शुक्रवार, 29 मार्च 2019

ईश्वर चाहता था कि वह मुक्त हो ईश्वरत्व से!



झरने इंतज़ार में थे
कोई उन्हें रुकने को कहेगा
बूंदें चाहती थीं
धरती पर न गिरें
सूरज स्वार्थी होना चाहता था
एक दिन के लिए
चांद चाहता था
उसे न मिले उधार की रोशनी,
पेड़ की बहुत इच्छा थी
कि
इक रोज़ वह अपना फल खाए
गाय अपना ही दूध पीने के लिए
कई दिनों से तड़प रही थी
नदियों की इच्छा थी
कि एक दिन के लिए वे तालाब हो जाएं
समंदर चाहता था
कि
कोई विजातीय धारा उसमें न गिरे,
फगुना की इच्छा थी
कि
एक दिन के लिए ही सही
वह सभी रिश्तों से पार पा ले
माई, बहिन, भौजाई, ननद, मेहरारू
के विशेषणों से इतर
एक दिन वह बस फगुना
ही रहे,
मजदूर चाहते थे
कि
वे ख़ुद अपने मालिक बन जाएं,
प्रथाएं चाहती थीं
कि
उनकी ओट में
किसी की
सिसकियां न सुनाई दें,
आसमान
एक दिन के लिए
सिकुड़ना चाहता था,
धरती चाहती थी
कि
उसकी गोद में
लुटेरों, डाकुओं, चोरों, और बलात्कारियों
को न ज़बरन दफ़नाया जाए,
चाहती तो
सुनरकी भी थी
ब्याह हो जाए बड़के बखरिया में
पर
चाहने से क्या होता है
तन से मनचाहा हमसफ़र तो नहीं मिलता
उसके लिए पैदा होना पड़ता है
कुलीन बनकर,
चाह तो भगवान भी रहा है
उसके सिर न मढ़े जाएं
होनी, अनहोनी करने और कराने के बेतुके कलंक
वह चाहता है कि
मानस की पंक्तियों से कोई मिटा दे
होइहि सोइ जो राम रचि राखा
वह चाहता है कि कोई झुठला दे
वृक्ष कबहु न फल भखें वाला दोहा
उसका भी मन करता है
धरती की तमाम प्रत्याशाओं, वर्जनाओं, कुंठाओं
और
महत्वाकांक्षाओं
के दोष उस पर न थोपे जाएं
लेकिन
चाह तो उसकी भी अधूरी है
विवश है वह
अपने निर्माताओं के रचे गए व्यूह में फंसकर,
एक दिन के लिए वह भी चाहता है
मुक्त होना
इस धारणा से
कि
वह ईश्वर है।

रविवार, 24 मार्च 2019

यार! अब मन न कहीं लगे

 

यार! अब मन न कहीं लगे।

अपलक देखूँ, व्योम निहारूँ,
आतुर होकर तुम्हें पुकारूँ;
अहो! हुए तुम इतने निष्ठुर,
तुम्हारी, चुप्पी क्यों न खले?

सारे वचन तोड़ बैठे हो,
अपने नयन फोड़ बैठे हो;
किसने प्रियतम मति है फेरी
अकिंचन, हम रह गए ठगे!

कल तक सब कुछ उत्सवमय था,
जीवन कितना सुमधुर लय था;
हुए पराये तुम पल भर में,
बरसों, आधी नींद जगे।

प्यार! अब मन न कहीं लगे।

बुधवार, 6 मार्च 2019

जिन्हें चम्बल में रहना था वे अब संसद में रहते हैं

जिन्हें चम्बल में रहना था वे अब संसद में रहते हैं।
किसी ने ठीक ही कहा है।

हमारे जनप्रतिनिधि ऐसे हैं। इन्हें जनता ने अपना प्रतिनिधि बनाकर संसद और विधानसभा में भेजा है।
अब वक़्त आ गया है इन्हें जेल भेजा जाए। अपने-अपने कार्यों के अनुरूप। लोकतांत्रिक देश में ये आज़ाद घूमने लायक तो नहीं हैं।

