रविवार, 23 अक्तूबर 2016

शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन


शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन,
चिमनी भट्टी,शोर-शराबा कैंटीन में चौका बरतन ।।
दिनभर सारा काम करुं तो खाने भर को मिलजाता है,
कुछ पैसे मैं रख लेता हूँ कुछ मेरे घर भी जाता है।।
फटे हुए कपड़े मुन्नी के मां को नहीं दवाई मिलती
अपना भी तन मैं ढक पाऊँ इतनी कहाँ कमाई मिलती?
दिन-रात मैं मेहनत करता फिर भी पैसों की है तरसन,
शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन।।

-अभिषेक

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना !

    ऐसे ही लिखते रहो अभिषेक भाई !

    Dynamic

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  2. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल सोमवार (24-10-2016) के चर्चा मंच "हारती रही हर युग में सीता" (चर्चा अंक-2505) पर भी होगी!
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. बहुत ही उम्दा ..... बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति .... Thanks for sharing this!! :) :)

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