माथे पर झोला लिये, मन में लिए जुनून
काटो तो पानी बहे, इतना पतला खून।
बेहद पथरीली डगर, पानी मिले न छांव,
शहरों से ठोकर मिला, हम चल बैठे गांव।
भूख यहां भी वहां भी, पर वो अपना देस,
रूखा-सूखा खाय ल्यो, जइहौ मत परदेस।
अपनी माटी प्रेम की, वाकी माटी सौत
अपनी ने जीवन दिया, दूजी ने दी मौत।
घाम लगे पाथर पड़े, कब इसकी परवाह
शहरों से अनसुनी थी, मजदूरों की आह।
सूखी रोटी गांव की, चुटकी भर का नोन
कटे कइसहूं आज बस, कल की सोचे कौन।
माना अपने गांव में, रहता बहुत कलेस।
कुल पीड़ा स्वीकार है, ना जाइब परदेस।
- अभिषेक शुक्ल.
(तस्वीर- साभार PTI)