मंगलवार, 26 मई 2015

उफ़्फ़! ये रेलवे।

कभी-कभी थोड़ी सी लापरवाही बड़े परेशानी की वज़ह बनती है। गलती मेरी थी या सामने वाले की समझ में नहीं आ रहा है। ये तो मानवीय प्रकृति है कि खुद की गलती गले से नीचे नहीं उतरती, कोई खुद को गुनहगार नहीं मानता...चलो मैं मान लेता हूँ की गलती मेरी थी।
हुआ यूँ कि मेरठ आने के लिए मुझे दो टिकट लेने थे। मौसा, मौसी और दादी की कन्फर्म टिकट था 25 को सत्याग्रह एक्सप्रेस से, किसी कारणवश मौसा नहीं आ सके तो उनकी जगह मुझे चलना था। कुछ दिन बाद भइया ने बताया की मामी भी चलेंगी साथ में तो मैंने उसके अगले दिन ही दो  टिकट ले लिया। वेटिंग 82-83 रहा..सीट मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि बिहार से होकर आने वाली किसी भी ट्रेन में एक हफ्ते पहले रिजर्वेशन मिलना असंभव होता है, पर सुकून की बात ये थी कि हमारे पास तीन सीट थी....बड़े आराम से 6 लोग सो कर जाते..पर हम पाँच लोग ही थे।
मैं टिकट लेने शोहरतगढ़ गया तो वहां लंबी लाइन लगी थी। आगे बढ़ा तो पता लगा की महोदय खाना खाने गए हैं। आधे घंटे उबलती गर्मी में स्टेशन पर खड़ा रहना वो भी बुखार की हालत में किसी सजा से कम नहीं होता मैं किसी धैर्यवान व्यक्ति की तरह अपने पारी की प्रतीक्षा कर रहा था  पर महाशय थे कि हर फॉर्म को बीस-बीस मिनट दे रहे थे...उनकी तल्लीनता देख कर लग रहा था की अलग-अलग राइटिंग के प्रकृति पर वो शोध कर रहे थे। खैर  बुजुर्ग हैं दिखाई कम देता है उन्हें चश्मा बाहर-भीतर कर के तो टिकट दे रहे थे। कुछ लोग पीछे से उन्हें गाली भी दे रहे थे तो कुछ कह रहे थे की ये टिकट काट रहा है या सो रहा है? मैं रिजर्वेशन फॉर्म भरकर लाइन में लग गया।पीछे से अवाज़ आई इसका प्रमोशन इसकी सुस्ती की वजह से नहीं हो रहा है...लोग रोज़ शिकायत करते हैं पर इसे अपने गति से बहुत स्नेह है। मैं भी मुफ़्त के घटिया ज़ोक झेल रहा था। आधे घंटे बाद मेरी बारी आयी। पेपर पर मैंने पूरी डिटेल भर दी। बीस मिनट के घनघोर तहक़ीक़ात के बाद उसने टिकट दिया..चार बार नाम और उम्र पूछा..चार बार बताया भी। फिर टिकट का एक फ़ोटो लेकर वीरू भइया को भेजा। टिकट देखा नहीं सीधे पर्स में डाल कर बाइक स्टार्ट की और घर आ गया..घर आते ही पर्स बैग में रखा और सो गया। मैं घर जाऊं और बिना बुखार-खाँसी के मेरठ आ जाऊं ऐसा कम होता है। मेरे साथ मेरा छोटा भाई आदर्श भी रेलवे स्टेशन आया था...घर पहुँच के उसे भी बुखार हुआ और अगले दिन चेचक निकल गया। दाने बढ़ते गए...होम्योपैथिक इलाज भी हुआ। हमारे यहाँ ऐसी मान्यता है कि चेचक में अंग्रेजी दवा नहीं कराते माता जी का प्रकोप बढ़ जाता है। मैं भी डर रहा था..पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
घर छोड़ना मुश्किल होता है हमेशा से मेरे लिए..इस बार आना और ख़राब लगा क्योंकि घर पे मेरे छोटे भाई-बहन आये थे। बहुत मुश्किल से तो हम मिलते हैं....बिना रोये 25 की सुबह घर से निकला,भइया ने स्टेशन छोड़ा...ट्रेन खचाखच भरी हुई थी..खड़े होकर गोरखपुर तक पहुँचा। मामी के पास गया..खाना खाया और सो गया..करीब दो बजे दोपहर में स्टेशन के लिए निकला..जैसे ही रुस्तमपुर ढ़ाले पर पहुँचा वीरू भइया ने फोन किया कि टिकट देखना 29 का है क्या? मैंने टिकट बिलकुल नहीं देखा था देखा तो पता चला कि टिकट सच में 29 का है। पहली बार किसी के लिए दिल से गाली निकली।
एक बात बताइये कि जब आप डॉक्टर के पास जाते हैं इलाज के लिए तो जिन दवाइयों को लेने के लिए आपको कहा जाता है क्या आप उनके रासायनिक सूत्रों को पढ़ते हैं?
जब एक वकील ड्राफ्ट तैयार करता है तो कई बार सादे पेपर पर आपके हस्ताक्षर लेता है.....क्या कभी अपने अपने केस को ड्राफ्टिंग के दौरान पढ़ा है?
मैंने रिजर्वेशन फॉर्म को साफ़-साफ़ भरा था..तारीख़ लिखी थी पर महोदय 25 को 29 समझ लेंगे ये मैंने नहीं सोचा था। वैसे मैं कन्फर्म टिकट को चार बार चेक करता हूँ पर पता नहीं क्यों इस बार एक बार भी टिकट नहीं देखा।
इसके बाद की बात मत पूछिये...टाइम और बुखार साथ-साथ बढ़ रहे थे, दो जनरल टिकट लेकर स्टेशन की ओर चला...मामी और मौसी की साथ-साथ एंट्री हुई...मौसी तो भारी-भरकम सामान लेकर आई थी।सब खाने पीने का सामान था..हम सब के लिए ही, आचार-खटाई...
अगर फाइन कटता तो लगभग आठ सौ का चूना लगता...सोच लिया था की फाइन कटाने हैं। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं...ट्रेन में पहुँचने के बाद आराम मिला...वैसे कोई परेशानी नहीं हुई पर रास्ते भर टिकट बाबू के लिए दिल से आरती निकलती रही...मैं मेरठ पहुँच गया और मामी दिल्ली...पर अभी भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा हूँ की लापरवाही मेरी है या टिकट बाबू की...अब तो मुझे भी छाँछ फूँक-फूँक कर पीना है दूध का जला जो हूँ। लापरवाह.....किसे कहूँ खुद को या टिकट बाबू को....?

