कभी-कभी थोड़ी सी लापरवाही बड़े परेशानी की वज़ह बनती है। गलती मेरी थी या सामने वाले की समझ में नहीं आ रहा है। ये तो मानवीय प्रकृति है कि खुद की गलती गले से नीचे नहीं उतरती, कोई खुद को गुनहगार नहीं मानता...चलो मैं मान लेता हूँ की गलती मेरी थी।
हुआ यूँ कि मेरठ आने के लिए मुझे दो टिकट लेने थे। मौसा, मौसी और दादी की कन्फर्म टिकट था 25 को सत्याग्रह एक्सप्रेस से, किसी कारणवश मौसा नहीं आ सके तो उनकी जगह मुझे चलना था। कुछ दिन बाद भइया ने बताया की मामी भी चलेंगी साथ में तो मैंने उसके अगले दिन ही दो टिकट ले लिया। वेटिंग 82-83 रहा..सीट मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि बिहार से होकर आने वाली किसी भी ट्रेन में एक हफ्ते पहले रिजर्वेशन मिलना असंभव होता है, पर सुकून की बात ये थी कि हमारे पास तीन सीट थी....बड़े आराम से 6 लोग सो कर जाते..पर हम पाँच लोग ही थे।
मैं टिकट लेने शोहरतगढ़ गया तो वहां लंबी लाइन लगी थी। आगे बढ़ा तो पता लगा की महोदय खाना खाने गए हैं। आधे घंटे उबलती गर्मी में स्टेशन पर खड़ा रहना वो भी बुखार की हालत में किसी सजा से कम नहीं होता मैं किसी धैर्यवान व्यक्ति की तरह अपने पारी की प्रतीक्षा कर रहा था पर महाशय थे कि हर फॉर्म को बीस-बीस मिनट दे रहे थे...उनकी तल्लीनता देख कर लग रहा था की अलग-अलग राइटिंग के प्रकृति पर वो शोध कर रहे थे। खैर बुजुर्ग हैं दिखाई कम देता है उन्हें चश्मा बाहर-भीतर कर के तो टिकट दे रहे थे। कुछ लोग पीछे से उन्हें गाली भी दे रहे थे तो कुछ कह रहे थे की ये टिकट काट रहा है या सो रहा है? मैं रिजर्वेशन फॉर्म भरकर लाइन में लग गया।पीछे से अवाज़ आई इसका प्रमोशन इसकी सुस्ती की वजह से नहीं हो रहा है...लोग रोज़ शिकायत करते हैं पर इसे अपने गति से बहुत स्नेह है। मैं भी मुफ़्त के घटिया ज़ोक झेल रहा था। आधे घंटे बाद मेरी बारी आयी। पेपर पर मैंने पूरी डिटेल भर दी। बीस मिनट के घनघोर तहक़ीक़ात के बाद उसने टिकट दिया..चार बार नाम और उम्र पूछा..चार बार बताया भी। फिर टिकट का एक फ़ोटो लेकर वीरू भइया को भेजा। टिकट देखा नहीं सीधे पर्स में डाल कर बाइक स्टार्ट की और घर आ गया..घर आते ही पर्स बैग में रखा और सो गया। मैं घर जाऊं और बिना बुखार-खाँसी के मेरठ आ जाऊं ऐसा कम होता है। मेरे साथ मेरा छोटा भाई आदर्श भी रेलवे स्टेशन आया था...घर पहुँच के उसे भी बुखार हुआ और अगले दिन चेचक निकल गया। दाने बढ़ते गए...होम्योपैथिक इलाज भी हुआ। हमारे यहाँ ऐसी मान्यता है कि चेचक में अंग्रेजी दवा नहीं कराते माता जी का प्रकोप बढ़ जाता है। मैं भी डर रहा था..पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
घर छोड़ना मुश्किल होता है हमेशा से मेरे लिए..इस बार आना और ख़राब लगा क्योंकि घर पे मेरे छोटे भाई-बहन आये थे। बहुत मुश्किल से तो हम मिलते हैं....बिना रोये 25 की सुबह घर से निकला,भइया ने स्टेशन छोड़ा...ट्रेन खचाखच भरी हुई थी..खड़े होकर गोरखपुर तक पहुँचा। मामी के पास गया..खाना खाया और सो गया..करीब दो बजे दोपहर में स्टेशन के लिए निकला..जैसे ही रुस्तमपुर ढ़ाले पर पहुँचा वीरू भइया ने फोन किया कि टिकट देखना 29 का है क्या? मैंने टिकट बिलकुल नहीं देखा था देखा तो पता चला कि टिकट सच में 29 का है। पहली बार किसी के लिए दिल से गाली निकली।
एक बात बताइये कि जब आप डॉक्टर के पास जाते हैं इलाज के लिए तो जिन दवाइयों को लेने के लिए आपको कहा जाता है क्या आप उनके रासायनिक सूत्रों को पढ़ते हैं?
