गुरुवार, 22 मई 2014
''विजय ''..आयोजन अथवा यत्न
बहुत सारी बातेँ विपद के गर्भ मेँ होती हैँ। उनका होना या न होना सब भविष्य के कपाट मेँ बंद होता है, हाँ अपने भविष्य मेँ झाँकने की इच्छा सबकी होती है मेरी भी है। दर्शक हूँ कुछ आयोजन नहीँ करुँगा क्योँकि दर्शक दीर्घा मेँ बैठने की एक बड़ी कीमत चुकायी है, आयोजन करुँ भी तो क्योँ करुँ? प्रसंगिकता क्या होगी मेरे यत्न की? पूर्वजोँ के सम्मिलित स्वर रहे हैँ-" विपद के लिए आयोजन कैसा?"
जो हो रहा है उसे होने दो कोई आयोजन मत करो। दूसरोँ पर न सही पर अपने पर विश्वास करो। यदि परमशक्ति की सत्ता है तो तुम भी सर्मथ हो, कोई ऐसी बाधा नहीँ है जिसे मानव पार न कर सके। अवरोध आते हैँ पथ कितना भी सरल क्यो न हो; कभी छलाँग लगाना पड़ता है तो कभी राहेँ बनानी पड़ती हैँ। विपरीत परिस्थितियोँ मेँ भी जो अड़िग रहता है वही वीर है और ये दुनिया वीरोँ की है, वीर बनने के लिए यदि कभी कायर भी होना पड़े तो हो जाओ, भगवान राम ने भी कायरता को हथियार बनाया था और भगवान कृष्ण ने भी फिर हम तो सामान्य मानव हैँ, कायर बनने मेँ क्या हर्ज है।
विजेता बनना अनिवार्य है चाहे आप को विजय रण छोड़ कर मिली हो या लड़कर। विजेता का बस वर्तमान होता है, उसके अतीत को कोई नहीँ कुरेदता। हाँ!, कुछ लोग होते हैँ जिनका काम ही होता है इधर-उधर झाँकना, पर उनकी ताक-झांक बस रंगमंच के विदुषक के स्तर की होती है जो बस लोगोँ का दिल बहलाती है।
विजेता बनने का आयोजन मत करो बस यत्न करो, आयोजन वे करते हैँ जिन्हेँ बस जीवन को घसीटना होता है और यत्न वे करते हैँ जिन्हे नायक बनना होता है। लोग कहते हैँ कि मानव योनि विधाता की श्रेष्ठतम कृति है, फिर मानव होकर दु:ख कैसा-अवसाद कैसा? जीवन मेँ उतार-चढ़ाव आते हैँ। कभी-कभी तो सूर्य का रथ भी रुक जाता है, हर पथ पर विँध्य पर्वत अवरोध बन खड़ा है जिसे पार करना पड़ता है। आप मेँ दृढ़ इच्छा है तो चारोँ दिशाओँ मेँ आपके सहायतार्थ अगस्त्य ऋषि हैँ, जिनके एक आदेश से गिरिराज झुक जाते हैँ, और फिर कभी नहीँ उठते। आपके संकल्प ही अगस्त्य ऋषि हैँ और आप स्वयं सूर्य हैं, बाधाएं विंध्य पर्वत इनसे ऐसे पार पाइए की फिर कभी आपका मार्ग रोकने का साहस इनमे न रहे।
कीर्ति-अपकीर्ती, यश-अपयश तो जीवित होने के साक्ष्य हैँ इनसे कैसा व्यथित होना? , इन्हे ही तो हरा कर जीतना है। कुछ भी असाध्य नहीं है, ''जहाँ चाह है वहीँ राह है।'' हमारे धर्म ग्रंथों में भी लिखा है- ''वीर भोग्या वसुंधरा'' ...लड़ो और जीतो.. दुनिया में ऐसी कोई शक्ति नहीं जो सत् संकल्पों के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर पाये..जीवन का एक और सत्य- ''कभी कोई हारता या जीतता नहीं'', दोनों स्थितियां बस छडिक हैं..मज़ा लड़ाई में है हार या जीत में नहीं..जीवन के दो दशक मैंने देख लिए हैं थोड़ी सी समझ मुझमे अब आ गयी है, बस इस जिंदगी से इतना सीखा है कि, '' हारो तो हतोत्साहित न हो, और जीतो तो महत्वाकांक्षी न हो ''। परेशानियां परछाईं को भी न पता चले, गम को मुस्कराहट में दबाना सीखो, और खुशियां बिखेरने की कोशिश करो...मस्त रहो-व्यस्त रहो...खुशियों के खजाने की बस यही चाभी है......
