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शुक्रवार, 21 अगस्त 2015

समस्याओं के चक्रव्यूह में देश

भारत कलह,अराजकता और समस्याओं का देश है। भारत की दासता के पीछे भी यही कारण थे अन्यथा गोरों में इतनी ताकत नहीं थी जो भारतियों को गुलाम बना लेते। तब भी भारतीय जनता शोषित हो रही थी आज भी भारतीय जनता शोषित हो रही है अन्तर बस इतना सा है कि तब हमें विदेशी रुला रहे थे और आज रोने वाले भी भारतीय हैं और रुलाने वाले भी। तब हमारी आवाज ब्रिटिश हुक़ूमत गोलियों से, फाँसी से और कोडों से दबा देती थी और आज अगर जेब में पैसे न हों तो आवाज अपने आप दब जाती है बिना किसी बाह्य प्रयत्न के। आज हम भ्रष्टाचार के साए में जी रहे हैं और दुर्बल या सशक्त हम पैसों के हिसाब से होते हैं।
इन दिनों असुरक्षा की अजीब सी भावना मन में पनप रही है। हर पल यही लग रहा है कि कहीं कुछ अनहोनी न हो जाए।ये डर केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं है वरन राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है।
विगत दो वर्षों में विज्ञान ने जितनी उन्नति की है उतना ही डर भी पैदा किया है। हथियारों को विश्व में अनाज की तरह ख़रीदा है। हमारे पडोसी राष्ट्रों ने तो हथियार ख़रीदने और आतंक मचाने को अपना राष्ट्रीय कार्यक्रम बना लिया है। इनके हथियार खरीदने का मकसद अपनी सुरक्षा नहीं भारत में नरसंहार करना है। पूरी दुनिया जानती है कि भारत में आतंकी गतिविधियों के पीछे किसका हाथ है फिर भी संयुक्त राष्ट्र संघ को नहीं दिखता क्योंकि हमारे संसद को ही कुछ नहीं दिखता।जब हमारे लोग मारे जाते हैं तो हमें ही कोई फर्क नहीं पड़ता तो दुनिया को क्यों पड़े। हमारे देश में न सैनिकों के जान की कोई कीमत है न आम जनता के जान की।
किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र की संसद उस राष्ट्र की सबसे शक्तिशाली और बुद्धिमान संस्था होती है। भारत में तो संसद तो कुछ अधिक ही सक्षम है।
दो सदन हैं राज्य सभा और लोक सभा। राज्य सभा को विद्वानों का गृह कहा जाता है क्योंकि राष्ट्र के विद्वान और अनुभवी राजनीतिज्ञों का जमावड़ा यहीं लगता है, विभिन्न क्षेत्रों से इसके सांसदों का चुनाव किया जाता है किन्तु यहाँ भी आज-कल एक सूत्रीय कार्यक्रम चल रह है संसद को ठप्प करने का। पता नहीं क्यों भारत में कोई भी पार्टी विपक्ष में जैसे ही जाती है कट्टर ईमानदार बन जाती है और सत्तारूढ़ सरकार का विरोध करना राष्ट्रीय धर्म।
ख़ैर बात चाहे राज्यसभा की हो या लोकसभा की हर जगह वामपंथियों का उत्पात है।
किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष का कार्य सरकार को दिशा निर्देश देना है, उन विषयों पर विरोध करना है जहाँ पर सरकार का काम गलत हो लेकिन भारत में तो उल्टा नियम चल रहा है। यहाँ बेहद संवेदनशील विषयों पर भी हंगामा किया जाता है। मुद्दा चाहे राष्ट्रीय सुरक्षा की हो या विकास की सरकार और विपक्ष की निरर्थक बहस चलती रहती है,  कोई आम सहमति नहीं बन  रही है।
भारत की कलहप्रिय राष्ट्र भी है।यहाँ का कलह प्रेम तो युगों-युगों से विख्यात है। त्रेता , द्वापर और अब कलियुग हर  युग में कलह का क्रमिक विकास हुआ है। घर से लेकर संसद हर जगह समान रूप से यह विद्यमान है। संसद में तो आज-कल अलग ही नजारा है। राजनीतिज्ञों की कलह जनता को खून के आँसू रुला रही है। जिस परिवार में कलह हो वह परिवार भ्रष्ट हो जाता है....किसी कवि ने कहा भी है-
"संसार नष्ट है भ्रष्ट हुआ घर जिसका।"
कुछ ऐसी ही विषम परिस्थितियां हैं मेरे देश में। जब देश में इतना कलह है तो पडोसी राष्ट्र क्यों न हमें तबाह करने के लिए हाथ आजमाएं। तभी तो रोज घुसपैठ होती है। जब घर के दाम खोटे हों तो परखने वाले का क्या दोष?
रोज़ आतंकवादी हमले हो रहे हैं। नक्सलवाद की आग में देश जल रहा है। नक्सली देश की व्यवस्था या सरकार से रुष्ट लोग नहीं हैं बल्कि विदेशी शक्तियों से दुष्प्रेरित लोग हैं जिन्होंने देश को कुरुक्षेत्र बना दिया है।
मुद्दे और भी हैं, विपदाएँ और भी हैं, शिकायतें और भी हैं। भारतीय जनमानस व्यथित है। देश की दुर्दशा देखि नहीं जा रही है। देश के वीर सपूत मर रोज़ शहीद हो रहे हैं, आतंकवादी गाज़र-मूली की तरह इंसान काट रहे हैं। मुट्ठी भर की जनसँख्या वाला देश पाकिस्तान हमारे खिलाफ जहर उगल रहा है, दहाड़ रहा है, तेवर दिखा रहा है, धमकी दे रहा है। सरकार हर बार शहादत पर दो सांत्वना के बोल बोलकर चुप हो जाती है। आतंकवादी हमलों पर भी राजनीती की जाती है। झूठी संवेदनाओं का कुछ दिन दौर चलता है। कुछ घड़ियाली आंसू,कुछ वादे और कुछ सांत्वना के शब्द..हद है राजनीति की भी। केंद्र तो कई बार गंभीर दिखती है पर प्रदेश सरकारों के बयान तो समझ से परे होते हैं, कई बार विदूषकों के जैसे वक्तव्य आते हैं।
प्रदेश की व्यवस्था देख नहीं पाते केंद्र को कोसने पहले कूदते हैं। आम जनता  व्यथित है और ये सच है कि समस्याओं को सुलझाने वाला कोई नहीं है। नेता लूटने-खसोटने में व्यस्त हैं। विचित्र परिस्थितियों ने जन्म लिया है। मन बहुत दुखी है..हे ईश्वर! कुछ तो मार्ग बताओ। अब परिस्थिति नियंत्रण से बाहर हो रही है।

3 टिप्‍पणियां:

  1. आप भी क्या विषय ले बैठै यह तो युगों पुरानी बीमारी जनता को हैं जो मात्र १०० रूपये ले
    इनके जलूस धरनों में शामिल होती हैं यहाँ भगवान किराये पर , इंसान किराये पर ( अमुक काम के बदले अमुक पूजा /धन ) वहाँ यह तो होता रहेगा मीडीया / बुद्धिजीवी जाग + रूक हैं - पथिक अनजाना

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-08-2015) को "समस्याओं के चक्रव्यूह में देश" (चर्चा अंक-2076) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. नियंत्रण से बाहर ... पर कौन संभालेगा इसे ... हर कोई अपनाप को राजा समझता है यहाँ ... नेता, मीडिया, विरोधी ... दादागिरी करते लोग ...

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