बुधवार, 20 जून 2018

क्योंकि कविताओं का पुनर्जन्म नहीं होता

पहाड़ जैसे मन से बहने वाली कविताएं, व्याकरण और छंदों की खाइयों में उलझकर प्रायः मृतप्राय हो जाती हैं। उनमें प्राण डालने की कितनी भी कोशिश क्यों न की जाए, जीवन का संचार नहीं दिख सकता। टूटे हाथ-पैरों की मरम्मत हो जाती है, वैद्य उन्हें जोड़ने में सक्षम हैं लेकिन कविताओं का इलाज करने वाला कोई वैद्य नहीं मिलता।

कोई इनका इलाज भी करे तो कविताएं दुरुस्त नहीं होतीं। अर्थ बदलते हैं, भाव बदल जाते हैं और काव्यगत सौंदर्य भी।



कबूतर के घोंसले से गिरे हुए अंडे को कोई अगर वापस घोंसले में डाल दे तो अंडे में से बच्चे नहीं निकलते। किसी की कविता को भी अगर कोई सुधारना या संरक्षित करना चाहे तो भी कविता संरक्षित नहीं होती। कविता, अकविता हो जाती है। मन का कोई व्याकरण नहीं होता, पर कविता?

खैर जो भी हो, कुछ कविताओं की नियति में विराट शून्य आता है। अनंत ब्रह्मांण्ड में कविताएं भी तैरती रहती हैं, खो जाती हैं। वापस लौटकर कभी नहों आतीं क्योंकि कविताओं का पुनर्जन्म नहीं होता।

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-06-2018) को "सारे नम्बरदार" (चर्चा अंक-3009) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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