शनिवार, 3 मई 2014
चुनाव (एक उम्मीद )
आज-कल चुनावों का दौर है, भले ही यह महोत्सव अपने समापन की ओर बढ़ रहा हो लेकिन दर्शकों का उत्साह अपने चरम पर है. चुनाव के नतीजे का इंतज़ार सबको है. न्यूज़ चैनलों पर नेताओं की वर्षों पुरानी घिसी-पिटी तस्वीरें रिपीट की जा रही हैं. कहीं राजनाथ सिंह तो कहीं सोनिया गांधी, बाकियों का तो नाम लेना भी गुनाह है. अरविन्द केजरीवाल भी कभी -कभी दिख जाते हैं. भला हो दिग्गविजय सिंह जी का जिन्होंने मीडिया का ध्यान चुनाव से थोड़ा भटकाया. सिंह साहब कितने भले आदमी हैं ये तो देश की जनता जानती ही है. समय-समय पर बम फोड़ते रहते हैं. कांग्रेस जिस तरह से मीडिया से बाहर हुई थी दिग्गविजय जी ने फिर से ध्यान आकर्षित कराया और करें भी क्यों न पार्टी के स्वघोषित संकटमोचन जो हैं.
नेताओं की एक ख़ास बात है कि इनकी जनता से मिलने की इच्छा बलवती बस चुनावों में होती है, बाकी दिनों में विदेशी दौरों से फुर्सत ही कब मिलती है जो ये जनता को याद करें. गलती नेताओं की नहीं है सत्ता पाकर देवराज इन्द्र भगवान को भूल जाते थे नेता तो स्वभाव से ही एहसान फरामोश होता है. चुनाव आते ही सारे नेता अपने-अपने कब्रों से भाग कर बहार आते हैं जनता की सेवा करने. भोली -भली जनता नेताओं को इतने दिनों बाद देखकर पहचान नहीं पाती की ये वही नेता है जो पिछले चुनाव में ठग के गया था और इस बार फिर आ गया है.
चुनाव में नेताओं के पर लग जाते हैं, धरती और आसमान एक लगता है इन्हे, फिर इनके लिए क्या कश्मीर क्या कन्याकुमारी? पालक झपकते ही मीलों की दूरियाँ पल भर में तय हो जाती हैं. इन्हे तो भाग-दौड़ से आराम मिलता है पर जनता तबाह हो जाती है इनके भाग-दौड़ से. कभी यहाँ सभा कभी वहां सभा. इन सभाओं के चक्कर में जनता घनचक्कर बन जाती है. मासूम जनता जो हर बार छलि जाती है, जिसका विश्वास हर बार टूटता है उसकी भी चुनाव से उम्मीद होती है कि इस बार परिवर्तन होगा. कोई नया चेहरा देखने को मिलेगा पर अफ़सोस कि परिवर्तन की जगह पुनरावृत्ति होती है. पूरा विश्व जानता है की भारतियों की प्रवित्ति ही ''पुनरावृत्ति'' है.
सबसे बड़ी विडम्बना है की हम हमेशा उद्धारक खोजते हैं बनते नहीं. उद्धारक कभी कांग्रेस होती हैं तो कभी भारतीय जानता पार्टी. तीसरा मोर्चा इस लायक नहीं हैं कि उसे सत्ता दिया जाए. हर चुनाव का एक चेहरा होता हैं, और ये चेहरे बदलते रहते हैं. स्थिर होता हैं यदि कुछ तो वह है पार्टियों की नीयत. कभी दुर्घटना से मनमोहन सिंह जी प्रधान मंत्री बन जाते हैं तो दुर्भाग्य से लाल कृष्ण आडवाणी जी ''पी.एम इन वेटिंग'' ही रह जाते हैं. खैर लोकतंत्र में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं.
