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रविवार, 31 दिसंबर 2017

अलविदा 2017. तुमसे कोई शिकायत नहीं



डायरी के कई पेज कोरे रह गए। कभी ऐसा होता नहीं था। जब लिखने के धंधे में नहीं था तो रोज़ लिखता था, जब से लिखना धंधा बना अपना लिखा हुआ कुछ भी पढ़ने का मन नहीं करता। ऐसा लगता है कि लिखना छूट गया है। अख़बार, पत्रिका सब से कनेक्शन कट गया है। पढ़ने से भी, छापने से भी। जब लिखने के पैसे नहीं मिलते थे तब सार्थक लिखता था। अब मामला थोड़ा अजीब है। कोशिश रहेगी पहले की तरह लिखना शुरू हो जाये। अब ब्लॉग ख़ाली नहीं रहेगा।
कमाने के चक्कर में जो गंवाया है उसकी वापसी हो जाये।
मिलते हैं........कुछ अच्छा लेकर।

2017.......ज़िंदाबाद।।

शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017

प्रेम इक अनसुलझी गुत्थी है

शब्दों ने अपने अर्थ
 खो दिए हैं
अब न तुम
अपने मन की कह पाती हो
न मैं
तुम्हारी भावनाएं समझ पाता हूं
क्योंकि
 दुनिया के किसी व्याकरण में
इतना सामर्थ्य नहीं
कि
सुलझा दे
हमारे नासमझी के द्वंद्व को.
अब न तुम कहो
न मुझे कुछ कहने दो
हमारे बीच
जो है
 उसे भ्रम कहते हैं
न तुम मुझे समझो
न मैं तुम्हें समझूं
शब्द, शब्द नहीं
भ्रम हैं.

#अधिकतम_मैं

शनिवार, 7 अक्टूबर 2017

मधुशाला में लॉक लगाओ भरो क्षीर से तुम प्याला




                                           मधुशाला में लॉक लगाओ भरो क्षीर से तुम प्याला
                                           औ उसमें हॉर्लिक्स मिलाकर पीते रहो जैसे हाला।
                                           बल बुद्धि विद्या तीनों बढ़ेंगी पर ये याद सदा रखना
                                          भारत माता की जय बोलो खुलवाओ तुम गौशाला।।


( सपने में बच्चन जी आए थे ये कहने कि दोस्त, मैंने मधुशाला लिखी है और तुमसे गौशाला भी लिखी नहीं जा रही...यहमा हमार कवनो दोष नाहीं है..सब बच्चन जी कहिन है सपना मा, औ हां! इ कप हमार नाहीं है)

सोमवार, 25 सितंबर 2017

हार से भय खा रहे हैं

जीत के उन्माद में क्यों, हार से भय खा रहे हैं
सत्य से इतनी वितृष्णा, गान मिथ्या गा रहे हैं,
किस विधाता ने रचा है, भ्रम की ऐसी गति अकिंचन
झूठ के रथ पर धरे पग, सत्य पथ को जा रहे हैं।




















युक्ति कोई आज कह दो, मुक्ति से दो हाथ कर लूं
प्राण जो अटके युगों से, आज उनसे होंठ तर लूं,
सृष्टि के हर यम नियम से, बैर अपना है सनातन
तुम कहो जीवन सुधा दूं तुम कहो तो प्राण हर लूं।।

- अभिषेक शुक्ल

रविवार, 24 सितंबर 2017

छात्राओं को बर्बरता से पीट क्या साबित करना चाह रहे हैं बीएचयू के वीसी?

21 सिंतबर को शाम क़रीब 6 बजे के आसपास भारत कला भवन के सामने एक लड़की के साथ कुछ मनचले छेड़छाड़ करते हैं। लड़के बदतमीज़ी की सारी हदें पार कर जाते हैं। लड़की के कपड़ों के अंदर हाथ डालते हैं। लड़की चिल्लाती है। सुरक्षा गार्ड पास में होते हैं पर लड़की की चीख़ सुनकर भी अनसुना कर देते हैं। थोड़ी ही दूर पर प्राक्टोरियल बोर्ड के कुछ सदस्य भी बैठे होते हैं। लड़की को चिल्लाते देखते हैं फिर भी सामने नहीं आते हैं।

ये सब तब हुआ जब रात का सन्नाटा भी नहीं पसरा था। लोगों की आवाजाही भी चालू थी। हमेशा की तरह नामर्द भीड़ क्यों कुछ बोले। कोई भीड़ की बहन थोड़े ही चिल्ला रही थी।

जहां की यह घटना है वहां से वीसी का चैंबर ज़्यादा दूर नहीं है। लड़की जब प्राक्टोरियल बोर्ड के पास शिकायत लेकर गई तो वहां किसी ने उसकी शिकायत नहीं सुनी। वार्डन से आपबीती बताने पर उसे ही इस घटना के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया गया। वार्डन का कहना था कि रात में क्यों तुम टहल रही थी।
मतलब कैंपस में लड़कियों को सुरक्षित रहने के लिए क़ैदखाने में रहना होगा क्योंकि प्रशासन उनकी सुरक्षा कर पाने में नाकाम है। उन्हें अगर सुरक्षित रहना है तो हॉस्टल नुमा जेल में दिन ढलते ही घुस जाना होगा, क्योंकि बाहर मनचलों पर लगाम लगा पाने में वीसी की सेना असमर्थ है।

मेन गेट के पास तीन दिन से लड़कियां विरोध प्रदर्शन कर रही हैं। कुलपति आवास की घेराई के लिए जब स्टूडेंट आगे बढ़े तो सुरक्षा कर्मियों ने उन पर जम कर लाठियां बरसाईं। घटना शनिवार क़रीब 10 बजे रात की है।

कुछ अराजक तत्वों ने आगजनी व पथराव शुरू किया तो वीसी ने पूरे कैंपस को पुलिस छावनी में बदल दिया। ये हिंसक प्रदर्शन लड़कियों ने नहीं किया था। लेकिन सज़ा उन्हें भी मिली।

अंधाधुंध हवाई फ़ायरिंग देखकर आसमान से बीएचयू को खड़ा करने वाले लोग भी शर्म से गड़ गए होंगे। बीएचयू में चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात है। सुनने में आ रहा है कि 20 थानों की फोर्स, 5 कंपनी पीएसी, हथियारों के साथ कैंपस में बुलाई गई है। कैंपस में धारा 144 लग गई है।
जहां पढ़ाई होनी थी वहां कुटाई हो रही है। लड़कियां इकट्ठी होकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रही थीं तो उन पर लाठी चार्ज कर दिया गया।

जिन्हें डराना था उन्हें नहीं डराया जा रहा है। जो शोषित हैं ये सारा प्रदर्शन उनके लिए है। कुछ बोलोगे तो कूटे जाओगे। हम लोकतंत्र में नहीं लोकतंत्र के वहम में जीते हैं। हर सरकार विरोध दबाने के लिए पुलिस की मदद लेती है। ऐसे कई अवसर आए हैं जब पुलिस ने साबित किया है कि वह आतंकियों से कम अराजक नहीं है।

16 दिसंबर 2012, निर्भाया कांड के विरोध में जब इडिया गेट पर 21 दिसंबर को लोग साथ आए थे तो उन पर आंसू गैस के गोले बरसाए गए थे। सैकड़ों लोग घायल हुए थे। पुलिस की अंधाधुंध लठबाज़ी किसी को नहीं पहचानती। तब कांग्रेस थी अब बीजेपी है। एक सेक्युलर थी दूसरी कट्टर है। पर अंतर कुछ भी नहीं है। सिर्फ़ सरकार चलाने वाले चेहरे बदल गए हैं तरीक़ा सबके पास वही है। जो सुने न उसे ठोक दो।

एक बात तो साफ़ है कि लड़कियां रात में निकलें और उनके साथ कुछ अनहोनी हो तो ज़िम्मेदारी उनकी ही होती है। इस धारणा को लोगों ने घोंट के पी लिया है। इससे पहले भी त्रिवेणी हॉस्टल के पास लड़कियों से छेड़छाड़ की घटनाएं सामने आईं हैं। शिकायतों को प्रशासन एक कान से सुनता है दूसरे से निकाल देता है। बीएचयू कैंपस में अब गुंडे सरेआम घूमते हैं। जैसे वीसी ने इन्हें अभयदान दे दिया हो, तुम जी भर आतंक मचाओ हम तुम पर आंच तक नहीं आने देंगे।

रात में हुए एक राउंड लाठी चार्ज के बाद एसएसपी अमित कुमार दौरे पर आए। उनसे लोगों ने पूछा कि लाठी चार्ज किसके आदेश पर हुआ तो वे ज़िम्मेदारी लेने की जगह मुकर गए। उन्होंने कहा कि ऐसी किसी घटना के विषय में उन्हें कोई सूचना नहीं है। हम तो ख़ुद लाठी चार्ज के विषय में जानकारी लेने आए हैं। कैंपस में उनकी एंट्री रोकने की भरपूर कोशिश छात्राओं ने की लेकिन उनका क़ाफ़िला रुका नहीं।

एएसपी अमित कुमार के लौटते ही एक बार फिर बेरहमी से लाठी चार्ज किया गया। महिला महाविद्यालय का गेट बाहर से बंद कर दिया गया था जिसकी वजह से एक लड़की बाहर रह गई थी, उसे चार-चार लोगों ने बुरी तरह से मारा। रात में ही एक लड़की की तबियत ख़राब हो गई तो लड़कियों ने गेट तोड़कर किसी तरह उसे हॉस्पिटल पहुंचाया।

https://www.facebook.com/writabhishek/posts/1629716767103791

प्रधानमंत्री भी वहीं के दौरे पर थे। उन्हें इस घटना के बारे में जैसे कुछ पता ही न हो। ट्विटर, फ़ेसबुक पे तो तस्वीरें भी आ गईं हैं उनके पूजन-हवन की। छात्राओं की उम्मीदें भी भष्म हो रही हैं शायद प्रधान मंत्री जी न देख पा रहे हों। ‘पिंजड़े में रहो सुरक्षित रहोगी’ अच्छी टैगलाइन बनेगी। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ से अच्छा नारा तो यही है। इतनी कंट्रोवर्सी करा कर वीसी ने ख़ुद का नंबर तो सत्ता की नज़रों में बढ़ा ही लिया होगा।

( यह मेरी ग्राउंड रिपोर्टिंग नहीं है, यह रिपोर्ट वहां पढ़ने वाली महिला महाविद्यालय की एक छात्रा के साथ मेरी  बात चीत पर आधारित है)

