता गया, दोस्त बनते गए। सूरज और उपेंद्र भाई थे, दोस्त बन गए। कभी-कभी परेशान होता हूं तो इन्हें फ़ोन कर लेता हूं। पेनकिलर की तरह हैं दोनों।
सरस्वती संस्कार मंदिर में ही कुछ और दोस्त बने थे। विवेक, बलराम, रविन्द्र, अरविंद, अखिलेश, रहीम, शाहिद, शीबू, अजय, सुरेंद्र, अभिषेक। कुछ दोस्तों के नाम भी याद नहीं रहे। चेहरा सबका याद है।
इनमें से बहुत कम दोस्त संपर्क में हैं।
विवेक जहां 10 नम्बरी आदमी, बलराम वहीं बुद्धिमान और शांत। विवेक तो अब पूरी तरह बदल गया है, सौम्य ज़मीनी नेता बन गया है। मसीहा टाइप।
शीबू स्कूल में मेरा जूनियर रहा है पर बहुत अच्छा दोस्त है। स्कूल में ख़ूब गाना सुनाया है भाई ने। 'लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी...।'
लड़कियों में तो ज़्यादातर की शादी हो गई होगी। बचपन की बस एक ही दोस्त अब टच में है। फ़ेसबुक बाबा की कृपा से।
जब संस्कार मंदिर छूटा तो कई दोस्त छूट गए। कुछ नए दोस्त बने भी। शिवपति इंटर कॉलेज। नौवीं से बारहवीं तक की पढ़ाई यहीं से हुई। इस दौरान भी कई दोस्त बन पर ज़्यादातर ग़ायब हैं।
विनय, अमित(द्वितीय), अभिषेक(द्वितीय) और योगेश के अलावा कोई संपर्क में नहीं है।
अम्बरीष, पंकज, सर्वेश, अमित, अभिषेक, सुधीर, सुभाष और केसरी भी ग़ायब हैं इन दिनों। बहुत सारे दोस्त ग़ायब हैं। कहीं रिपोर्ट लिखवाने का सिस्टम हो तो कितना अच्छा हो।
बारहवीं के बाद बने सारे दोस्त सही सलामत और टच में हैं। मोबाइल ने काम आसान कर दिया है। IIMT से IIMC तक जितने दोस्त बने सब फ़ेसबुक पर हैं। अपने ज़िंदा होने का एहसास दिलाते रहते हैं।
बारहवीं के बाद वाले दोस्तों की बातें बाद में।
पढ़ाई से अलग फ़ेसबुक या ब्लॉग पर जिनसे दोस्ती हुई
उनकी भी दोस्ती कम ख़ूबसूरत नहीं। सारे दोस्त बेहद ख़ास हैं।
फेसबुक को मेरे बचपन में भी रहना था, कुछ दोस्त छूटते नहीं, खोजने से भी अब जो नहीं मिल रहे।
आज फ़्रेंडशिप डे है। वैसे मेरा मानना है जितना दिन आपका दोस्तों के साथ ख़राब होता है, फ़्रेंडशिप डे ही होता है। फिर भी, हैप्पी फ़्रेंडशिप डे दोस्तो!
ख़ुद के होने का एहसास दिलाते रहो।
ज़िंदा रहो।
- अभिषेक शुक्ल
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, हैप्पी फ्रेंड्शिप डे - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया भाई.
हटाएंहैप्पी फ्रेंडशिप डे।
जवाब देंहटाएंथैंक्यू सर. विश यू दि सेम.
हटाएंअच्छा लिखा है बहुत ... दोस्ती ऐसी ही होती है ...
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें ...
आभार सर.
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-08-2018) को "पड़ गये झूले पुराने नीम के उस पेड़ पर" (चर्चा अंक-3056) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शुक्रिया सर.
हटाएं