इस बार के चुनाव में कुछ नए चेहरे हैं. कांग्रेस तो खुद में एक नकाबपोश है जो चेहरा कभी दिखाती ही नहीं. सब कुछ इस पार्टी में दुर्घटना से होता है. भाजपा ने इस बार कुछ नया किया है. नरेंद्र मोदी इस बार हर जगह दिख रहे हैं. गुजरात नरेश यूँ तो खुद को चाय बेचने वाला कहते हैं, ये भी उनकी अदा है जो इन दिनों खूब पसंद किया जा रही है. जिस तरह से उनकी मार्केटिंग की गयी है लगता है की ''अबकी बार-मोदी सरकार''. मतलब साफ़ है कि इस बार सरकार भाजपा कि नहीं ''मोदी'' की बनेगी. विकास पुरुष से लेकर युगपुरुष तक सब कुछ जानता इन्हे मान रही है. मोदी के नाम पर तो लाठियां तन जा रही है. मानो मोदी जी भगवान हों, और अधर्म का नाश करने के लिए संकल्पित हो गए हों. हांकने में तो इनसे बढ़कर कोई नहीं, ''वीर-गाथा'' काल के कवियों को भी इन्हे सुन के लज्जा आ जाए 'हाय! हम तो इनके सामने एक पल भी नहीं ठहर सकते.
कांग्रेस की बात की जाए तो इन्होने इतने घोटाले किये हैं कि जनता इन्हे कम से कम दस साल तो सत्ता में आने नहीं देगी. इनके अक्षमता से जनता कितनी व्यथित है यह कहने कि जरुरत नहीं है. ऊपर से मंहगाई, सरकार गिराने के लिए ये अकेले बहुत काफी है.
जनता व्यथित हो जाए कहाँ? आम आदमी पार्टी बनी थी, लोकतंत्र के लिए एक आशा की किरण बनकर आई, एक साल के भीतर बनी पार्टी ने दिल्ली में सरकार बना लिया, पर राजनीतिक अनुभवहीनता और पार्टी के सदस्यों का आपसी अंतरकलह इस पार्टी को भी ले डूबा. अरविन्द केजरीवाल व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छे और ईमानदार छवि के व्यक्ति हैं किन्तु इनके सहयोगियों के अल्पबुद्धिता के कारण राष्ट्रीय स्तर पर इनका आना असंभव है. देश कैसे सुधारेंगे जब असली कचरा इनके पार्टी में है, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र और न जाने कितने नाम जिनके बोलने से इस पार्टी कि खूब थू-थू हुई पहले उन्हें सुधारें फिर देश सुधारने के लिए अग्रषर हों .
जनता बेवक़ूफ़ नहीं है फिर भी बार-बार बेवक़ूफ़ बनती है, कभी मज़हब के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर यहाँ सरकार बनती है. समझ में ये नहीं आता कि भारतियों को गलत और सही क्यों नहीं दिखता? वोट डालते हैं या कोटा पूरा करते हैं? भविष्य से बहुत उम्मीदें हैं, देखते हैं कि हम गलतियां दोहराना बंद करते हैं या गलतियां अब हमारी मनोवृत्ति बन गयी हैं?
नेताओं की एक ख़ास बात है कि इनकी जनता से मिलने की इच्छा बलवती बस चुनावों में होती है, बाकी दिनों में विदेशी दौरों से फुर्सत ही कब मिलती है जो ये जनता को याद करें. गलती नेताओं की नहीं है सत्ता पाकर देवराज इन्द्र भगवान को भूल जाते थे नेता तो स्वभाव से ही एहसान फरामोश होता है. चुनाव आते ही सारे नेता अपने-अपने कब्रों से भाग कर बहार आते हैं जनता की सेवा करने. भोली -भली जनता नेताओं को इतने दिनों बाद देखकर पहचान नहीं पाती की ये वही नेता है जो पिछले चुनाव में ठग के गया था और इस बार फिर आ गया है.
चुनाव में नेताओं के पर लग जाते हैं, धरती और आसमान एक लगता है इन्हे, फिर इनके लिए क्या कश्मीर क्या कन्याकुमारी? पालक झपकते ही मीलों की दूरियाँ पल भर में तय हो जाती हैं. इन्हे तो भाग-दौड़ से आराम मिलता है पर जनता तबाह हो जाती है इनके भाग-दौड़ से. कभी यहाँ सभा कभी वहां सभा. इन सभाओं के चक्कर में जनता घनचक्कर बन जाती है. मासूम जनता जो हर बार छलि जाती है, जिसका विश्वास हर बार टूटता है उसकी भी चुनाव से उम्मीद होती है कि इस बार परिवर्तन होगा. कोई नया चेहरा देखने को मिलेगा पर अफ़सोस कि परिवर्तन की जगह पुनरावृत्ति होती है. पूरा विश्व जानता है की भारतियों की प्रवित्ति ही ''पुनरावृत्ति'' है.
