किसी शायर ने ठीक ही कहा है-
ज़िंदगी क्या है
फ़कत मौत का टलते रहना.
वक़्त कई बार इसका एहसास भी करा देता है. सांसे कब, किसकी कितनी देर टिकी रहेंगी इसका अंदाज़ा न सांस लेने वाले को होता है न ही साथ रहने वाले को. क़ुदरत है, कुछ रहस्यों पर उसका एकाधिकार है जिसे सुलझाने का हक बस उसे ही है. कोई उसमें चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता. डॉक्टर, वैद्य, वैज्ञानिक सब छलावा है.
श्रीदेवी नहीं रहीं. ब्लैक एंड व्हाइट टीवी के ज़माने में फिल्म देखना किसी त्योहार की तरह होता था. बैटरी और चिमटी के सहारे फिल्म देखने वाली पीढ़ी श्रीदेवी की फैन क्यों न हो? इतनी खूबसूरत निगाहें उनके अलावा किसकी हो सकती हैं? टीवी पर श्रीदेवी की फिल्म आ रही हो तो सबके आंखों की चमक बढ़ जाती थी. महतो काका, गंगाराम काका, कपूर भाई या मुड़लाही काकी सबको श्रीदेवी ही पसंद थीं.
एक ज़माना आया जब सिनेमा हॉल घर-घर खुलने लगा. मतलब पर्दा वाला वीडियो. थिएटर का संसार, सीधे आपके द्वार. जनरेटर भले ही कितना खटर-पटर करे लेकिन पर्दे पर अगर श्रीदेवी हों तो जनरेटर की आवाज भी बांसुरी जैसी लगती थी.
पर्दे वाले वीडियो पर पहली फिल्म मैंने देखी थी निगाहें. रंगीन पर्दा था. श्रीदेवी थीं. उन्हें ही देखता रह गया बस. प्यार हो गया था तभी. खैर उसके बाद दो फिल्में और चली थीं, मीनाक्षी की नाचे नागिन गली-गली और माधुरी की हम आपके हैं कौन.
माधुरी, मीनाक्षी शेषाद्री और श्रीदेवी. तीनों से एक ही दिन प्यार हो गया था. अब तक प्यार है. श्रीदेवी मुझे पूर्ण लगती थीं. ख़ूबसूरती की परिभाषाओं में न सिमटने वाली. अद्भुत, अद्वितीय. उनसा कोई न था न होगा.
उनकी आख़िरी फ़िल्म मैंने देखी थी इंग्लिश-विंग्लिश. पर्दे पर वापसी धमाकेदार थी. धाराप्रवाह अंग्रेज़ी बोलने वाली अभिनेत्री को इस फ़िल्म में देख कर लगा ही नहीं कि उसे अंग्रेज़ी आती भी होगी. लड्डू बनाने वाली घरेलू महिला, पति के अहंकार और अपमान के बीच लटकती-झूलती श्रीदेवी. उनसे बेहतर कोई और इस फ़िल्म में शायद ही फ़िट होता.
मैं तेरी दुश्मन-दुश्मन तू मेरा. इसे देखने के बाद कुछ दिन तक मैं भी उन्हें इच्छाधारी नागिन ही समझता था. थीं भी वह कुछ रहस्यमयी सी.
उनकी अदाकारी कम देख पाया उन्हें ही देखता रहा. मेरे लिए उनकी ख़ूबसूरती अभिनय पर भारी पड़ गई थी.
श्रीदेवी अब नहीं हैं. यह सच है. ऑफ़िस आते वक़्त नेट ऑन किया तो सबसे पहले दिखा नहीं रहीं श्रीदेवी. ये ब्रेकिंग सिस्टम भी न अजीब सी चीज़ है. अफ़वाह से पहले सच की ख़बर मिल जाती है. सोचने का भी मौक़ा नहीं मिला कि यह ख़बर अफ़वाह है.
मौत भी अजीब सी मेहमान है. बिना बुलाए आ जाती है. मरने पर रोना-धोना कौन करे. हैदर अली आतिश ने ठीक ही कहा है-
उठ गई हैं सामने से कैसी कैसी सूरतें
रोइए किस के लिए किस किस का मातम कीजिए.
- अभिषेक शुक्ल