संत कबीर नगर में जिला योजना की बैठक हो रही है।
बैठक के दौरान भारतीय जनता पार्टी के सांसद शरद त्रिपाठी ने अपनी ही पार्टी के विधायक राकेश सिंह को जूतों से पीट डाला।

पहले बहस शुरू हुई, फिर हाथापाई। फिर गालियां और कुटाई साथ साथ।

और जनता इनसे उम्मीद करती है ये विकास करने के लिए बैठे हैं। ये क्रेडिटखोर लोग हैं, इन्हें बस क्रेडिट चाहिए सीवी मजबूत करने के लिए।

अगर बीजेपी में थोड़ी भी शर्म बची होगी तो इन दोनों महानुभावों को पार्टी से बाहर फेंक देगी। साथ ही दूसरी पार्टियों को भी इन्हें लपकने में उत्सुकता नहीं दिखाई जानी चाहिए।

लोकतंत्र के काले धब्बे हैं ऐसे नेता। इनका सामाजिक बहिष्कार होना चाहिये।

(वीडियो सुनने से पहले हेडफोन इस्तेमाल करें, और बच्चे इस पोस्ट से दूर रहें।)

रविवार, 3 मार्च 2019

गुलामों में कभी कोई बुद्ध हुआ है क्या?


हमारा वक्त बिक चुका है. एक-एक पल किसी ने खरीद रखा है. किसी की आधीनता के बदले हमें कागज के कुछ टुकड़े मिलते हैं, जिनसे हमारी थोड़ी बहुत जरूरतें पूरी होती हैं. बस पेट पालने भर तक.

पेट सागर है....भर नहीं सकता. आजीवन रिक्त रहता है. ऐसा मैं नहीं 'कड़जाही काकी' कह के गई है.

कई बार लगता है कि भाग जाना चहिए हमें कहीं. अपने-अपने दायित्वों से. क्या ही कर लेंगे हम दुनिया में रहकर या दायित्व निभाकर.

पलायन इतना भी बुरा है क्या.

पर जिन्हें हम छोड़कर भागते हैं वे ज्यादा याद आते हैं. भागना थोड़ा मुश्किल भी है. हर कोई सिद्धार्थ तो है नहीं जिसे भागकर बोध हो जाएगा.

आनंद तो मिलेगा नहीं. मिलते ही नहीं.

भला बुद्ध का क्या होता अगर उन्हें आनंद मिला न होता.

दरअसल महत्ता तो बस आनंद की है. मैं आनंद खोज रहा हूं.

.....काश कह सकता.

आनंद की तलाश बिना स्वतंत्रता के. स्वतंत्रता क्या स्वायत्तता भी. गुलामों के ज्ञान पर भरोसा कौन करे.

कौन कहना है कि दास प्रथा खत्म हुई है. खत्म हो ही नहीं सकती. क्योंकि कुछ भी खत्म नहीं हो सकता. सब सतत् है. अवस्था परिवर्तन ही शाश्वत है. ऐसा मैं नहीं मानता, पर पुरखे मानते हैं.

पुरखे गलत हैं इसे मैं साबित नहीं कर सकता. सही हैं इसे भी.

मन यही कह रहा है कि गुलामों के पास कोई ज्ञान नहीं होता सिवाय दायित्व बोध के.

गले में पट्टा है.....ओखरी में मूड़ा है...पहरुआ गिनते रहो...जूझतो रहो....सवाल यही है कि गुलामों का क्या कोई आनंद हुआ है. अगर हुआ है तो जानने की उत्कंठा है.

कई बार यह भी लगता है कि बंधनों की गुलामी से भागे हुए लोग ही बुद्ध हुए हैं. पता नहीं. कौन जाने. सबकी अपनी-अपनी मंजिल. हमसे क्या.

जेकर मूड़ा ओखरी में हो, तेहि गिनै.

हमसे का.


(फोटो क्रेडिट- pixabay.com)




-अभिषेक शुक्ल.