साभार: लोकल डिब्बा

शुक्रवार, 22 सितंबर 2017

जब सवार हुईं आंटी जी पर माता जी

कॉलेज के आख़िरी दिनों में हमारे रहने का ठिकाना बना मेरठ के गंगानगर का एम ब्लॉक। जिस मकान में हम रहते थे उसी के बग़ल में एक आंटी जी रहती थीं।
आंटी जी लीडर थीं। कोई न कोई महिला फ़रियादी उनके घर के बाहर अरदास लगाने पहुंची रहती। सप्ताह के किसी एक दिन आंटी जी के घर पर मोहल्ले भर की महिलाओं का जमवाड़ा लगता था। शुरूआती दिनों में लगा कि हर हफ़्ते आंटी जी का कुनबा बढ़ रहा है तभी पड़ोसियों को इकट्ठा कर के आंटी जी सोहर गाती हैं लेकिन बाद में पता लगा कि आंटी जी पर माता जी सवार होती हैं।

आंटी जी वैसे तो बहुत सामान्य रहती थीं लेकिन जब देवी जी सवार होती थीं तो अंकल जी उन्हें महिषासुर नज़र आते थे। ग्लास-थाली, चौका-बेलन, जो भी आंटी जी के हाथ लगता, अंकल जी पर उसे चला देतीं। अंकल जी थे तो बहुत बड़े कांइया लेकिन लेकिन देवी मां के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा थी कि आंटी जी के हर प्रहार को दैवीय कृपा मानकर सह लेते थे।

आसपास की महिलाएं पूजा की थाली लेकर आंटी जी की आरती उतारने दौड़ी चली आती थीं। एक-दो-तीन-चार, मैया जी की जय-जयकार और अम्बे तू है जगदम्बे काली जैसे भजन सुनकर ही आंटी जी अपने विकराल रूप से सामान्य रूप में वापस आ पाती थीं।

आंटी जी से कोई ख़ास रिश्ता शुरूआती दिनों में नहीं बना लेकिन जैसे ही निखिल जी की एंट्री गंगानगर में हुई आंटी जी हम पर भी मेहरबान हो गईं। निखिल जी की हमसे दोस्ती, कॉलेज के आख़िरी महीनों में हुई। दिल्ली से रोज़ मेरठ पढ़ने आने वाले कॉलेज के इकलौते छात्र निखिल जी ही थे।

निखिल जी अद्धुत व्यक्तित्व के स्वामी हैं। सीधे, सच्चे और सरल। घनघोर गर्मी में भी निखिल जी फ़ुल शर्ट पहनते और पंखा बंद कर पढ़ाई करते। जब उनसे हम लोग पूछते फ़ैन क्यों ऑफ़ है तो निखिल जी मासूमियत से जवाब देते, ‘वो क्या है न कि पंखा शोर मचाता है तो पढ़ाई में डिस्टर्बेंस होती है, इसलिए मैं फ़ैन ऑफ़ करके रखता हूं।‘

उन्हें सतयुग में पैदा होना था लेकिन ख़राब टाइमिंग के चलते असमय कलियुग में अवतार लेना पड़ा। निखिल जी को लगा कि दिल्ली से रोज़ आने-जाने में पढ़ाई चौपट हो जा रही है तो रूम की तलाश में हमारे पास आ गए। हमने उन्हें आंटी जी के मकान में रूम दिला दिया। दिन भर निखिल जी कॉलेज में रहते थे इसलिए आंटी जी का विकराल रूप कभी देख नहीं पाए।

निखिल जी के रूम के बग़ल में ही आंटी जी का रूम था। एक दिन नवरात्रि में किसी दिन आंटी जी पर माता जी सवार हो गईं। जटाजूट खोल कर आंटी जी ने महाकाली का रूप धर लिया। अंकल जी पर हथियारों की बरसात करने लगीं। संयोग से निखिल जी अपने रूम में ही थे। बर्तनों का शोर सुनकर निखिल जी बाहर आए तो देखा कि अंकल जी हाथ जोड़ कर आंटी की स्तुति कर रहे हैं और आंटी जी उन्हें धुनके जा रही हैं। निखिल जी ने जीवन में कभी ऐसा दृश्य नहीं देखा था। बेचारे डर से सांस नहीं ले पा रहे थे। किसी तरह दरवाज़ा खोलकर बाहर भागे और जान बचाकर हमारे रूम की ओर सरपट दौड़े।

वीरू भइया उनसे पूछते रह गए क्या हुआ लेकिन बेचारे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। जब सामान्य हुए तो बताया कि आंटी जी को जाने क्या हो गया हो गया है वह अंकल जी पर टूट पड़ी हैं। अंकल जी उनकी आरती उतार रहे हैं।

वैसे तो निखिल जी को हम अपने रूम पर रोकने की लाख कोशिश करते तब भी नहीं रुकते लेकिन उस दिन के बाद से तीन-चार दिन तक निखिल जी अपने रूम में ही नहीं गए। उन्हें लगता कि फिर आंटी जी अपने विकराल रूप में आ जाएंगी। निखिल जी कई दिन तक कांपते रहे आंटी जी का रौद्र रूप देखने के बाद। डर की वजह से रात में उठ-उठ बैठ जाते बेचारे निखिल जी। वीरू भइया के लाख समझाने के बाद भी निखिल जी कई दिन तक अपने रूम में झांकने भी नहीं गए। जब आंटी जी घर में नहीं होती थीं तब घुसते थे और उनके आने से पहले ही रूम से निकल लेते थे।

निखिल जी ठहरे दिल्ली वाले। इस तरह के माहौल से बेचारे अपरिचित थे। हम ठहरे गांव वाले जहां रोज़ ही किसी न किसी पर माता जी सवार हो जाती थीं।

मेरे गांव में जो जितनी ही दूर से बदबू करे माता जी उसी पर सवार होती हैं। इसी चक्कर में मेरे गांव मे कई लीटर पानी बच जाता है। नवरात्रि के दिनों में घर-घर में देवी मां सवार हो जाती हैं। जिस पर भूत-प्रेत का साया हो उस पर भी। इन दिनों में बेचन सोखा की किस्मत चमक जाती है। माता जी को ख़ूब देसी मुर्गे का भोज चढ़ता है जिसे खाने का एकाधिकार बेचन सोखा के परिवार वालों को ही होता है। ख़ूब पूजा चढ़ाई जाती है। भूत-प्रेत, लगहर, जिन्नाद, मइलहिया, बंगलिया और न जाने कौन कौन बेचन सोखा के आगे नतमस्तक हो जाते हैं। बेचन सोखा इन सबसे सीधा संवाद करते हैं। देवी मां को भी ऐसे डांटते हैं जैसे कोई अपने बच्चे को डांटता है।

गांव हमेशा से उत्सवधर्मी रहे हैं। नौ-दस दिन गांव का माहौल देखने ही लायक होता है। लाउडस्पीकर पर माता जी का भजन देवराज इंद्र के कानों के पर्दे भी फाड़ देता है। अगर किसी भौजी या काकी के हाथ में माइक आ जाए तो माहौल ही बदल जाता है। ऐसे ऐसे लोकगीत सुनने को मिलते हैं जो कहीं और सुनने को न मिलें।

शाम को पर्दा वाले वीडियो पर रामायण, महाभारत देखने के लिए उमड़ी अपार भीड़, मोदी की रैली से ज़रा भी कम नहीं होती। जिसे जो जगह मिली वो वहीं बैठ जाता है। जैसे ही पर्दे पर अरूण गोविल नज़र आते हैं माहौल भक्तिमय हो जाता है। सब हाथ जोड़कर भक्तिभाव से बैठ जाते हैं। ऐसा लगता है कि मेरा गांव अयोध्या हो गया है। भगवान राम सामने खड़े हैं।
एक-दो सीडी रामायण देखने के बाद मिथुन चक्रवर्ती या सनी देओल की फ़िल्म लग जाती है। प्यार-मोहब्बत वाला हीरो तो गांव में आज भी मेहरा ही कहा जाता है। मेहरा को हिंदी में स्त्रैण कहा जाता है। इससे आसान अर्थ मुझे नहीं पता। मिथुन की फ़िल्में मातम वाली होती हैं लेकिन बिना उनकी फ़िल्मों के, कहां मेरे गांव में कोई उत्सव मन पाता है।

नवरात्रि का दूसरा दिन है। दिल्ली में किसी पर्व का पता नहीं लगता। लोग समझदार हैं। उत्सवों से बहुत दूर हो चुके हैं। लोगों के पास ख़ुद के लिए वक़्त नहीं होता तो ढकोसलों की बात कौन करे।

लोग कहीं मिलते हैं तो बातचीत का विषय भी राजनीति के दायरे से बाहर नहीं निकल पाता। मेरे धंधे में तो और नरक मचा रहता है। कौन किसका हाल पूछे, हाल तो बस राहुल और मोदी का लोग जानना चाहते हैं। उत्सव सबकी ज़िंदगी से ग़ायब है। राजनीति ने बहुत सधे हुए क़दमों से लोगों को बांट दिया है। लोग पार्टियों के यहां दिमाग़ गिरवी छोड़ आए हैं। अब लोग असहमत होने पर गला भी दबा सकते हैं। बंटवारे के कई स्तर हो गए हैं। धर्म-जाति और संप्रदाय सब आजकल प्रासंगिक हो गए हैं। ख़ैर यह सब तो आदिकाल से होता आ रहा है।

दशहरा और मुहर्रम एक साथ आ रहे हैं। दंगें भड़काने वाले पूरी कोशिश में होंगे कि शहर जले। जितना बड़ा दंगा होगा उतना ही बड़ा नेता तैयार होगा।
पूर्वांचल के गांव अब भी दंगों से बचे हुए हैं। शायद इंसानियत बची है लोगों में। दशहरे पर देवी मां की मूर्तियां बनवाने के लिए चंदा मुसलमान भी देते हैं। ताज़िए आज भी मुस्लिमों से कहीं ज़्यादा हिंदू बनवाते हैं।

अब डर लगता है, नफ़रत गांवों में भी न पसर जाए। लोग बुद्धिमान हो रहे हैं। डिजिटल इंडिया के क़दम गांवों में भी पड़ गए हैं। सोशल मीडिया की भी एंट्री हो चुकी है। फ़ेक ख़बरों का मायाजाल तेज़ी से फैल रहा है। कहीं गांव वाले भी शहरों की समझदार हो गए तो सुकून सपना हो जाएगा। डर लग रहा है क्योंकि मेरा देश बदल रहा है।
भटका हुआ आलेख पढ़ने के लिए शुक्रिया, लिखना कुछ और था लिख कुछ और गया। मिलते हैं.......

