गुरुवार, 9 जनवरी 2014

हैरत

थक गया  हूँ 
   जीवन के उतार-चढ़ाव 
देखकर,
खुशियों पर भारी
पड़ते
गम देखकर,
बिन बारिश के
जहाँ
नम देखकर,
हैवानों कि बस्ती  में
इंसान
कम देखकर,
खुशियों से लबरेज़
गम देखकर
   थक सा गया हुँ मैं.
क्या है होना?
क्या है न होना?
कुछ भी पता नहीं;
कौन अपना
      कौन पराया
अनुमान भी नहीं,
अपने ही अक्स
की
पहचान नहीं,
बीतते लम्हे
छूटते रिश्ते 
बेवजह के जज्बात
उलझते रास्ते,
 सब कुछ अनजाना
फिर भी 
सब कुछ 
खंगालने  की  कोशिश,
एक  कसक 
कुछ  न  कर  पाने  की.
हैरत  में  हूँ
ऐ जिंदगी तू ही बता 
   तू है क्या?

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