मंगलवार, 12 मई 2015

मेरी चाहत।


अजब सी चाहतें मेरी
अजब सा हाल है मेरा
मोहब्बत के सफ़र में
दिल-बेहाल है मेरा,

न  तुमको   वक़्त है कि
मुझे तुम याद कर पाओ,
मेरे ख्वाबों में बसकर तुम
कहीं मुझमे ही खो जाओ,
पलक झपके तो मेरा अक़्स
तुम्हारी आँख में उभरे
तुम्हारी बिखरी सी ज़ुल्फ़ें
हमारे हाथ से सवरें,
मैं सपने देखूं तुम उनको
ज़रा साकार कर देना,
उलझते रिश्तों को फिर से
नया आकार दे देना,
मोहब्बत की है मुझसे तो
मेरा इतना तो हक़ है ही,
उड़ें जब होश मेरे तो
मेरा उपचार कर देना,
तुम्हारे प्यार में मेरा
ठिकाना बन गया शायद,
मेरे हर ठिकाने पर
तुम अधिकार कर लेना।
(This sketch is made by my dear friend kanika jauhri. I am very thankful to her for this....actually penting is much more adorable than my poem but i tried to write something on the theme of the picture. May be my poem is childish but sketch is not....Thank you kanu...your sketch is awesome, and sorry i failed to write good poem on the theme of the picture.)