( यह लेख मैंने सबसे पहले लोकल डिब्बा के लिए लिखा है, यहां केवल सुरक्षित करने के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है।)

-अभिषेक शुक्ल

लोकल डिब्बा www.localdibba.com

बुधवार, 6 सितंबर 2017

काका जी के बेटा लाख रूपया महीना कमाता है

काका इलाक़े के बड़े ज़मींदारों में से एक है। उनके दो बेटे और दो बेटियां हैं। बड़ा बेटा इंजीनियर है, किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करता है। छोटा बेटा भी इंजीनियर है। लड़कियां भी नाम रोशन कर रही हैं। बड़ी लड़की प्राइमरी स्कूल में टीचर है, छोटी भी कहीं सरकारी नौकरी कर रही है।

काका अपनी संपन्नता का ढिंढोरा पीटने से नहीं चूकते हैं। गांव-जवार में ये बात दूर दूर तक फैली है कि काका का बेटा लाख रूपए महीने कमाता है। काका के गांव वालों ने जब पहली बार, एक लाख कमाने वाले इंजीनियर बेटे के बारे में सुना तो तीन चार महीने तक ठीक से खाना उन्हें नहीं हज़म हुआ। लोग ज़मीन-जायदाद  बेचकर अपने बच्चों को बीटेक कराने लगे। पहले गांव में शराब पानी की तरह पीया जाता था। शाम होते ही सबके घरों में सोमरस का सामूहिक वितरण शुरू हो जाता लेकिन काका के परिवार की संपन्नता ने सबको सचेत कर दिया। शराब पीकर टुन्न रहने वाले गांव के लोगों ने अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। ये सब काका का कमाल था।

हैरत की बात यह थी कि जब तक काका के बेटे की शादी नहीं हुई थी तब तक हर छह महीने के बाद, बेटे की कमाई में तीस हज़ार का इजाफ़ा हो जाता था। दिन दूनी रात चौगुनी वाली कहावत, काका के घर जाकर ही चरितार्थ होती थी।

दरअसल चार साल पहले तक काका, बेटे की कमाई को बढ़-चढ़ कर इसलिए बताते थे कि उनके बेटे की शादी नहीं हुई थी। शादी के लिए जो रिश्ते वाले आ रहे थे उनकी हैसियत काका से कम थी। भला काका कैसे ऐसे लोगों से रिश्ता कर लेते? काका के हैसियत का कोई परिवार ज़िले में तो था नहीं, रिश्ता किसके यहां करते?  किसी के पास पैसा था तो ख़ानदान नहीं ठीक नहीं था। खेती कम थी। अब काका तीस चालीस बीघे वाले किसी मामूली आदमी के यहां कैसे बेटे की शादी कर लेते। काका को तो पता था कि इतने खेत तो दहेज़ के पैसे इकट्ठे करने में ही बिक जाएंगे।

काका सामाजिक मंचो पर अक्सर कहते कि दहेज़ समाज का कोढ़ है। इस कोढ़ का इलाज करना ज़रूरी है। समाज के लोग लालची हैं, भेड़िए हैं। बोलते कुछ हैं करते कुछ हैं। काका महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानते थे। सामाजिक समता पर बहुत अच्छा प्रवचन देते थे।

काका को बोलने का बहुत शौक़ है। पुराने कांग्रेसी नेता हैं। काका के कुर्ते-पायजामे में नील-टीनेपाल बरहो मास लगा रहता है। जब कांग्रेस का इतिहास बताते हैं तो कई बार लगता है कि काका ही ओ.एच ह्यूम हैं, काका ही नेहरू हैं। देश की ग़ुलामी से लेकर आज़ादी तक का सफ़र काका बहुत ख़ूबसूरती से समझाते हैं।

एक वक़्त तक काका की बातों को मैं बहुत ध्यान से सुनता था। काका की उच्च आदर्शवादी बातें मुझे बहुत अच्छी लगती थीं।
जब बात अपने बेटे की आई तो काका लड़की वालों से लाखों दहेज़ मांगने लगे। कुछ लोग तैयार भी हुए दहेज़ देने के लिए लेकिन लड़की पसंद नहीं आई। इंजीनियर बेटे की बहू तो कम से कम फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलने वाली होनी ही चाहिए। बेटा हाई क्लास स्टैंडर्ड वाला तो बहू देहाती कैसे चलेगी। काका कहते भी थे कि मेरा बेटा हवाई हवाई जहाज़ से ही आता जाता है। अब किसी ऐसी लड़की से तो शादी नहीं करेंगे न कि जिसके पैर एअरपोर्ट पर पहुंचते ही कांपने लगें।

काका वर्षों तक परेशान रहे। एक दिन काका के घर रिश्ता लेकर काका के हैसियत के बाराबर का परिवार आया। बराबर क्या बीस। लड़की केमेस्ट्री से डॉक्टरेट कर चुकी थी। काका सुबह सुबह घर आए। वह ऐसे ख़ुश लग रहे थे कि जैसे प्रधानी का चुनाव निर्विरोध जीत गए हों।

घर आते ही मम्मी के हाथ में होने वाली बहू की सीवी थमा दी और कहा देखिए डॉक्टर बहू मिल रही है, सीवी देखिए।

घर पर मुक़दमें की फ़ाइलें आती थीं, सीवी क्या जाने मम्मी?  मम्मी ने कहा ऐसे शुभ मौके पर मुक़दमा कौन लाता है? लड़की की फ़ोटो दिखाइए।
काका ने कहा मुक़दमे की फ़ाइल नहीं है, यह लड़की के अकादमिक उपलब्धियों का दस्तावेज़ है। पढ़िए इसे, फ़ोटो भी इसी में है।
मम्मी ने मुझसे चश्मा मांगा। चश्मा तो नहीं मिला लेकिन सीवी मिल गई। मैंने कहा मम्मी मैं पढ़ता हूं। फ़ाइल खुली तो पन्ने ही पन्ने नज़र आए। वज़न किसी मिनी किताब के बराबर।

पता नहीं कितनी पढ़ाई की थी भाभी जी ने। लखनऊ विश्वविद्यालय से कमेस्ट्री में पीएचडी और ऑल टाइम गोल्ड मेडलिस्ट। देश की कई प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिकाओं में उनके आलेख छप चुके थे।
नैन नक्श भी बेहद ख़ूबसूरत। लड़की के क़दम एअरपोर्ट क्या, युनाइटेड नेशन असेंबली में भी न कांपे।

काका ने पूछा भाभी पसंद आईं न बेटा। मैंने काका का जवाब नहीं दिया बल्कि उनसे पूछ बैठा, काका!  भइया ने क्या किया है?  काका ने शान से कहा कि बीटेक।
मैंने पूछा, बस? मास्टर्स नहीं किया है ? उन्होंने कहा कि लाखों कमाता है फिर अब क्या करेगा पढ़ के?

कुछ और बोलता इससे पहले मम्मी ने मुझे चाय लाने के किचन में भेज दिया। काका, मम्मी से बताने लगे कि अट्ठारह लाख दहेज़ दे मिल रहा है और एक क्वालिस कार। काका सब कुछ बहुत गर्व से बता रहे थे। मुझे एहसास हुआ दहेज़  इकलौती ऐसी भीख है, जिसे ज़्यादा पाकर भिखारी को गर्व होता है।

काका जब जाने लगे तो मैंने काका से कहा, काका अगर मैं लड़की की जगह होता तो इस रिश्ते को कभी होने नहीं देता। लड़की को अपने स्तर के लड़के के साथ शादी करनी चाहिए। भइया नॉर्मल बीटेक हैं। सिंपल ग्रेजुएट। हज़ारों लड़के ज़िले में ही होंगे। मगर केमेस्ट्री से डॉक्ट्रेट करने वाले तो शायद गिनती के हों। मुश्किल से दो-चार।

इसके बाद भी अगर वो भइया के साथ शादी करने के लिए तैयार हैं तो आप इतना दहेज़ क्यों मांग रहे हैं?  वह तो भइया पर एहसान कर रही हैं कि उनके कम पढ़े लिखे होने बावजूद भी शादी करने के लिए तैयार हैं। अगर दहेज़ शादी में ज़रूरी है तो आप ही दे दीजिए उनके घर वालों को।

काका सन्न रह गए। मुझसे उन्हें ऐसी ऊम्मीद नहीं थी। वे मुझे बहुत मानते थे। उनकी नज़र में मुझसे संस्कारी बच्चा कोई था नहीं।
काका ने कहा जब बड़े हो जाओगे तो समझ जाओगे। अभी बच्चे हो। हालांकि तब मैं लॉ के चौथे सेमेस्टर में था। इंटर पास किए लगभग दो साल हो गए थे। मतलब बच्चा तो नहीं था।

ऐसे समाज में बहुत सारे काका हैं। हर लड़का शादी से पहले कलेक्टर होता है। लाखों में खेलता है। उससे योग्य लड़का आसपास में नहीं देखने को मिलता। मां-बाप लड़के की जितनी तारीफ़ हो सकती है रिश्तेदारों में करते रहते हैं। लड़के का रेट इससे बढ़ता है। मुंहमांगा दाम मिल जाता है। बेटा अच्छा उत्पाद है, मंहगे दाम में तो बिकना ही चाहिए। भले ही लड़का घनघोर निकम्मा हो लेकिन शादी से पहले तक तो वो राजकुंवर ही है। लड़के की सच्चाई तो मां-बाप जानते हैं, लड़की के घर वाले शादी होने से पहले तक क्या जानें?

लड़की वाले इस भ्रमजाल में उलझे रहते हैं दहेज़ देंगे तो लड़की सुखी रहेगी। दूल्हा ख़रीद लेते हैं लेकिन दूल्हे को ग़ुलाम नहीं बना कर रखते, लड़की ही दासी बन जाती है। पति परमेश्वर पर सब कुछ न्योछावर। बिटिया बोझ है, विदा कर दो घर से। कोई लड़का मिले नौकरी-चाकरी वाला विदा करो उसके साथ। मां-बाप तभी निश्चिंत रहेंगे।

लड़की की योग्यता किस काम की। कौन देखता है। लड़के वालों को दहेज़ चाहिए। लड़के की योग्यता उसका लड़का होना ही है।
ये सब तब तक होता रहेगा जब तक लड़कियां रिश्ते रिजेक्ट नहीं करेंगी। मां-बाप की सारी बातें मानने के लिए नहीं होतीं। थोड़ी बग़ावत ज़रूरी हैं। चौखट से बारात लौटाना ज़रूरी है। सगाई तोड़ने से ज़िंदगी नहीं टूटा करती। दूल्हा ख़रीद लेने से प्यार नहीं मिल जाता। रिश्तों के भरम से बाहर निकलने का सही वक़्त है। जिस घर में रिश्ते की सौदेबाज़ी होती हो वहां रिश्ता जोड़ना ठीक है क्या?