जब एक वकील ड्राफ्ट तैयार करता है तो कई बार सादे पेपर पर आपके हस्ताक्षर लेता है.....क्या कभी अपने अपने केस को ड्राफ्टिंग के दौरान पढ़ा है?
मैंने रिजर्वेशन फॉर्म को साफ़-साफ़ भरा था..तारीख़ लिखी थी पर महोदय 25 को 29 समझ लेंगे ये मैंने नहीं सोचा था। वैसे मैं कन्फर्म टिकट को चार बार चेक करता हूँ पर पता नहीं क्यों इस बार एक बार भी टिकट नहीं देखा।
इसके बाद की बात मत पूछिये...टाइम और बुखार साथ-साथ बढ़ रहे थे, दो जनरल टिकट लेकर स्टेशन की ओर चला...मामी और मौसी की साथ-साथ एंट्री हुई...मौसी तो भारी-भरकम सामान लेकर आई थी।सब खाने पीने का सामान था..हम सब के लिए ही, आचार-खटाई...
अगर फाइन कटता तो लगभग आठ सौ का चूना लगता...सोच लिया था की फाइन कटाने हैं। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं...ट्रेन में पहुँचने के बाद आराम मिला...वैसे कोई परेशानी नहीं हुई पर रास्ते भर टिकट बाबू के लिए दिल से आरती निकलती रही...मैं मेरठ पहुँच गया और मामी दिल्ली...पर अभी भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा हूँ की लापरवाही मेरी है या टिकट बाबू की...अब तो मुझे भी छाँछ फूँक-फूँक कर पीना है दूध का जला जो हूँ। लापरवाह.....किसे कहूँ खुद को या टिकट बाबू को....?
हुआ यूँ कि मेरठ आने के लिए मुझे दो टिकट लेने थे। मौसा, मौसी और दादी की कन्फर्म टिकट था 25 को सत्याग्रह एक्सप्रेस से, किसी कारणवश मौसा नहीं आ सके तो उनकी जगह मुझे चलना था। कुछ दिन बाद भइया ने बताया की मामी भी चलेंगी साथ में तो मैंने उसके अगले दिन ही दो टिकट ले लिया। वेटिंग 82-83 रहा..सीट मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं थी क्योंकि बिहार से होकर आने वाली किसी भी ट्रेन में एक हफ्ते पहले रिजर्वेशन मिलना असंभव होता है, पर सुकून की बात ये थी कि हमारे पास तीन सीट थी....बड़े आराम से 6 लोग सो कर जाते..पर हम पाँच लोग ही थे।
मैं टिकट लेने शोहरतगढ़ गया तो वहां लंबी लाइन लगी थी। आगे बढ़ा तो पता लगा की महोदय खाना खाने गए हैं। आधे घंटे उबलती गर्मी में स्टेशन पर खड़ा रहना वो भी बुखार की हालत में किसी सजा से कम नहीं होता मैं किसी धैर्यवान व्यक्ति की तरह अपने पारी की प्रतीक्षा कर रहा था पर महाशय थे कि हर फॉर्म को बीस-बीस मिनट दे रहे थे...उनकी तल्लीनता देख कर लग रहा था की अलग-अलग राइटिंग के प्रकृति पर वो शोध कर रहे थे। खैर बुजुर्ग हैं दिखाई कम देता है उन्हें चश्मा बाहर-भीतर कर के तो टिकट दे रहे थे। कुछ लोग पीछे से उन्हें गाली भी दे रहे थे तो कुछ कह रहे थे की ये टिकट काट रहा है या सो रहा है? मैं रिजर्वेशन फॉर्म भरकर लाइन में लग गया।पीछे से अवाज़ आई इसका प्रमोशन इसकी सुस्ती की वजह से नहीं हो रहा है...