सबसे बड़ी विडम्बना है की हम हमेशा उद्धारक खोजते हैं बनते नहीं. उद्धारक कभी कांग्रेस होती हैं तो कभी भारतीय जानता पार्टी. तीसरा मोर्चा इस लायक नहीं हैं कि उसे सत्ता दिया जाए. हर चुनाव का एक चेहरा होता हैं, और ये चेहरे बदलते रहते हैं. स्थिर होता हैं यदि कुछ तो वह है पार्टियों की नीयत. कभी दुर्घटना से मनमोहन सिंह जी प्रधान मंत्री बन जाते हैं तो दुर्भाग्य से लाल कृष्ण आडवाणी जी ''पी.एम इन वेटिंग'' ही रह जाते हैं. खैर लोकतंत्र में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं.
इस बार के चुनाव में कुछ नए चेहरे हैं. कांग्रेस तो खुद में एक नकाबपोश है जो चेहरा कभी दिखाती ही नहीं. सब कुछ इस पार्टी में दुर्घटना से होता है. भाजपा ने इस बार कुछ नया किया है. नरेंद्र मोदी इस बार हर जगह दिख रहे हैं. गुजरात नरेश यूँ तो खुद को चाय बेचने वाला कहते हैं, ये भी उनकी अदा है जो इन दिनों खूब पसंद किया जा रही है. जिस तरह से उनकी मार्केटिंग की गयी है लगता है की ''अबकी बार-मोदी सरकार''. मतलब साफ़ है कि इस बार सरकार भाजपा कि नहीं ''मोदी'' की बनेगी. विकास पुरुष से लेकर युगपुरुष तक सब कुछ जानता इन्हे मान रही है. मोदी के नाम पर तो लाठियां तन जा रही है. मानो मोदी जी भगवान हों, और अधर्म का नाश करने के लिए संकल्पित हो गए हों. हांकने में तो इनसे बढ़कर कोई नहीं, ''वीर-गाथा'' काल के कवियों को भी इन्हे सुन के लज्जा आ जाए 'हाय! हम तो इनके सामने एक पल भी नहीं ठहर सकते.
कांग्रेस की बात की जाए तो इन्होने इतने घोटाले किये हैं कि जनता इन्हे कम से कम दस साल तो सत्ता में आने नहीं देगी. इनके अक्षमता से जनता कितनी व्यथित है यह कहने कि जरुरत नहीं है. ऊपर से मंहगाई, सरकार गिराने के लिए ये अकेले बहुत काफी है.
जनता व्यथित हो जाए कहाँ? आम आदमी पार्टी बनी थी, लोकतंत्र के लिए एक आशा की किरण बनकर आई, एक साल के भीतर बनी पार्टी ने दिल्ली में सरकार बना लिया, पर राजनीतिक अनुभवहीनता और पार्टी के सदस्यों का आपसी अंतरकलह इस पार्टी को भी ले डूबा. अरविन्द केजरीवाल व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छे और ईमानदार छवि के व्यक्ति हैं किन्तु इनके सहयोगियों के अल्पबुद्धिता के कारण राष्ट्रीय स्तर पर इनका आना असंभव है. देश कैसे सुधारेंगे जब असली कचरा इनके पार्टी में है, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र और न जाने कितने नाम जिनके बोलने से इस पार्टी कि खूब थू-थू हुई पहले उन्हें सुधारें फिर देश सुधारने के लिए अग्रषर हों .
जनता बेवक़ूफ़ नहीं है फिर भी बार-बार बेवक़ूफ़ बनती है, कभी मज़हब के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर यहाँ सरकार बनती है. समझ में ये नहीं आता कि भारतियों को गलत और सही क्यों नहीं दिखता? वोट डालते हैं या कोटा पूरा करते हैं? भविष्य से बहुत उम्मीदें हैं, देखते हैं कि हम गलतियां दोहराना बंद करते हैं या गलतियां अब हमारी मनोवृत्ति बन गयी हैं?
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