हां! बताना भूल गया काका और काकी ख़ुश नहीं हैं इन दिनों। बड़ी बहू को घर से कोई मतलब नहीं है। गांव भर में चर्चा फैल गई है।
अब काका का छोटा बेटा भी लाख रूपया कमाने लगा है। भले ही काका की दशा और दिशा बिलकुल न बदली हो। तलाश हो रही है नए ख़रीदार की। इस बार दूल्हे पर भी जीएसटी लग गया है। गांव-जवार में फिर शोर मचा है लाख रुपया कमाने वाले इंजीनियर की शादी होने जा रही है। रिश्ते आ रहे हैं। बोलियां लग रही हैं।

उम्मीद करता हूं कि इस बार काका के बेटे को ख़रीदार न मिले। मिल भी जाए तो लड़की बिकाऊ दूल्हे से शादी करने से इंकार कर दे।
काश!  काका की ये फसल न बिके। किसी लड़की में काका के इस प्रोडक्ट को दुत्कारने का साहस आ जाए। मोलभाव भाव वाला रिश्ता किसी को रास न आए। जानता हूं ऐसा होना नामुमकिन है....हमारे यहां दूल्हा बिकता है...ख़रीदार तो मिल ही जाएगा।

- अभिषेक शुक्ल

गुरुवार, 31 अगस्त 2017

उसमें ठहर ठहर बीतूंगा


कठिन समय ने चाल चली है
उपहासों में हार पली है,
डगमग डगमग कदम पड़ रहे
तन की हाहाकार खली है।














जूए में हर दांव हार कर
उनकी लाखों बात मानकर,
चौसर के सब पासे पलटे
धोखे वाली बात जानकर।

फिर भी दिल मुझसे कहता है
सारी बाज़ी मैं जीतूंगा,
जिस नक्षत्र में जय ही जय हो
उसमें ठहर ठहर बीतूंगा।।

- अभिषेक शुक्ल 

रविवार, 23 जुलाई 2017

इश्क़ का कॉन्ट्रैक्ट करोगे?

सुनो!

कहो!

प्यार हुआ है कभी तुम्हें?

हां! कई बार।

और जिनसे तुमने प्यार किया, क्या उन्हें भी तुमसे प्यार था?

प्यार वन साइडेड कब होता है यार? इश्क़ सौदेबाज़ी है। गाना नहीं सुनती?

सुनती हूं पर इतना सोच नहीं पाती।

वैसे मुझसे ये सब क्यों मुझसे पूछ रही हो?

इश्क़ हो गया है तुमसे। लव कॉन्ट्रैक्ट साइन करोगे?

इश्क़ का कॉन्ट्रैक्ट साइन करूं? तुम्हें पता है इसके  लिए म्युचुअल कंसेट का होना ज़रूरी है?

हां! इतना कानून मैंने भी पढ़ा है। कन्सिडरेशन का होना भी ज़रूरी है। प्रपोज़ल मैं दे ही रही हूं।

तुम एग्रीमेंट के लिए हां कर दो।



तुम्हें पता है मेरा पूरा खानदान वकील है?

तो?

सब लोग मिलकर तुम्हारा-मेरा कॉन्ट्रैक्ट, वॅाइड करा देंगे।

अडल्ट हो?

डाउट है यार।

कागज़ में में तो कब के पार कर चुके यार। मैंने तुम्हारा कॅालेज कार्ड देखा है। कोर्ट में दिखा देना।

यार!  तुम्हें नहीं पता। मेरे पापा को नहीं जानती तुम।  बर्थडे सर्टिफ़िकेट चेंज करा देंगे।

कोर्ट में तुम बता देना कि सब झूठ है। मेडिकल टेस्ट के लिए अप्लाई कर देना।

मैं कुछ नहीं बोल पाऊंगा। एप्लीकेशन भी नहीं लिख सकता।

क्यों?

पापा कहते हैं सारी ज़मीन-जायदाद ले लो। वहीं घर बनवा लो। मुझे अपना चेहरा कभी मत दिखाना।

इससे डर जाते हो? मां-बाप अपने बच्चों को कभी नहीं छोड़ सकते। मान जाएंगे एक न एक दिन।

यही तो बात है। उस एक दिन को भी बर्दाश्त करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है।

प्यार के लिए लोग कुछ भी कर जाते हैं। तुम इतना नहीं कर सकते?

प्यार! मगर किससे?

मुझसे! कह दो नहीं करते प्यार?

हां! नहीं करता। डर और प्यार कभी साथ-साथ नहीं रहते। मुझे डर लगता है। मेरे हिस्से की बगावत हो चुकी है। मुझसे नहीं होगा।
उनकी पल भर की उदासी हमें और तुम्हें ख़ुश नहीं  रहने देगी।
कई बार ख़ुद की ख़्वाहिशें क़ुर्बान करनी पड़ती हैं।
कुछ एहसास बस दिल में दफ़्न हो जाते हैं। उन्हें जाहिर करने की हिम्मत भी नहीं होती।
मेरा क्या है मुझे प्यार कभी नहीं होगा। हुआ भी नहीं। तुम्हें मुझसे कोई बहुत अच्छा मिल जाएगा। मैं अच्छा नहीं हूं।

हां! मुझे भी लग रहा है। तुम पछताओगे। तुम्हें पता नहीं! मैं वक़्त के साथ और ख़ूबसूरत हो जाऊंगी। मुझे पढ़ने, सुनने वाले तुमसे ज़्यादा होंगे। मैं जहां जाऊंगी वहां लोग मुझे घेर लेंगे। ऑटोग्राफ़ के लिए भीड़ लग जाएगी।
एक वक़्त बाद मेरे बस फ़ैन होंगे जिनमें तुम भी शामिल रहोगे।
मेरी एक झलक के लिए तरसते रह जाओगे।

अरे वाह यार! ऐसे मत कहो, मुझे प्यार हो जाएगा।
 वैसे मेरा इरादा चांदनी चौक पर गोलगप्पे की दुकान खोलने का है। दस रुपए में चार, दही मार के।पर तुम्हारे लिए सब कुछ फ़्री रहेगा।
हां! तुम्हें लाइन में भी नहीं लगना पड़ेगा। तुम्हें तो मैं  प्रोटोकॉल तोड़ कर ख़ुद गोलगप्पे खिलाऊंगा। अपने हाथों से।

भक्क! बात मत करो तुम मुझसे।

जैसी तुम्हारी इच्छा। नहीं करूंगा।

हे!

बोलो यार! मुझे फ़ोन पर बात करना बहुत ख़राब लगता है।

मैं ही कौन सी मरी जा रही हूं।

तुम हर बार मरने की बात क्यों करने लगती हो?

डरो मत! न तुम सूरज पंचोली हो न मैं जिया खान।
मेरे पास कई सारे ऑफ़र हैं। तुमसे बेहतर हज़ार मिलेंगे।

सुनाती क्यों हो जाओ।

जा रही हूं। मुझसे मिलने की कभी कोशिश मत करना।

जब कभी नहीं किया तो अब क्यों करूंगा।
सो जाओ। मुझे भी नींद आ रही है।

तुम्हारे सपनों में आ गई तो?

मैं सपने नहीं देखता। कभी सपना ही नहीं आता।

मेरा केस अलग है। मैं कभी भी, कहीं भी आ सकती हूं। इसके लिए तुम मुझ पर ट्रेसपास का केस भी नहीं कर सकते।

चाहूं तो भी नहीं कर सकता। मैं एक डुप्लीकेट पत्रकार हूं। वकालत शुरू करने से पहले मैंने तलाक ले लिया इस धंधे से। ख़ुद के लिए वकील नहीं ढूंढ सकता। मेरा वक़्त बिक चुका है।

तुम्हारा तो पूरा खानदान वकील है। करा दो केस।

क्या यार! ज्यूरिस्डिक्शन नहीं पढ़ा है क्या?

पढ़ा है लेकिन लॅा तुमने किया है मैंने नहीं। मेरा कानून से रिश्ता बड़ा उलटा है। जैसे तुमने नौ महीने में पांच साल की मेहनत को क़ुर्बान किया है वैसे ही मैंने पत्रकारिता को श्रद्धांजलि दी है चार महीने कानून पढ़ कर।
अब अगर में तुमसे नोम चोमस्की का अधिगम सिद्धांत पूछ लूं तो तुम क्या बताओगे?

देखो! नौ महीने में मैंने भाषा से इतर कुछ जाना नहीं है। अभी अपने फ़ेवरेट सर का लेक्चर याद करके सुना दूंगा।

नहीं! नहीं! मैं फ़ोन रखती हूं। वैसे भी हिंदी से मेरा कुछ ख़ास रिश्ता नहीं है। मैं लैंग्वेज पढ़ती हूं भाषा नहीं।

ओके! बाय।

बाय!

सुनो!

अब क्या है?

गोलगप्पे खिलाओगे?

हां! पहले तुम सेलिब्रिटी तो बन जाओ।

कुछ दिन दिन इंतज़ार करो। बन जाऊंगी। एक बात बताओ! तुम सच में गोलगप्पे की दुकान खोलोगे?

जिस हिसाब से मैं फ़ूड रेसिपी लिख रहा हूं क्या पता मूड बदल जाए।

ठीक है। मुझे न मैनेजर रख लेना। तुम्हारे पैसों का हिसाब-किताब रखूंगी।

रहने दो। सैंडो बंडी में पांच जेब लगवाऊंगा।  सारा पैसा एडजस्ट हो जाएगा। तुम परेशान मत हो।
तुम सेलिब्रिटी बनो।

धत्त! हमें नहीं बनना सेलिब्रिटी। हम ख़ुश हैं ऐसे ही।

ठीक है। काटो फ़ोन। मुझे भी ख़ुश होने दो। सुबह मुझे कुछ काम है। जल्दी उठना है।

ओके! भाड़ में जाओ। अब कभी नहीं बात नहीं करूंगी।

ठीक है। मैं गोलगप्पे की दुकान अगले महीने खोल लूंगा।

सुनो!

अब क्या है?

मुझसे दोस्ती करोगे?

नहीं! दुश्मनी का कोई स्कोप है?

भक्क! कभी सीधे क्यों नहीं कुछ बोलते?

क्योंकि चांद का मुंह टेढ़ा है।

मतलब?

कुछ नहीं।

यार! भ्रम क्यों फैलाते हो?

