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गुरुवार, 18 सितंबर 2014

सुरक्षित भारत की असुरक्षित महिलायें

अब अखबार पढ़ने की हिम्मत  नहीं होती है, पहले  अखबार पढ़ा  जाता  था  देश -दुनिया के हाल  के लिए पर अब अख़बारों में तो बदहाल  दुनिया की ऐसी तस्वीरें दिखती हैं जिन्हे देख कर बस छुब्ध हुआ  जा  सकता  है. पूरा अखबार खंगालने पर बस कुछ घिसे-पिटे  शब्द दिखते हैं, ''बलात्कार'', दुष्कर्म और हत्या. सारे ख़बरों  का सार बस इन्ही शब्दों के इर्द-गिर्द घूमता है.इतनी  पुनरावृत्ति तो दैनिक जीवन  में प्रयुक्त होने वाले शब्दों की नहीं होती जितनी की इन  ख़ास शब्दों   की होती है.संभ्रांत परिवारों  में हिंदी  अखबार बस ''सम्पादकीय पृष्ठ'' के लिए मंगाया जा रहा है बाकी के पन्ने घर के जिम्मेदार लोग पढ़ के फेंक देते हैं क्योंकि उन्हें भी अपने पाल्यों की चिंता है कि इन ख़बरों का उनके मासूम से मन पर क्या असर पड़ेगा. महज़ कुछ जघन्य  कृत्यों के वर्णन के अलावा क्षेत्रीय ख़बरों में होता क्या है? कभी पुलिस कि दबंगई तो कभी मनचलों कि पिटाई, कहीं किसी को ट्रक कुचलता है तो कहीं किसी को घर में घुस के गोली मारी जाती है, कभी स्कूल से आती छात्रा को अगवा कर उसके साथ कुकर्म किया जाता है तो कहीं किसी महिला के सामूहिक दुष्कर्म के बाद हत्या होती है.समझ में नहीं आता कि लोग किस हद तक गिर चुकें हैं.
        इन-दिनों कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है, कभी भी कुछ भी हो सकता है. एक लड़की जो अपने घर से पढ़ने या जॉब करने के लिए निकलती है  उसे  इस बात का डर होता है कि कुछ अनहोनी न हो जाए. घर वाले कहीं भी अकेले बेटियों को बाहर भेजने से डरते हैं कि क्या पता कब क्या हो जाए.एक बेटी का बाप इतना डरा हुआ होता कि जैसे उसने कोई गलती कर दी हो बेटी पैदा करके.कहीं न कहीं उसकी चिंता जायज है. तथाकथित मर्दों(नर पिशाचों) की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है.हर महीने  मानवता को तार-तार करता कुछ न कुछ ऐसा कृत्य हो रहा है  जिसे सुन कर रूह तक काँप जाती है.यह  कहना अनुचित नहीं होगा कि भारत महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देश है. बात चाहे  दिल्ली की हो या बदायूं या लखनऊ की हर जगह मानवता शर्मसार हुई है.
धन्य है भारत के नेता और नेत्रियां, काम पर तो इनके वर्षों से ताला लगा हुआ है काश मुहं पर लग  जाए तो लोकतंत्र  का कुछ कल्याण हो जाए. दुष्कर्मों के बढ़ते मामलों के लिए लड़कियों के पहनावे को जिम्मेदार ठहराने वाले लोगों को ये क्यों नहीं दिखता कि एक ६ साल  की बच्ची कौन से ऐसे कपडे पहन लेती है कि उसका दुष्कर्म होना अपरिहार्य हो जाता है? एक साठ वर्षीया महिला ऐसा कौन सा श्रृंगार कर सकती है जिससे कि दुष्कर्मियों को उत्प्रेरक मिल जाता है? यदि पहनावे के कारन दुष्कर्म होते तो अब तक अमेरिका में सबसे ज्यादा दुष्कर्म होते वहां तो लोग न्यूनतम कपडे पहनते हैं.वक्त कपडे नहीं विचार बदलने का है. जब विचार संकीर्ण होने लगें तो व्यक्ति को आत्महत्या कर लेना चाहिए इन नेताओं को कौन समझाए? एक तो दुष्कर्म करते हैं वहीँ दूसरे  उसे हवा देते हैं. समझ में नहीं आता की लोग इतने निर्दयी कैसे हो सकते हैं? क्या इन्हे तनिक भी भय नहीं की समाज इन्हे क्या कहेगा, खैर समाज क्या कहेगा ये दुष्कर्मी स्वर्ग से तो थोड़े ही आये हैं ये भी इसी समाज का हिस्सा हैं. जब हर तरफ भेड़िये ही भेड़िये हों तो मेमना जान किसके पास बचाने जाए.
