कभी-कभी ख़्वाब भी
बिखरे पत्तों की
तरह होते हैं
कहीं भी-कभी भी
बहक जाते हैं
हवाओं से,
वजूद तो है
पर
बेमतलब
खोटे सिक्के की तरह
जो होता तो है
पर
चलता नहीं
पत्तों का क्या है
इकठ्ठे
हो सकते हैं
लेकिन ख़्वाब?
हों भी कैसे
इतने टुकड़ों में
टूटतें हैं
कि
आवाज तक नहीं आती.
टूटे ख़्वाब
दुखते तो हैं
पर
जोड़ने की
हिम्मत नहीं होती
जाने क्यों
खुद की
बनाई हुई
कमज़ोरी
हावी हो जाती है
खुद पर,
ख़्वाब सहेजे
नही जाते
जिंदगी कैसे
सम्भले
हम इंसानों से??
बिखरे पत्तों की
तरह होते हैं
कहीं भी-कभी भी
बहक जाते हैं
हवाओं से,
वजूद तो है
पर
बेमतलब
खोटे सिक्के की तरह
जो होता तो है
पर
चलता नहीं
पत्तों का क्या है
इकठ्ठे
हो सकते हैं
लेकिन ख़्वाब?
हों भी कैसे
इतने टुकड़ों में
टूटतें हैं
कि
आवाज तक नहीं आती.
टूटे ख़्वाब
दुखते तो हैं
पर
जोड़ने की
हिम्मत नहीं होती
जाने क्यों
खुद की
बनाई हुई
कमज़ोरी
हावी हो जाती है
खुद पर,
ख़्वाब सहेजे
नही जाते
जिंदगी कैसे
सम्भले
हम इंसानों से??
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (16-11-2014) को "रुकिए प्लीज ! खबर आपकी ..." {चर्चा - 1799) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार सर।
हटाएंबहुत सुन्दर....
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मैम।
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंकितना भी कुछ हो जाए लेकिन इंसान ख़्वाब देखना कहाँ छोड़ पाता है ...
जवाब देंहटाएं..बहुत अच्छी रचना
छोड़ना भी नहीं चाहिए,हर बड़े उप्लब्धि की शुरुआत ख्वाब से ही होती है।
हटाएंkhwaabo k bina b jeena kya.... par khwaab to khwaaab h......sunder bhaawpurn rachna
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मैम।....ख्वाब ही तो इंसान की पूँजी होते हैं
हटाएंहिम्मत से नए ख्वाब फिर से जुड़ने लगते हैं ...
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना है ...
सहमत हूँ सर! ब्लॉग पर आने के लिए बहुत-बहुत आभार|
हटाएंख्वाब ऐसे ही होते हैं
जवाब देंहटाएं