क्योंकि मैं पत्रकार हूं। आजकल हम भ्रम ही फैला रहे हैं। प्राइम टाइम वाले भाई साहब को नहीं देखती?

कई सारे हैं नाम बताओ?

सब! वे सारे तुम्हारे 'वाग्दत्ता' भसुर हैं।

मतलब

भ्रम!

तुम्हें पता है तुम ख़ुद 'भ्रम' हो गए हो।

मुझे पता है। इसी भ्रम से मुझे सच्चा वाला प्यार हो गया है।

इसमें ऐसा क्या है?

है कुछ ख़ास।

क्या? ज़रा मुझे भी पता चले।

भ्रम सत्यम् जगत मिथ्या।

भक्क!

दार्शनिक बनने का इरादा है?

नहीं, गोलगप्पे बेचने का।

( इस पटकथा के सभी पात्र काल्पनिक हैं। किसी भी व्यक्ति, विषय या संस्था से इसका कोई संबंध नहीं है। यदि किसी भी घटना से इसका संबंध पाया जाता है तो उसे महज़ एक संयोग कहा जाएगा।)

- अभिषेक शुक्ल।

गुरुवार, 1 जून 2017

श्रीवास्तव जी का बदला और भारतीय राजनीति

बचपन में मैंने मम्मी से एक कहानी सुनी थी. शर्मा और श्रीवास्तव जी कहानी के मुख्य पात्र थे.
शर्मा जी का परिवार बहुत सात्विक था. मीट-मांस तो दूर कोई लहसुन-प्याज तक नहीं खाता था. सुबह-शाम आरती भजन का कार्यक्रम चलता रहता था. बिना भोग लगाये अन्न क्या कोई जल तक ग्रहण नहीं करता था.
उन्हीं के बगल में श्रीवास्तव जी का परिवार रहता था. मांस-मदिरा बिना तो एक दिन भी नहीं गुजरता था. मंगलवार अपवाद था.
श्रीवास्तव जी जब भी खा कर बाहर निकलते तो गली-गली में घूम कर डकार मारते. उनके डकार में भी प्रचार का पुट था. हर बार मटन-चिकन, मछली, मुर्गा ज़्यादा खा लेने की वज़ह से उन्हें डकार आ जाता था. अपने समृद्धि का प्रचार-प्रसार करने में श्रीवास्तव जी कभी नहीं चूकते थे. उनकी पत्नी उनसे भी ज़्यादा दिखावे में विश्वास रखती थीं.
एक दिन शर्मा जी के घर कुछ मेहमान आये. मेहमान क्या दामाद और समधी वो भी पहली बार. समधी और दामाद ठहरे मांस भक्षी. उन्हें भी श्रीवास्तव जी वाली लत लगी थी. शर्मा जी  आवभगत में समधी जी से पूछ बैठे कि भोजन में क्या लेंगे ?
समधी जी ने कहा जी ने कहा कि बकरा कटवाइए. आज तो मौसम भी अच्छा है आनंद आएगा.
शर्मा जी धार्मिक आदमी ठहरे, मान्य की इच्छा कैसे न मानते. कसाई के घर से बकरे का मांस मंगवाया गया. शर्माइन काकी मांस देखते ही कूद पड़ीं. बोलीं जीवन भर की त्याग और तपस्या एक झटके में किसी के कहने पर लुटा दे रहे हैं. न समधी, न दामाद जी भगवान यहाँ साथ जायेंगे.
क्या मुंह दिखायेंगे भगवान को ?
लेकिन शर्मा जी टस से मस न हुए. उन्हें तो समधी जी की इच्छा पूरी करनी थी. किचन में ला पटके मांस का थैला. शर्माइन काकी भी कहाँ पीछे रहतीं, बहुरिया के साथ मिलकर किचन से सारे बर्तन पूजा घर में लगा बैठीं.
अब शर्मा जी धर्म संकट में फंस गये. समधी जी की इच्छा न पूरी करते  तब भगवान नाराज़  होते और पत्नी से झगड़ा करते तो लक्ष्मी मैया.
शर्मा जी ने एक विकल्प तलाशा. श्रीवास्तव जी यहाँ रोज़ मुर्गा मटन बनता था तो  उनसे बर्तन मांगने में कोई हर्ज़ न था. कुछ मेहमान बढ़ गए हैं यही बहाना मार  के श्रीवास्तव जी यहाँ से कड़ाही, थाली मांग लाये.
समधी जी ने भोग लगाया. दामाद जी भी डकारे. शर्मा जी ने भी वर्षों का  त्याग छोड़ कर एक कौर मार लिया. खाते ही उन्हें लगा व्यर्थ में ही सारा जीवन निष्फल किया, धर्मपत्नी का का मन दुखाया यह तो दो कौड़ी का स्वाद है. बेचारे से एक कौर भी न खाया गया.
सुबह-सुबह जब श्रीवस्तवाइन काकी अपना  बर्तन मांगने शर्मा जी के घर गईं तो देखा बर्तनों में हड्डियाँ पड़ी हैं. अब दिमाग ठनक गया काकी का.
इतना बड़ा छल? उन्हें ख़ुद जब मीट खाना होता था तो वे कहीं और से बर्तन मांग  कर लाती थीं. अपना बर्तन तो केवल मंगलवार के दिन इस्तेमाल करती थीं. उन्हें गहरी ठेस पहुँच गयी शर्मा जी के छल से.
जैसे-तैसे बर्तन साफ करवा के अपने घर ले गईं. शाम को जब श्रीवास्तव जी घर आये तो बदला लेने पर पूरे परिवार ने मंथन किया. कैसे शर्मा जी से बदला लिया जाये. कुछ लोग कह रहे थे शर्मा जी से बर्तन मांग कर नाली में डाल देते हैं फिर सादे पानी से धुलकर दे देंगे बदला पूरा हो जायेगा. तो कुछ कह रहे थे दक्खिन टोला के मंगरुआ को खाना खिलाओ शर्मा जी के थाली में उनका धर्म भ्रष्ट हो जायेगा. इतने में  श्रीवस्तवाइन  काकी के दिमाग में एक एक्सक्लूसिव आइडिया आया. उन्होंने कहा कि क्यों न हम शर्मा जी की थाली में टट्टी(मल ) खा लें. परिवार भर को आइडिया पसंद आया. सबने बारी बारी से एक-एक कौर गटक लिया.
जब शर्मा जी के यहाँ काम करने वाली  महरिन काकी श्रीवास्तव  जी के यहाँ बर्तन मांगने गईं  तो देखा आँगन में बर्तन पड़ें हैं. श्रीवस्तवाइन काकी ने महरिन काकी से कहा जाओ बर्तन उठा लो. महरिन काकी ने कहा ठीक है मालकिन उठाई लेत हन. पास गईं तो देखा बर्तनों में कुछ पीला-पीला लगा है. पहले उन्हें लगा दाल है लेकिन सूंघ के देखा तो एहसास हुआ टट्टी है.
वहां से महरिन काकी श्रीवास्तव जी के परिवार को गरियाते हुए निकलीं. गावं भर  में घूम-घूम कर सबको बताने लगीं कि, 'ललाइन कै बर्तन में हमार मालिक मीट  खाइन लेकिन बदला काढ़े के खरतिन ललाइन कै घर भर मालिक के थरिया में गुह खाइस.'
मतलब श्रीवास्तव जी का पूरा परिवार सिर्फ़ बदला लेने के लिए शर्मा जी की थाली में पोटी गटक लिया.
श्रीवास्तव जी की पूरे गाँव में थू-थू हुई उन्हें मजबूरन गाँव छोड़ कर जाना पड़ा.
ये कहानी भारतीय राजनीति पर फ़िट बैठती है. भाजपा और संघ की बुराई के लिए सारे राजनीतिक दल किसी भी स्तर पर जा सकते हैं. पिछले कुछ दिनों में दर्जन भर उदाहरण आपको मिल जायेंगे. विरोध के लिए किसी भी स्तर पर जाने के लिए लोग तैयार हैं.
 ऐसा करके वो भाजपा, संघ या मोदी का विरोध नहीं कर रहे बल्कि इस  विचारधारा को सार्वभौमिक बना दे रहे हैं. मोदी पल भर  भी जनता के आंख-कान से दूर नहीं हुए हैं. उनके विरोधियों ने उनकी छवि  भगवान जैसी बना दी है. सपने में मोदी, जगने पर मोदी. अच्छा हो तो मोदी, बुरा हो तो मोदी. मोदी मतलब भारत.
मीडिया, राजनीतिक पार्टियां और बुद्धिजीवी मोदी को पल भर भूल नहीं पा रहे हैं. ऐसी स्तरहीन आलोचना कभी और कहीं कम देखने को मिलती है.
जब राजनीति में चिंतन का केंद्र बिंदु एक व्यक्ति, संस्था और विचारधारा को बना  दिया जाता है तब ज़रूरी मुद्दे अप्रासंगिक लगने लगते हैं और उन पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता. ध्यान जाये भी तो कैसे जब विपक्ष की आलोचना एक व्यक्ति के आस-पास मंडराने लगे.
इस कहानी में भाजपा है शर्मा जी. छीछालेदर भी मचा लिए, धर्मभ्रष्ट भी हुए, न स्वाद मिला न समधी जी ही मेहरबान हुए.
श्रीवास्तव जी ने अपनी भी थू-थू  कराई और परिवार की भी, फलतः गाँव छोड़ कर जाना पड़ा. मतलब जो था वो भी गया. तो विपक्ष हुआ श्रीवास्तव जी का परिवार.
अब महरिन काकी है भारतीय जनता. शर्मा जी और श्रीवास्तव जी के कुकर्मों की पोल गाँव में घूम-घूम कर कर खोल दी.
जनता को अब यही काम करना चाहिए. न मोदी न विपक्ष न मीडिया. किसी की न सुने. खुद परखे और जाने किसने कितना बड़ा झोल किया है. वैसे भी अब कुछ भी जानना बहुत आसान हो गया है अगर कोई जानना चाहे तो. न चाहे तो उसका अपना मन.
किसी और से कुछ मत पूछिए. सबने एक चश्मा लगा रखा है. सबको उस चश्मे से एक ख़ास रंग ही दिखता है. किसी को केसरिया, किसी को हरा, किसी को लाल तो किसी को नीला. सफेद सिर्फ जनता का चेहरा है जो इन लोगों को सुन-सुन कर पीला पड़ता जा रहा है.
कुछ और दिन सुन लिया चेहरे पर छाला पड़ जाएगा. कीड़े पड़ेंगे फिर उसमें.
अब भी वक़्त है.
सच जानने के लिए किसी पर निर्भर न रहें...खुद सच तलाशें. सच की आपसे दुश्मनी नहीं है...आपसे लुक्का-छिप्पी नहीं खेलेगा.



