गुरुवार, 23 जुलाई 2020

समय धरावै तीन नाम- परशु, परशुवा परशुराम

गांव में पहली बार दो तल्ले का घर तैयार हुआ. झोपड़ियों वाले गांव में पहली बार ईंट-गारा का पक्का मकान देखकर लोग हैरान रह गए. जब घर बन रहा था तब सुबह-शाम लोग यह देखने आते कि कैसे घर तैयार किया जाता है. जब घर बन गया तो ढींगुर दो तल्ले पर बड़का रेडियो पर गाना गवाते. जो घर देखने आता कहता कि ढींगुर की क्या गाढ़ी कमाई है.

यह घर ढींगुर का ही था. ढींगुर कोई ज़मींदार नहीं थे. न ही कोई बड़े काश्तकार. जो थे, उसके लिए हद दर्जे का दुर्दांत होना पड़ता है. दुर्दांत ही, जिसे दूसरों का ख़ून नोचने में मज़ा आए.

यह वही दौर था जब ढींगुर का परचम पूरे जवार में लहराता था. बिरादरी तो बिरादरी, दूसरे लोगों के भी कंकाल कांपते थे उन्हें देखकर. गांव में किसी की क्या मजाल जो उनके सामने तन के खड़ा हो जाए. तूती ऐसी बोलती थी कि जिस ज़मीन पर पांव रख दें, उन्हीं की हो जाती.

जवार की पूरी बंजर ज़मीन उन्हीं के नाम. जो छुटभैये मर्द बनते थे, ढींगुर की लाठी के सामने पस्त हो जाते थे. जो सज्जन थे, वे सरेंडर कर चुके थे. सारे गिरहकट्टों के सरदार थे ढींगुर. गांव के सारे धन्ना सेठ भी उनके सामने हार बैठे थे. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि ढींगुर को मनमानी रोकने की हिम्मत करे. हिम्मत भी करे तो कोई कैसे, किसे सालभर भूखे मरना है.

भूखा ही मरने का तो डर था. थोड़े ही कोई आज वाला ज़माना था नहीं कि परदेस जाकर चार पैसे का जुगाड़ हो जाए. मनरेगा भी नहीं था कि गड़हा पाटकर चार पैसे मिल जाएं. तब पैसा मतलब खेती था. तो सबका धन, सिवान में गड़ा होता था, जिसकी रखवाली राम भरोसे होती थी.

किसान और व्यापारी में यही तो अंतर होता है कि एक अपना धन सात तिजोरी में बंद करके रखता है तो दूसरा खुले आसमान के तले. उसे आसमान से बरसती आफत से भी डर होता है और ज़मीन के गिद्धों से भी.

इसी खुलेपन का तो फ़ाएदा उठाते थे ढींगुर. दिन में जो भी ढींगुर से अकड़ता, रात में उसका खेत सफाचट. ढींगुर अपने गुर्गों को लेकर खेत पर पहुंचते और रातो-रात फसल काट ले जाते. दिन में बेचारा किसान खेत पहुंचकर माथ पीटता. थाना-पुलिस का आलम ये कि कोई किसी की बात न सुने. पुलिस का आज ही वाला चेहरा कल भी तो था.
जो आदमी किसी तरह से दो वक़्त के खाने का जुगाड़ कर पाता हो, उससे क्या ही पुलिस उगाही कर पाती. जब पैसा नहीं तो सुनवाई क्या?

और ढींगुर, लूट का माल बराबर बांटने में भरोसा रखते थे. जितना ख़ुद खाते, उतना ही दूसरों को खिलाते. लूट के माल का एक हिस्सा साल-छह महीने में थाने पर पहुंच जाता. फिर गांव की सुधि कौन ले.

लूट, डकैती, चोरी, छिनैती, जुआ-गुच्ची, कौन सी ऐसी कुलत्ति थी जो ढींगुर किए नहीं. अत्याचारी इंसान सिर्फ दूसरों के लिए ही नहीं होता. अपने घर पर भी वह अत्याचारी रहता है. गांव के मज़लूमों पर जैसा अत्याचार, वैसा ही अपने घरवाली पर. दारू पीने के बाद तो आलम यह रहता था कि पत्नी को ढोल बना देते थे.

हर तीसरे दिन ढींगुर बहू, कराहती ही मिलतीं. ढींगुर के चार बच्चे हुए. 4 बेटियां भी. बेटियां बियाह के बाद घर चली गईं. बेटे धीरे-धीरे बाप के रास्ते पर चले. कहते हैं जो जितना तपता है, ढलता भी उसी रफ़्तार से है. धीरे-धीरे ज़माना बदला. ढींगुर को दमा हो गया. जवानी का पाप बुढ़ापे में नज़र आने लगा.

बेटे निकले बाप से जार जवा आगे. उन्होंने पाप का ककहरा अपने घर से ही सीखा. जो-जो ढींगुर ने दूसरों के साथ वही उनके साथ हुआ. चार बेटों में चार लक्षण. एक बेटा निकला जुआरी. दूसरा बेटा निकला शराबी. तीसरा बेटा निकला गंजेड़ी और चौथा निकला फराडी.

बेटे जवान हुए और ढींगुर ढल गए. जुआरी बेटा बड़ा था. धूम-धाम से शादी हुई. शादी के एक महीने बाद बांटकर घर से अलग हो गया. ढींगुर ताकते रह गए. शराबी बेटा दूसरे नंबर का था. उसकी शादी हुई तो तीसरे महीने अपनी पत्नी को छोड़कर किसी और के साथ फुर्र हो गया. सोचा भी नहीं कि कोई तीसरा भी आ रहा है, जिसकी ज़िम्मेदारी से वो भाग रहा है. ढींगुर का इतना तो चला कि उसे ज़मीन जायदाद से बेदख़ल कर दिया.