    दुष्कर्म के लिए भारत में क़ानून १८६० वाला है संशोधन भी हुआ तो नाम मात्र का. कठोर कानून का और उसके अनुपालन की नितांत आवश्यकता है पर संसद में बैठे लोगों तक जनता की आवाज जाती कब है? साल दर साल दुष्कर्म की ख़बरें बढ़ती जा रही हैं, अपराधियों का उत्साह और बढ़ता जा रहा है पर सरकार मौन है. पीड़िता को तो दुष्कर्मियों से ज्यादा पुलिस और प्रेस का भय होता है, पूछ -ताछ के नाम पर ऐसे -ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं जो पीड़िता को भीतर तक चाल देते हैं ऊपर से प्रेस  के हज़ार सवाल, सवाल भी बिना सर-पैर वाले.
                     अगर ऐसा ही हाल रहा तो लोग बेटियां पैदा करने से डरेंगे, उनके जन्मते ही उन्हें मार देंगे क्योंकि इससे पहले दरिंदों की नज़रें उनपर पड़ें उन्हें मुक्त करना ही परिवार वाले उचित समझेंगे. श्रुति कहती है की ''जहाँ नारियों की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है'', पर जाने क्यों हमारे भारत वर्ष में पिशाचों की संख्या दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है, पूजा तो दूर की बात है नारी मुक्त होकर आज़ाद ,होकर सांस तक नहीं ले सकती. हैवानियत लोगों के सर चढ़ के बोल रही है, नारी जिसकी वजह से जीवन है प्रेम है ममता है उसी की सबसे निरीह  दशा ? ऐसा कौन सा कारण है जिससे अपने ही जने बेटे  से माँ को डर लगता है?  क्या नारी की यही नियति है की वह पुरुष के क्रूरता का विषय बने? क्या पुरुषों का यह कर्तव्य नहीं की जिनसे जीवन है उनकी रक्षा करें?
    वह व्यक्ति पुरुष नहीं हो सकता जो नारी पर अत्याचार होने दे या खुद करें, हैवानों से दो हाथ करो चुप मत बैठो, कहीं ऐसा न हो कि पैशाचिकता   इस हद तक रक्त में समाहित हो जाए कि रक्त संबंधों में भी शुचिता का ख्याल न रहे, क्योंकि एक बार जिसके सर पर हैवानियत चढ़ती है उसे किसी रिश्ते का ख्याल नहीं होता भले ही रिश्ता चाहे माँ का हो या बहन का, हैवानियत से जंग लड़ने का वक्त है न की चुप बैठने का, इससे पहले की हर गली-मोहल्ले में दामिनी काण्ड  दुहराया जाए लोगों का जागना जरूरी है..सिर्फ जागना ही नहीं  है एक जुट होकर लड़ना भी है अन्यथा भारतीय संस्कृति जिसका हम दम्भ भरते हैं को ग्लानि में बदलते देर नहीं लगेगी.
(आज दैनिक जागरण के सम्पादकीय में मेरा आलेख प्रकशित हुआ है "असुरक्षित महिलाएं'' के शीर्षक से. अगर आपने अख़बार   न पढ़ा हो सबसे पहले सम्पादकीय पढ़िए मुझे ख़ुशी होगी.
१८ सितम्बर को मैंने एक लिंक शेयर किया था शायद आपने मेरे ब्लॉग पर पहले ही पढ़ लिया हो  वैसे भी घर वालों को सबकुछ सबसे पहले पता होना चाहिए.आज औसत से ज्यादा खुश हूँ १८ को लिखा २० को अखबार में प्रकाशित हो गया)

12 टिप्‍पणियां:

  1. पाता नहीं समय के साथ साथ सोच को क्या होता जा रहा है ... ज्यादा से ज्यादा गंदा होने की होड़ सी लगी हो जैसे ...

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  2. सहमत हूँ सर पर इस दौड़ का कोई अंत क्योँ नहीँ होता?

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  3. वाह बहुत ही उम्दा विचार है आपके अभिषेक जी

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  4. अखबार में प्रकाशन के लिए बधाई. सटीक लिखा है.

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