मंगलवार, 9 मई 2017

अब मैं भी असहाय नहीं

जिन्हें तुम जीवित समझ रही हो वे कटे वट वृक्ष की तरह निष्प्राण हैं. न इनमें जीवन है न ही ये तुम्हारे रक्षार्थ कभी खड़े हो सकते हैं.  इनके कारण उम्र के ऐसे पड़ाव में तुम्हें परित्यक्ता होना पड़ेगा जब तुम्हारे वरण के लिए कोई पुरुष नहीं आएगा. समय के स्वयंवर में तुम अनब्याही ही रह जाओगी. मत भूलो तुम स्त्री हो और तुम्हें नोचने के लिए पुरुष तब से प्रतीक्षारत है जब से यह सृष्टि है.

 हे पुरुष! कदाचित मुझे यह भ्रम हो रहा था कि तुम सभ्य हो गए होगे किन्तु यह मेरा नितांत भ्रम ही था. युग बदल गया लेकिन तुम्हारी बुद्धि यथावत रही.
तुम्हें प्रेम और स्वार्थ में तनिक भी अंतर नहीं समझ नहीं आया. मेरे शाश्वत प्रेम का आधार स्वार्थ पर सृजित नहीं हुआ है. मेरा प्रेम तुम्हारी मति से बहुत परे है. तुम्हें आज भी मैं नहीं, मेरी देह ही अभीष्ट है. जब तुम्हारे चिंतन के केंद्र बिंदु में मेरी देह है तो प्रेम कैसे समझोगे तुम?
मेरा अतीत भले ही कैसा भी रहा हो मेरा वर्तमान बहुत अलग है. मैंने अबला से सबला होने की यात्रा कई चरणों में पूरी की है. जब तुम्हें प्रेम पर विश्वास नहीं तो ईश्वर पर क्या होगा. यदि तुम्हें सनातन संस्कृति के सभी धर्मग्रन्थ कल्पना पर बुने लगते हों तो भी सुन लो मैं उन ग्रंथों की नायिका नहीं हूं. न मैं अहिल्या, न सीता हूं जिसे राम के आगमन की प्रतीक्षा है. न मैं द्रौपदी हूं जो अपने रक्षार्थ किसी कृष्ण को पुकारूंगी. मैं समर्थ हूं और अपनी आत्मरक्षा कर सकती हूं. मानसिक स्तर पर तो तुम मेरे समक्ष कहीं नहीं ठहरते लेकिन शारीरिक स्तर पर भी अब मैं तुमसे अधिक शक्तिशाली हूं.


जानती हो यह तुम्हारा भ्रम है. तुम भ्रम में ही जीती हो. यथार्थ तुम्हें भी विदित है. क्या करोगी जब पुरुष की बलिष्ठ बाहें तुम्हें जकड़ लेंगी और उस पाश से तुम स्वयं को मुक्त नहीं करा सकोगी. तुम्हारा चीखना-चिलाना व्यर्थ जाएगा और अंत में हार कर तुम समर्पण करोगी. पुनः तुम्हारी देह पर पुरुष का अधिकार ही होगा. तुम दासी थी और दासी ही रहोगी. भला पुरुष के समक्ष स्त्री की  क्या सत्ता?

हाँ जानती हूं. तुम पुरुष हो तुम्हें हर तरह का छल-बल आता है. तुम मुझे घेर लोगे. मुझे भोग्या बनाना चाहोगे. मेरी इच्छा के विरुद्ध मेरा दैहिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करना चाहोगे. तुम मुझे कुलटा कहोगे. मेरी पवित्रता को समाज पग-पग परखेगा. तुम चाहोगे कि मैं समाज से परित्यक्त कर दी जाऊं. किन्तु याद रखना मैं तुम्हारे किसी षड्यंत्र से दूषित नहीं होऊँगी. जीवन के कुछ पलों में तुम मुझसे अधिक शक्तिशाली रहे तो क्या हुआ क्या तुम्हारी शक्ति कभी क्षीण नहीं होगी क्या? सोचो उस पल मैं क्या करुँगी?
तुम्हारा मन सच स्वीकार नहीं कर पा रहा है. तुम अतीत में ही जी रहे हो.  परिवर्तन ने दबे पाँव दस्तक दे दी है जिसे तुम्हारी मदांध आँखें देख नहीं पा रही हैं. मेरी देह पर तुम्हारा आधिकार नहीं है. जिसे तुम समर्पण की प्रत्याशा लगा बैठे हो वह अब विद्रोही हो चुकी है. तुम्हारे  द्वारा प्रायोजित संस्कारों की परिधि से कब की निकल चुकी हूं.  मुझे अब न आजीवन वैधव्य का डर है न ही अविवाहित रह जाने का.
तुम्हें तुष्ट करने के लिए मैं अब नहीं जीती. मैंने जीना सीख लिया है. कभी उच्छृंखलता पर तुम्हारा एकल अधिकार था अब मेरा भी है.
मुझसे डरो, तुम्हारे द्वारा रचित हर विधि-विधान को मैंने त्याग दिया है अब यदि तुम मुझे किसी बंधन में बांधना चाहोगे तो प्रतिकार सहने के लिए तैयार रहना. मैं अब न तो अबला हूं न ही असहाय. मेरी शक्ति उदायाचलगामी सूर्य की तरह है, मेरे समीप भी आओगे तो जल जाओगे.
सावधान हो जाओ मनुपुत्रों! तुमने मुझे दुर्गा, काली, रणचंडी और छिन्नमस्ता के रूप में पूजा है न? अब मैं अवसर आने पर उसी रूप में तुम्हारे सामने आऊंगी. तुम पूजा करो या प्रतिकार यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है.
सतर्क रहना! अब मैंने सहना छोड़ दिया है.

सोमवार, 1 मई 2017

ये है हमारी टीम 'लोकल डिब्बा

ये है हमारी टीम 'लोकल डिब्बा। सब अलग-अलग मीडिया संस्थानों में।
चुलबुली राइटर पल्लवी बहिनिया और अनपेड रिपोर्टर दया APN में चले गए। मजदूर पत्रकार नीलेश नवभारत टाइम्स में और मैं ग़ज़बपोस्ट में।
लोकल डिब्बा के सबसे अच्छे और फ़ेमस पत्रकार( जो कि हमारे टीम के chief executive officer और editor in chief हैं) गौरव कुछ अलग करने वाले हैं।

अगले आने वाले कुछ सालों में किसी बड़े चैनल में मेरा दोस्त प्राइम टाइम एंकर होगा।
गौरव की ख़ास बात है कि नींद में भी अगर कोई कैमरा इस पर फोकस कर दे तो ये पीस टू कैमरा करने लगता है।
जितनी बेहतरीन स्क्रिप्टिंग उतनी ही बेहतर संवाद अदायगी।
इसका फ़ेवरिट quote है-
नमस्कार! मैं गौरव प्रभात पांडेय।
राजनीति में जब बरसने आग बचे तो रुख हवाओं की ओर कर लेनी चाहिए ।
मतलब तो आज तक हमारे समझ में नहीं आया लेकिन दिन में बारह बार इससे सुने बिना हम रहते नहीं।
प्रो.देवेश किशोर सर के पास मुझे और नीलेश को गौरव के इसी कोटेशन पर शोध ग्रंथ लिखवाने जाना है।
इतने सारे अल्हड़-अलमस्त दोस्तों के बीच वक़्त कब बीत गया पता ही नहीं चला।
बहुत याद आओगे तुम सब यार।

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2017

विदाई वाला दिन...भीगी पलकों वाली कुछ तस्वीरें

शुक्ला महासभा की अध्यक्षा सुरभि के साथ मैं और राघवेन्द्र 


राघवेन्द्र..महाकवि हैं हमारे संस्थान के 

पावन, राष्ट्रवादी पत्रकार हैं 

गीतकार अनुराग अनुभव, अभिषेक बोले तो मैं, राघवेन्द्र, कम्युनिस्ट पत्रकार समर और शताक्षी 

राघवेन्द्र, विवेक और मैं 

मेधाविनी के साथ 

                                                ओमेन्द्र,गौरव,नीलेश,मेधा राघव और मैं


पार्थ ही इसमें नया चेहरा है 

ऐसे सीन होते रहते हैं 

फजील, सुल्तान,तस्लीम,हुमा, शताक्षी, राघव और विवेक 

ऐसे पोज़ कौन मरता है भाई 

आखिरी क्लास 

आसमानी वाले शर्ट में है विवेक...बिहार से निकलने वाला हर बड़ा नाम इसके गाँव या पड़ोस वाला ही हो जाता है..सबसे कनेक्शन जोड़ने वाला विवेक बिहारी एकता और जातिवाद का तगड़ा समर्थक है.
मेरा पहले ही दिन दोस्त बन गया था । इतना अच्छा वक्ता है कि किसी की भी दोस्ती हो जाए। पहले दिन ही उसने कश्मीर समस्या की बात उठाई। शशांक भी साथ में बैठा था। विवेक ने कहा कि कश्मीर को मुक्त कर देना चाहिए। मैंने कहा कि वस्तु है क्या कश्मीर जो किसी को दान में दे दिया जाए।बहस हुई फिर कुछ देर बाद पता चला भाई तगड़ा डिप्लोमेट है। वामपंथी समझ कर मुझसे बात कर रहा था। दांव उलटा पड़ गया था...

वैसे इस फोटो में हैं अक्षय,आर्य भारत,निखिल,अरुण,अभिनव,शशांक और खुर्शीद

ये नौटंकी था खाली..इस फोटो में शशांक जैसा लग रहा है वैसा बिलकुल नहीं है

ये नौटंकी था खाली..इस फोटो में शशांक जैसा लग रहा है वैसा बिलकुल नहीं है





मेरे बगल में बैठा है नितीश. बचपन से ही BBC हिंदी में काम करना चाहता है..जनसत्ता में प्लेसमेंट हो गया है भाई का.
वैसे भाई का जलवा कश्मीर से कन्याकुमारी तक चलता है...कोई काम हो बताइयेगा

हमारी पूरी क्लास, हिंदी और उर्दू पत्रकारिता बैच 2016-17 की आखिरी तस्वीर..विदाई के वक़्त की.


गुरुवार, 27 अप्रैल 2017

भारतीय जनसंचार संस्थान! बहुत याद आओगे तुम.