मंगलवार, 5 मई 2015

पत्रकारिता पर सवाल

Electronic media के चटपटी ख़बरों की script लिखने वाले पत्रकारों से मुझे मिलना है,अगर आपका कोई जुगाड़ हो तो मुझे जरूर बताइएगा ।
मुझे उनसे पूछना है की आप सब इतने संवेदनहीन कैसे हो सकते हैं? चटपटी ख़बरों और टी.आर.पी के चक्कर में किसी के सामाजिक जीवन का सत्यानाश कैसे कर लेते हैं.? क्या लिखते हैं आप?
बलात्कार की, यौन शोषण की घटनाओं का इतना जीवंत वर्णन, इतना मार्मिक रेखाचित्रण तो महादेवी वर्मा न कर पातीं जितना आप कर ले जाते हैं। भाई! दिल से बधाई के पात्र हैं आप।
पता है आपको, आपका धंधा लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। आप भी बधें हैं कानून से लेकिन इतना कानून तो अपराधी भी नहीं तोड़ते जितना की आप सब तोड़ते हैं। बड़ा नेक काम करते हैं आप।
भारतीय दंड संहिता की एक धारा है जिसका अक्सर आप लोग उल्लंघन करते हैं पढ़ लीजिये क्योंकि जानबूझ कर कानून तोड़ने में तो शिवत्व जैसा आनन्द है।
धारा है-
Section 228A in The Indian Penal Code-
Disclosure of identity of the victim
of certain offences etc.—
(1) Whoever prints or publishes the name
or any matter which may make known the
identity of any person against whom an
offence under section 376, section 376A,
section 376B, section 376C or section 376D
is alleged or found to have been committed
(hereafter in this section referred to as the
victim) shall be punished with
imprisonment of either description for a
term which may extend to two years and
shall also be liable to fine.
पर दुर्भाग्य से मिडिया पर कोई लगाम नहीं कसता क्योंकि ये अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ भी कह सकते हैं, कितने भी कानूनों का उल्लंघन कर सकते हैं क्योंकि पत्रकार जो ठहरे।
खैर लगाम कसे भी तो कौन भ्रष्ट नेता? उन्हें खुद लगाम की जरुरत है।
आज फेसबुक पे एक स्टेटस पढ़ा। बड़े वरिष्ठ साहित्यकार हैं, कुमार विश्वास की प्रसिद्धि के लिए उनके अवैध सम्बन्धों को वजह बता रहे थे, कल से कुछ ड्रामा चल रहा है न news channels पर,कुमार विश्वास को लेकर?
'होठों पर गंगा हो हाथों में तिरंगा हो', 'है नमन उनको'जैसी प्रसिद्द कवितायेँ जब उन्होंने लिखा तो वो देशभक्त थे, मेहमान की तरह होली,दीपावली,दशहरा पर बुलाये जाते थे पर आज-कल तो कोई और सीन चल रहा है। कतिपय ईर्ष्यालु तथाकथित साहित्यकारों और बिकाऊ पत्रकारों ने उन्हें व्यभिचारी भी बना दिया।
शर्म आती है ऐसे साहित्य के खिलाडियों पर जो बेतुके बयान देते रहते हैं। आप साहित्य को गन्दा ही करेंगे और आपके मित्र पत्रकारिता को। शर्म आती है आपके योग्यता पर। इस लायक लिखो कि लोग आपको पसंद करें, किसी के लोकप्रिय होने पर आपत्ति क्यों?
अरे हाँ! मैं तो पत्रकारिता की बात कर रहा था,लीक से भटक गया।
भाई! आप बेशक अपने channels पर adult entertainment चलायें पर उन्हें ज़रा आम खबरों से अलग रखा करें, हम विद्यार्थी हैं कभी-कभी समाचार देखना आवश्यक हो जाता है लेकिन हमें समाचार देखना होता है बलात्कार नहीं।
ऐसे मनोरंजक कार्यक्रम रात में चलाया करें 11बजे के बाद। जरूर पसंद किये जाएंगे, आपकी लोकप्रियता तो पक्का आपके घटिया सोच पर टिकी है...सोचते रहें।
बचपन से ही हमें अश्लील साहित्य से दूर रहने के निर्देश मिलते रहे हैं, बड़े हुए तो कुछ अच्छा पढ़ने की आदत हो गयी, पर मीडिया ने मस्त अश्लीलता सिखायी।
सोच रहा हूँ इस बार मनोरम कहानी, सरस सलिल, मदहोश कहानियाँ इत्यादि को subscribe कर लूँ ये ज्ञान सफलता दिलाने में सहयोग करेंगे।
ख़ैर, अभी पैसे नहीं हैं अगली बार..
जब भी किसी कवी/साहित्यकार पर चारित्रिक आरोप लगते हैं तो मन कचोटता है।पत्रकार तो बुद्धिजीवी वर्ग में गिने जाते हैं इनसे ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं होती है पर अपेक्षाओं का अंत यही होता है।
कुमार विश्वास यदि केवल कवि होते तो आहत हो वानप्रस्थ रखते किंतु अब वो नेता भी हैं..थोड़े ढीट हो गए हैं..तो ये सब आम बात है उनके लिए।
यह पवित्र व्यवसाय जब से धंधा बना तबसे लोकतंत्र भी पानी मांगने लगा।
खैर,तनिक स्तरीय लिखिए मित्र!
कब तक व्यभिचार को मिर्च-मसाला लगा कर पेश करेंगे? कब तक अभिव्यक्ति के नाम पर बदतमीज़ी परोसी जायेगी?
हद है।
आप लोगों की वजह से ही अच्छे पत्रकार हाशिये पर हैं या संघर्ष कर रहे हैं। न उन्हें कोई जानता है न जान पायेगा क्योंकि भारतीय मानसिकता ही कुत्सित हो चुकी है..सच के नाम पर कितनी भी बेहूदगी करो जायज है, पर स्तरीय साहित्य या पत्रकारिता गले के नीचे नहीं उतरती।
मुंशी प्रेमचन्द्र जी ने ठीक ही कहा है- "धूर्त व्यक्ति का अपनी भावनाओं पर जो नियंत्रण होता है वह किसी सिद्ध योगी के लिए भी कठिन है।"
धूर्त नहीं जानता किसे कहते हैं पर शायद आप लोगों से उनकी शक्लें मिलती होंगी।