गंजेड़ी बेटा तीसरे नंबर का था. दिनभर गांजे में व्यस्त. गांजा पीने के बाद इंसान स्वघोषित महादेव का भक्त हो जाता है. सो उसने भक्ति की राह चुन ली. ढींगुर के रहते ही ऐसा फ़रार हुआ कि अब तक नहीं आया. सबसे छोटा जो फराडी था, वो ढींगुर का ही अपडेटेड वर्जन था. जितने ऐब ढींगुर में, उतने ही उसमें.

शादी के कुछ महीने तक तो किसी ने उसे देखा ही नहीं, चौथे महीने से पत्नी को पीटने की प्रैक्टिस शुरू कर दी. इतना मारता कि कई बार मरने की नौबत आ जाती. ढींगुर की बुढ़ापे में ख़ूब दुर्गति हुई. हर तीसरा आदमी गाली देकर निकल जाता. ज़माना बदल गया था. सबके जेब में पैसा था. पुलिस तो उसकी की जिसका पैसा. ढींगुर की कमाई रह नहीं गई थी, खेती-किसानी पर बेटों ने डाका डाल लिया.

पैसा सबके पास पहुंच गया था. चोरों का स्टारडम घट गया था. ख़ुद ढींगुर का भी. छोटे बेटे ने एक दिन नाराज़ होकर ढींगुर को पीट दिया. ऐसे पिटाई की कि ढींगुर की पूरी ज़िन्दगी में नहीं हुई थी. माथे से ख़ून बह रहा था. बेटा ही सात पीढ़ी न्यौत रहा था बाप की. ढींगुर को सदमा लग गया. मुश्किल से 12 दिन जिए थे. हानि में मर गए.

दुर्गति अब शुरू हुई. ढींगुर अपने पीछे छोड़ गए थे एक पत्नी, जो आजीवन उनके सुख-दुख में शामिल रही. सुख तो उसे कभी मिला नहीं, मिली बस मार. वक़्त की भी, नियति की भी.

अर्धांगिनी वाला जो कॉन्सेप्ट है न, वह कलियुग में भी फलीभूत होता है. ढींगुर के हिस्से का आधा पाप तो भोगकर वे चले गए, आधा सिरे आया पत्नी के. बेटे एक से बढ़कर एक नालायक. मां के पास जो भी है, उस पर डाका डाल गए. हर किसी ने मां को निकाल दिया. 

मां को मिला अलगाव. मां ने सबको हिस्सा दिया, मां किसी के हिस्से नहीं आई. मां ही बेसहारा हो गई. शराबी पूत का जो लाल वो छोड़कर भागा था, वह भी जवान हुआ. जिस घर में वह रह रही थी, वही शराबी पूत के हिस्से आया था. घर निकाला हो गया था, लेकिन एक हिस्सा ढींगुर के जीते-जीते उसे मिल गया था. पोते का आश्रय मिला दादी को. पोते ने कुछ दिन दादी के पास पैसे भेजे, फिर यह जताने लगा कि वही उसे जिला-खिला रहा है. ऐसा था नहीं. मेहनत-मजदूरी करके वो ख़ुद कमा रही थी. दो वक्त का खाना, उसी के भरोसे उसे मिल रहा था.

पोते ने भी एक दिन तनकर कहा कि मेरा घर छोड़कर जाओ, मेरा सारा पैसा तुम लुटा दे रही हो. चार जवान बेटों की मां के पास घर नहीं. ढींगुर का बनवाया घर जर्जर होकर ढह गया था. बच्चों ने अपनी-अपनी कमाई से घर तैयार कर लिया था. मां के सिर पर छत नहीं था. छप्पर के मकान में महलों में रह चुकी राजमाता रह रही थी. जिसका पूत न हुआ, उसका पोता क्या होगा?

खेत मां के नाम, घर मां के नाम लेकिन बेटों ने सब हड़प लिया. ढींगुर का सारा यत्न, सारी व्यवस्था, सारा रुतबा धरा का धरा रह गया. उनके मरने के महज कुछ दिन बाद ही सब का सब खत्म हो चुका था. मकान खंडहर था. घर तोड़ा इसलिए गया कि बेटों को हिस्सा नहीं मिल रहा था.

हिस्सा मिला, किसी का निवाला छिन गया. ढींगुर बहू की किस्मत में मार लिखी थी. मार मिली. कभी बहुओं की तो कभी समय की. कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनके भाग्य में दुख मढ़ा गया होता है.

ढींगुर ने मरने से पहले कहा भी था कि जवानिया में हम तपेन, बुढ़पवा हम्मे तापत है. जितना ढींगुर ने जिस तरीके से कमाया था, उन्हीं के सामने वह ख़त्म हो गया.

जो धन जइसे आत है, सो धन तइसे जात. ढींगुर भवन से गुज़रता हर शख़्स यही कहते हुए निकलता है. आज सब मरे हुए ढींगुर को नसीहत दे रहे हैं, वही लोग, जो उनके सामने कभी बोल नहीं सके थे. ढींगुर बहू भी सब कुछ सहते, सहाते कह ही देती हैं कभी-कभी.

समय धरावै तीन नाम. परशु, परशुवा परशुराम.

-अभिषेक शुक्ल.

6 टिप्‍पणियां:

  1. नियति; नियत और नियन्ता का न्याय।।।

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (२५-०७-२०२०) को 'सारे प्रश्न छलमय' (चर्चा अंक-३७७३) पर भी होगी
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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  3. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    26/07/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......

    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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  4. गांव के भीतर भोग रहे लूगों का मार्मिक सच क्या
    प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है
    वाह
    बधाई

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