वक़्त हाथों से इस तरह सरकता है कभी महसूस नहीं किया था लेकिन आज  वक़्त को सरकते देखा।
जिस दिन मामा एडमिशन कराने आए थे उसी दिन उन्होंने कहा था, ‘जाओ मौज करो।’ नौ महीने के बाद यहाँ से कुछ लेकर जाओगे।
यहां मैंने केवल मौज ही किया है। पढ़ाई के प्रेशर जैसा कुछ फ़ील ही नहीं हुआ। क्लास असाइनमेंट भी मेरे लिए एंटरटेनमेंट का हिस्सा था। लिखना हमेशा से पसंदीदा काम था तो कभी लगा ही नहीं कि असाइनमेंट कर रहे हैं।
ओरिएंटेशन डे(1 अगस्त) से शुरू हुआ हमारा सफर सिग्नेचर डे (27 अप्रैल ) तक कब पहुंचा पता ही नहीं चला।
मैं कानून का विद्यार्थी था एडमिशन से पहले मुझे यही डर लगता था कि कहीं नई वाली पढ़ाई में मन रमा नहीं तो सब चौपटाचार हो जाएगा।
लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। ओरिएंटेशन डे से ही संस्थान ने मन मोह लिया।
जोशी सर की भाषा वाली क्लास में ग़ज़ब का माहौल रहता। लोक-परलोक सब ओर हम पहुंच जाते थे।
भाषा, लिपि, व्याकरण, अभिधा, लक्षणा और व्यंजना की विशद व्याख्या कई बार सर के पार जाती थी। क्लास में डांट पर भी खूब ठहाके लगते थे। पढ़ाई के सापेक्ष मस्ती कहीं और इस लेवल की नहीं होती है।
रेडियो की क्लासेज लेते थे राजेन्द्र चुघ सर। बेहतरीन क्लास होती थी। सर के हर बात पर तालियां बजतीं थीं। सर जब कहते थे 'सॅारी! यू आर नॅाट फिर फॅार रेडियो' तो हम सब मस्त हो जाते थे। हम भी सेम डायलॅाग मारते थे जब कोई कुछ गड़बड़ करता था।
आनंद प्रधान सर की क्लास हमेशा याद आएगी। फीचर लिखना सिखाते थे सर, लेकिन पढ़ने से अच्छा उन्हें सुनना अच्छा लगता था। बेहतरीन वक्ता हैं सर।
प्रायोगिक पत्र वाले दिन पसीने छूट जाते थे। जल्दी-जल्दी सबमिट करने की होड़ लगी रहती थी। टाइम बचा कर मस्ती जो करनी थी।
परीक्षाओं में भी हमने खूब मस्ती की है। कोई बहुत सीरियस नहीं था एग्ज़ाम को लेकर। क्लास में पढ़ाई इतनी अच्छी होती थी कि कुछ और पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी एग़्जाम के लिए।
कृष्ण सर के संपादन वाली क्लास में सबसे ज्यादा हंगामा होता था। सर कहते ये अब तक का सबसे लापरवाह बैच है। तुम लोग बिलकुल भी सीरियस नहीं हो। जाते-जाते हमें पता चला कि हर बैच में सर का सेम डायलॅाग होता है। विदाई के वक्त सर भावुक हो गए।
सारे दोस्त अलग-अलग जा रहे हैं।अब बहुत मुश्किल है रोज-रोज मिलना। सबका प्लेसमेंट अलग-अलग मीडिया संस्थानों में हुआ है। कुछ दोस्तों का प्लेसमेंट बाकी है, कुछ दिनों में सबका प्लेसमेंट हो जाएगा।
दिन भर पढ़ते थे पर पढ़ाई वाली फील कभी नहीं आई। हर जगह एंटरटेनमेंट चाहे क्लास रूम हो या लाइब्रेरी। हर जगह मस्ती। अब मस्ती पर फुल स्टाप लग गया है।
लोग कहते हैं आईआईएमसी की पढ़ाई पेड हॅालीडे है, नौ महीने कब बीतते हैं पता ही नहीं चलता। हमें भी नहीं पता चला।
कल से कुछ दोस्त दफ्तर वाले हो जाएंगे। मेरा भी कल दफ्तर में पहला दिन होगा।
आईआईएमसी में बीते दिन हमेशा याद आएंगे। हम कहीं भी क्यों न चले जाएं पर संस्थान से मोह नहीं छूट पाएगा। दोस्त बहुत याद आएंगे...क्लासेज बहुत याद आएंगी..महीपाल जी का कैंटीन, चावला सर का गर्मजोशी से हाथ मिलाना, कविता मैम का असाईंमेंट के लिए टोकना....खुशबू का क्लास में चिल्लाना, विवेक का प्रॅाक्सी लगाना..
सच में ये दिन मेरे जिन्दगी के बहुत खूबसूरत दिन रहे हैं।
आईआईएमसी, तुमको न भूल पाएंगे...

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

किसान की आह!

मैं किसान हूं। पेशाब पीना मेरे लिए खराब बात नहीं है। जहर पीने से बेहतर है पेशाब पीना। जहर पी लिया तो मेरे साथ मेरा पूरा परिवार मरेगा पर पेशाब पीने से केवल आपकी संवेदनाएं मरेंगी। मेरा परिवार शायद बच जाए।
कई बार लगता है आपकी संवेदनाएं मेरे लिए बहुत पहले ही मर गईं थीं लेकिन कई बार मुझे यह मेरा वहम भी लगता है। उत्तर प्रदेश के किसानों को बिना मांगे बहुत कुछ मिल गया लेकिन हम अपनी एक मांग के लिए अनशन किये, भूखे रहे, कपड़े उतारे और पेशाब तक गटक लिए लेकिन आप तक कोई खबर नहीं पहुंची।
यह भेद-भाव क्यों? क्या मेरी भाषा आपके समझ में नहीं आती या मैं आपके 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का हिस्सा नहीं हूं?
मैं तो कश्मीरियों की तरह पत्थरबाज भी नहीं हूं, नक्सलियों की तरह हिंसक भी नहीं हूं। मैं तो गांधी की तरह सत्याग्रही हूं । मेरी पुकार आप तक क्यों नहीं पहुंचती?
आप भारत के सम्राट हैं। कश्मीर से कन्याकुमारी तक आपके साम्राज्य का विस्तार है।आपकी इजाजत के बिना भारत में पत्ता तक नहीं हिलता तो क्या आपने, अपने कानों और आंखों पर भी ऐसा दुर्जेय नियंत्रण कर लिया है?
मेरी चीखें आपके कानों के पर्दों तक क्यों नहीं पहुंचती? मैं चीखते-चीखते मर जाऊंगा और आपके सिपाही मेरी लाशों को कुचलते हुए आगे बढ़ जाएंगे लेकिन आप तक मेरे मरने की खबरें नहीं पहुंचेंगी।
आप तो वस्तविक दुनिया के सापेक्ष चलने वाली आभासी दुनिया के भी सम्राट हैं। पूरी आभासी दुनिया आपके और आपके प्रशंसकों से भरी पड़ी है। ट्विटर, फेसबुक, ब्लॉग, ऑनलाइन वेब पोर्टल हर जगह तो आप ही आप छाए हुए हैं। क्या मेरी अर्ध नग्न तस्वीरें आपको नहीं मिलतीं? मेरे दर्द से आप सच में अनजान हैं?
शायद कभी गलती से आप ख़बरें भी देखते होंगे, अख़बार भी पढ़ते होंगे, क्या कहीं भी आप मेरी व्यथा नहीं पढ़ते?
हर साल मैं मरता हूं। जय जवान और जय किसान का नारा मुझे चुभता है। जवान कुछ कह दे तो उसका कोर्ट मार्शल हो जाता है और किसान कुछ कहने लायक नहीं रहा है। क्या हमारी बेबसी पर आपको तरस नहीं आती?
मैं हार गया हूं कर्ज से। मुझसे कर्ज नहीं भरा जाएगा। न बारिश होती है, न अनाज होता है। पेट भरना मेरे लिए मुश्किल है कर्ज कहां से भरूं?
सूदखोरों, व्यापारियों, दबंगों से जहां तक संभव हो पाता है मैं कर्ज लेता हूं, इस उम्मीद में कि इस बार फसल अच्छी होगी। न जाने क्यों प्रकृति मुझे हर बार ठेंगा दिखा देती है।
मैं किसान हूं हर बात के लिए दूसरों पर निर्भर हूं। बारिश न हो तो बर्बादी, ज्यादा हो जाए तो बर्बादी। कभी-कभी लगता है कि मेरी समूची जाति खतरे में है। सब किसान मेरी ही तरह मर रहे हैं पर सरकारों के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है।
कभी मुझे आत्महंता बनना पड़ता है तो कभी मुझे राज्य द्वारा स्थापित तंत्र मार देता है। राज्य मेरी मौत का अक्षम्य अपराधी है लेकिन दोष मुक्त है। शास्त्र भी कहते हैं राज्य सभी दंडों से मुक्त होता है। कुछ जगह लिखा भी गया है कि धर्म राज्य को दंडित कर सकता है लेकिन अब तो धर्म भी अधर्मी हो गया है। वह क्या किसी को दंड देगा।
ऐसी परिस्थिति में मेरी मौत थमने वाली नहीं है।
आत्महत्या न करूं तो अपने परिवारों को अपनी आँखों के सामने भूख से मरते देखूं। यह देखने का साहस नहीं है मुझमें।
मैं भी इसी राष्ट्र का नागरिक हूं। भारत निर्माण में मेरा भी उतना ही हाथ है जितना भगोड़े माल्या जैसे कर्जखोर लोगों का। वो आपको उल्लू बना कर भाग जाते हैं। आप उन्हें पकड़ने का नाटक भी करते हैं। दुनिया भर की ट्रिटीज का हवाला देते हैं पर उन्हें पकड़ नहीं पाते हैं। वे हजारों करोड़ों का कर्ज लेकर विदेश भाग जाते हैं। विदेश में गुलछर्रे उड़ाते हैं लेकिन मैं कर्ज नहीं चुका पाता तो मेरी नीलामी हो जाती है। घर, जमीन, जायदाद सब छीन लिया जाता है। मैं बिना मारे मर जाता हूं।
आप गाय को तो कटने से बचाने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा देते हैं लेकिन जब मुझे बचाने की बात आती है तब आपके दरवाजे बंद क्यों हो जाते हैं?
जितनी पवित्रता गाय में है उतनी मुझमें भी है। गाय को तो आप बचाने के लिए समिति पर समिति बनाये जा रहे हैं लेकिन मेरे लिए कुछ करने से आप घबराते क्यों हैं? मैं ही सच्चा गौरक्षक हूं। अगर मेरे पास कुछ खाने को रहेगा तभी न मैं गायों की रक्षा कर पाऊंगा। आप मुझे बचा लीजिए मैं गाय बचा लूंगा। मां की तरह ख्याल रखूँगा।
बस मेरा कर्ज माफ कर दीजिए। मुझे जी लेने दीजिए। असमय मर जाना, आत्महत्या कर लेना मेरी मजबूरी है शौक नहीं। मैं भी जीना चाहता हूं। आपके सपनों के भारत का हिस्सा बनना चाहता हूँ। आपके मिट्टी की सेवा करना चाहता हूं। मैं भी राष्ट्रवादी हूं। भारत को गौ धन, अन्न धन से संपन्न करना चाहता हूं लेकिन ये सब तभी संभव हो सकता है जब मैं जिन्दा रहूंगा।

क्या आप मुझे मरने से रोक लेंगे?

