जाल में उसकी उलझकर कुछ अभागे रो रहे हैं,
उम्रभर की सब कमाई आंसुओं में बह गई है
स्वप्न की कुटिया नयन के सामने वे खो रहे हैं।
पीर का विस्तार देखो हर तरफ जल ही भरा है
नाव के सौदागरों में कुछ थके हैं सो रहे हैं,
भार पतवारों पे इतना कि घिसटकर टूटते हैं
नाविकों के तन विवशता से मनुजता ढो रहे हैं।
कौन सी मिट्टी तुम्हारे बुद्धि के तट पर पड़ी है
नाश की सारी क्रियाएं क्यों तुम्हें उल्लास लगतीं,
भावना को भस्म कर जो तुम जगत से खेलते हो
मृत्यु की सारी कलाएं क्यों तुम्हें परिहास लगतीं।
सत्य है जीवन क्षणिक है किंतु इसमें दीर्घता है
जीव के अस्तित्व को मन से कभी स्वीकार कर लो,
कुछ पलों का भ्रम समझकर मान लो तुम जी रहे हो
नाश के आभास में ही प्राण का विस्तार कर लो.
(अभिषेक शुक्ल)
(इमेज सोर्स- पीटीआई)
सत्य है जीवन क्षणिक है किंतु इसमें दीर्घता है
जवाब देंहटाएंजीव के अस्तित्व को मन से कभी स्वीकार कर लो...
आपकी लिखी इस रचना ने मुझे बेहद प्रभावित किया है। लिखते रहें ....शुभकामनाएं।
मै आपका अनुसरण करता रहूंगा। 👍👍👌👌
शुक्रिया सर.
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-07-2018) को "चाँद पीले से लाल होना चाह रहा है" (चर्चा अंक-3047) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार सर.
हटाएंसार्थक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर.
हटाएंशुक्रिया सर.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना है ... भाव प्रधान और सहज अभिव्यक्ति है ...
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