लोग रोज़ शिकायत करते हैं पर इसे अपने गति से बहुत स्नेह है। मैं भी मुफ़्त के घटिया ज़ोक झेल रहा था। आधे घंटे बाद मेरी बारी आयी। पेपर पर मैंने पूरी डिटेल भर दी। बीस मिनट के घनघोर तहक़ीक़ात के बाद उसने टिकट दिया..चार बार नाम और उम्र पूछा..चार बार बताया भी। फिर टिकट का एक फ़ोटो लेकर वीरू भइया को भेजा। टिकट देखा नहीं सीधे पर्स में डाल कर बाइक स्टार्ट की और घर आ गया..घर आते ही पर्स बैग में रखा और सो गया। मैं घर जाऊं और बिना बुखार-खाँसी के मेरठ आ जाऊं ऐसा कम होता है। मेरे साथ मेरा छोटा भाई आदर्श भी रेलवे स्टेशन आया था...घर पहुँच के उसे भी बुखार हुआ और अगले दिन चेचक निकल गया। दाने बढ़ते गए...होम्योपैथिक इलाज भी हुआ। हमारे यहाँ ऐसी मान्यता है कि चेचक में अंग्रेजी दवा नहीं कराते माता जी का प्रकोप बढ़ जाता है। मैं भी डर रहा था..पर ऐसा कुछ हुआ नहीं।
घर छोड़ना मुश्किल होता है हमेशा से मेरे लिए..इस बार आना और ख़राब लगा क्योंकि घर पे मेरे छोटे भाई-बहन आये थे। बहुत मुश्किल से तो हम मिलते हैं....बिना रोये 25 की सुबह घर से निकला,भइया ने स्टेशन छोड़ा...ट्रेन खचाखच भरी हुई थी..खड़े होकर गोरखपुर तक पहुँचा। मामी के पास गया..खाना खाया और सो गया..करीब दो बजे दोपहर में स्टेशन के लिए निकला..जैसे ही रुस्तमपुर ढ़ाले पर पहुँचा वीरू भइया ने फोन किया कि टिकट देखना 29 का है क्या? मैंने टिकट बिलकुल नहीं देखा था देखा तो पता चला कि टिकट सच में 29 का है। पहली बार किसी के लिए दिल से गाली निकली।
एक बात बताइये कि जब आप डॉक्टर के पास जाते हैं इलाज के लिए तो जिन दवाइयों को लेने के लिए आपको कहा जाता है क्या आप उनके रासायनिक सूत्रों को पढ़ते हैं?
जब एक वकील ड्राफ्ट तैयार करता है तो कई बार सादे पेपर पर आपके हस्ताक्षर लेता है.....क्या कभी अपने अपने केस को ड्राफ्टिंग के दौरान पढ़ा है?
मैंने रिजर्वेशन फॉर्म को साफ़-साफ़ भरा था..तारीख़ लिखी थी पर महोदय 25 को 29 समझ लेंगे ये मैंने नहीं सोचा था। वैसे मैं कन्फर्म टिकट को चार बार चेक करता हूँ पर पता नहीं क्यों इस बार एक बार भी टिकट नहीं देखा।
इसके बाद की बात मत पूछिये...टाइम और बुखार साथ-साथ बढ़ रहे थे, दो जनरल टिकट लेकर स्टेशन की ओर चला...मामी और मौसी की साथ-साथ एंट्री हुई...मौसी तो भारी-भरकम सामान लेकर आई थी।सब खाने पीने का सामान था..हम सब के लिए ही, आचार-खटाई...
अगर फाइन कटता तो लगभग आठ सौ का चूना लगता...सोच लिया था की फाइन कटाने हैं। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं...ट्रेन में पहुँचने के बाद आराम मिला...वैसे कोई परेशानी नहीं हुई पर रास्ते भर टिकट बाबू के लिए दिल से आरती निकलती रही...मैं मेरठ पहुँच गया और मामी दिल्ली...पर अभी भी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा हूँ की लापरवाही मेरी है या टिकट बाबू की...अब तो मुझे भी छाँछ फूँक-फूँक कर पीना है दूध का जला जो हूँ। लापरवाह.....किसे कहूँ खुद को या टिकट बाबू को....?