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

किसके हैं आडम्बरहीन अम्बेडकर


वर्तमान भारतीय राजनीति में राजनीतिक विचारकों पर एकाधिकार जमाने का दौर शरू हो गया है। हर दल विचारकों पर एकाधिकार चाहता है। पार्टियाँ किसी भी विचारक को अपनाने में संकोच नहीं कर रहीं हैं चाहे उक्त विचारक उनके पार्टी के संविधान का, अतीत में धुर विरोधी और आलोचक रहा हो।  
भीम राव अम्बेडकर भी इसी राजनीतिक मानसिकता का शिकार बन गए हैं। दलितों, शोषितों और वंचितों की राजनीती करने वाली पार्टियाँ, एक ओर बाबा साहेब पर एकाधिकार चाहती हैं तो वहीँ दूसरी ओर  विरोधी पार्टियाँ भी बाबा साहब को अपनाने के लिए जी-जान से आयोजनों पर पैसे खर्च कर रही हैं। यह वैचारिक सहिष्णुता का लक्षण नहीं अवसरवादिता का लक्षण है।
बीते 14 अप्रैल को लगभग सभी राजनीतिक दल अम्बेडकर को ओढ़ते-बिछाते नज़र आये। पूरा भारत अम्बेडकरमय था। काश उनके जीवन काल में, उनके विचारों को इतने बड़े स्तर पर स्वीकृति मिल गयी होती तो शायद असमानता और सामाजिक संघर्ष की लड़ाई अब तक नहीं लड़नी पड़ती। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी महू जाकर, पूरी दुनिया को बता आये कि वे अम्बेडकर द्वारा प्रस्तावित नीतियों की वजह से प्रधानमंत्री बने हैं। इसमें कितनी सच्चाई है इसे उनकी पार्टी से बेहतर कोई नहीं जान  सकता है।  
अम्बेडकर की इस राजनीतिक स्वीकार्यता का मतलब है कि दलितों पर ध्यान देना हर राजनीतिक पार्टी की चुनावी मजबूरी है। दलितों और वंचितों की समस्याओं पर राजनीतिक रोटी सेंकनी है तो अम्बेडकर का सहारा लेना ही पड़ेगा।
हर विचारक के विचारों का, उसकी मृत्यु के बाद तमाशा बनता है लेकिन तब वह अपने कहे गए तथ्यों और कथ्यों का स्पष्टीकरण देने के लिए खुद मौजूद नहीं होता। उसके विचारों को चाहे तोड़ा जाये या गलत तरीके से अपने पक्ष में अधिनियमित कर लिया जाए वह कुछ नहीं कर सकता।
आज हर राजनीतिक पार्टी अम्बेडकर के विचारों को ताक पर रख  रही है लेकिन उनके तस्वीरों के सामने उन्हें पूजते हुए सोशल मीडिया पर अपने फोटोज डालना नहीं भूल रही है। यह राजनीती का ‘तस्वीर काल’ है।

‘एनाहिलेशन ऑफ कास्ट’ अम्बेडकर ने जातिवाद के विरोध में लिखा था, जिसमे उन्होंने कहा था कि, ‘जातिगत भेद-भाव केवल अंतरजाति य विवाह कर लेने भर से नहीं समाप्त हो जाएगा, इस भेद-भाव को मिटाने के लिए धर्म नामक संस्था से बाहर निकलना होगा।’
अम्बेडकर का यह कथन हर हिंदूवादी नेता जानता है लेकिन उनके इस कथन को समाज के निचले तबके तक पहुँचने नहीं देता है। शायद उन्हें इस बात का डर है कि जिस दिन ये तबका अम्बेडकर को जान गया उसी दिन से वो महज़, वोट बैंक का सॉफ्ट टारगेट होने तक सिमटा नहीं रहेगा।
अम्बेडकर की मूर्तियों और फोटोज पर माला चढ़ाने से ज्यादा जरूरी है   उनके विचारों को जनता तक पहुंचाना। जिस सामाजिक उपेक्षा और जाति संघर्ष के कड़वे घूँट को अम्बेडकर जीवन भर पीते रहे उन सबका समाज में मुखरित हो कर आना समाज की जरूरत है।
अम्बेडकर भारत में हमेशा प्रासंगिक रहेंगे क्योंकि जब भी कोई दलित-शोषित व्यक्ति जाति व्यवस्था के विरुद्ध में स्वर उठाएगा अम्बेडकर को उसे पढ़ना ही पड़ेगा।
अम्बेडकर, अंग्रेजों की गुलामी करने से बड़ी व्याधि हिन्दू जाति को मानते थे। भारतीय समस्याओं के मूल में उन्हें हिन्दू धर्म की जाति प्रथा नज़र आती थी जिसके लिए वे आजीवन लड़ते रहे।
हिन्दू धर्म में पैठ बना चुकी जाति प्रथा के विरुद्ध अम्बेडकर मुखर हो कर सामने आये थे। उन्होंने जाति के इस दलदल से बाहर निकलने के लिए अपने जीवन के अंतिम दिनों में जो रास्ता चुना वह उन्हें जाति  प्रथा का त्वरित निदान लगा।
यह कहना बेहद आसान है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इसलिए प्रधानमंत्री हैं कि बाबा साहेब ने संविधान में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान रखा था। प्रधानमंत्री जिस राजनीतिक पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं और जिस संगठन का स्वयंसेवक बन कर एक लम्बा वक़्त बिताया है उस संगठन का अम्बेडकर के एनाहिलेशन ऑफ कास्ट पर लिखे आलेख पर क्या विचार है ?
अम्बेडकर, भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मापदंडो पर बिलकुल भी खरे नहीं उतरते। जिस हिंदुत्व जनित अत्याचार और भेदभाव से मुक्ति पाने के लिए अम्बेडकर ने अपने समर्थकों के साथ धर्म परिवर्तन करके बौद्ध धर्म में दीक्षा ली वही हिदुत्व प्रधानमंत्री मोदी  के पार्टी का मुख्या एजेंडा है।
अम्बेडकर भारतीय जनता पार्टी को त्वरित लाभ पहुंचा सकते हैं लेकिन स्थायी नहीं। अम्बेडकर न कांग्रेस के खांचे में फिट बैठते हैं न बहुजन समाज पार्टी के, जिसका अम्बेडकर पर एकाधिकार समझा जाता रहा है। समाजवादी पार्टी लोहिया से कब की कट चुकी है वो भीम राव को क्यों याद करे?
भाजपा को सवर्णों की पार्टी कहा जाता है लेकिन हाल के चुनावों में भाजपा हिन्दू पार्टी बन कर उभरी है। न वह ओबीसी की पार्टी रह गयी है न ही सवर्णों की। उसके एजेंडे में अब दलित भी शामिल हैं जिन पर बसपा का एकाधिकार समझा जाता था।
लोकतंत्र में किसी पार्टी का व्यापक स्तर पर छाना ठीक नहीं, पर भजपा का सामना करने का साहस न सपा में है, न बसपा में है और न ही कांग्रेस में।
उत्तर प्रदेश में हुए विधान सभा चुनावों में अगर बसपा, सपा और कांग्रेस का त्रिदलीय गठबंधन होता तब भी वो ओबीसी वोटरों को मोह नहीं पाते क्योंकि जातिय समीकरणों की जगह राष्ट्रावाद और हिंदुत्व हावी हो गया है।
अम्बेडकर को अपनाने में भाजपा की व्यावहारिक कठिनाई उसकी विचारधारा है। अम्बेडकर का हिंदुत्व से ३६ का आंकड़ा है। भाजपा यदि तुष्टिकरण की नीति अपनाती है तो वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगी जो संघ कभी होने नहीं देगा। अम्बेडकर भाजपा के राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए घातक है।
भाजपा अगर दलितों को भी हिंदुत्व के रंग में रंग दे और सामाजिक समरसता पर जोर दे तो वंचित तबकों के हक़ की राजनीति करने वाली पार्टियाँ अपना जनाधार खो देंगी। ऐसा होना मुश्किल है पर भेड़ तंत्र में कुछ भी हो सकता है। अगर भाजपा अम्बेडकर को अपना सकती है तो वह सत्ता के लिए कुछ भी कर सकती है।
२०१४ के मोदी मैजिक के बाद अगर कोई भाजपा के गौ रक्षा, घर वापसी और राष्ट्रवाद वाले एजेंडे से लड़ सकता है तो वह है अम्बेडकरवादी राजनीतिक दलों का समूह पर अम्बेडकरवाद केवल विश्वविद्यालयों तक सिमटा है जिनके पास छात्रों से इतर कोई जनाधार नहीं है। वामपंथी और समाजवादी अम्बेडकर के नाम की राजनीती तो करते हैं लेकिन इनके सिद्धांतों का अनुकरण कभी नहीं करते। शायद उनके भारत में हाशिये पर रहने का यही मुख्य कारण है।  
मार्क्सवादीयों के लिए चुनौती है पहले अपने पार्टी में अन्दर तक घुसे ब्राम्हणवाद से निपटना, हिंदुत्व तो बाद की चीज़ है। जनधार तो मार्क्सवादियों के पास न के बराबर है.
समाजवादी तो परिवारवाद की भेंट चढ़ चुके हैं। लोहिया,मार्क्स,एम एन रॉय तो कब के भारत में अप्रासंगिक हो चुके हैं। इनसे राजनीतिक पार्टियों को कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। अम्बेडकर को हथियाने के लिए भाजपा ने कोई कोर कसर-नहीं छोड़ी है। बस भाजपा इसी द्वंद्व में है कि कैसे जय श्री राम और मनुस्मृति के साथ अम्बेडकर का समन्वयन करे।
फिलहाल अभी तो अम्बेडकर और हिंदुत्व दो अलग अलग धार वाली तलवारें हैं जिन्हें भाजपा के लिए एक म्यान में रखना आसान नहीं है।
-अभिषेक शुक्ल