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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

याद आया मनभावन सावन

सावन लग गया है लेकिन पता नहीं चल रहा है।
आज गाँव की बहुत याद आ रही है। मेरे मन में
जो छोटा सा कवि बैठा है न वो इस महीने में
कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो जाता था गाँव
में। जब बारिश होती थी तो अक़्सर मैं भीगते
हुए निकल पड़ता था खेतों की ओर....बादलों
से बात करने। मेरे खेत के आस-पास खूब सारे
तालाब हैं। बारिश में तालाब की सुंदरता कुछ
अधिक ही बढ़ जाती है...हरी-भरी धरती और
सुन्दर सा गगन...इसी ख़ूबसूरती को टटोलने मैं
घर से निकलता था..कभी अकेले तो कभी दो-
चार छोटे बच्चों के साथ...हाँ बच्चों के साथ
घूमना मुझे बेहद पसंद है..सावन जितना ही...।
पुरवाई हवा...काले बादल...खूबसूरत मौसम
भला किसे न अपनी ओर खींच ले....पर याद
सिर्फ इसीलिए नहीं आई है...
सावन भर गाँवों में गली-गली में आल्हा और
कजरी गाया जाता है। कजरी महिलाएं
गाती हैं और पुरुष लोग आल्हा। मुझे दोनों बहुत
पसंद है। शाम को जब भी कोई काकी या
भौजी, अम्मा(दादी) से मिलने आतीं तो मैं
उनसे कजरी ज़रूर सुनता...एक हैं पड़राही
भौजी...दादी के उम्र की हैं पर भौजी लगती
हैं...मज़ाक भी खूब करती है...उनके गाने का तो
मैं फैन हूँ। कजरी ऐसे गाती हैं जैसे आशा ताई
गा रही हों।
सावन व्यर्थ है अगर आल्हा न सुना
जाए.आल्हा सुनाते हैं बेलन भाई....वीर रस का
क्या अद्भुत गान है आल्हा। बेलन भाई का
अंदाज़ भी निराला है जब आल्हा सुनाते हैं
तो खुद ही सारे चरित्र निभाने लगते हैं..सावन
भर बेलन भाई रात को आल्हा सुनाते..एक
लड़ाई ख़त्म होती की दुसरे की ज़िद
करता..10 बजे से कार्यक्रम 12 बजे रात तक
चलता..गाँवों में इतनी रात तक कोई नहीं
जगता..पर मैं, पापा, मम्मी और अम्मा
श्रोता मण्डली में थे..बेलन भइया भी पूरे मन से
सुनाते..जब थक जाते तो कहते- "बाबू अब नहीं
होस् परत थै, भुलाय गय हन, बिहान पढ़ि के
आइब तब सुन्यो।"
रात के एक बजे घर पहुँचते थे भइया भौजी तो
उन्हें बेलन से ही पीटती रही होंगी..पर बताते
नहीं थे...कहते बाऊ तोहार भौजी लक्ष्मी
हिन्...
मैं भी कहता हाँ भइया..सही कहत हौ।
आल्हा और ऊदल का रण कौशल इतना अद्भुत
था जैसे साक्षात् शिव ताण्डव कर रहे हों...
एक पंक्ति है-
"खींच तमाचा जेके हुमकैं निहुरल डेढ़ मील ले
जाय"
आज ऐसे भारतीय होने लगें तो चीन को हम
अंतरिक्ष में फेंक देते।
जीवन का वास्तविक सुख गाँव में ही है...मेरे
मन में बसा छोटा सा साहित्यकार अक्सर
अपना गाँव खोजता है.....मन तो उसका वहीं
रमता है।
करीब चार साल हो गए सावन घर पर बिताए
हुए...मेरठ में तो किसी मौसम का पता ही
नहीं चलता...हमेशा पतझड़ का एहसास होता
है...पता नहीं क्यों...
न यहाँ झूले दिखते हैं न हरे-भरे खेत..न धान की
रोपाई करते लोग गीत गाते हैं...न ही मिट्टी
में वो सोंधी सी खुशबू है जो मेरे गाँव में
है।....आज फिर मन कह रहा है चलो कुछ दिन
रहते हैं गाँव में...घुमते हैं खेतों में..भीगते हैं
बारिश में...बन जाते हैं एक छोटा सा
बच्चा..बच्चों की टोलियों में...शहर के
बनावटीपन से दूर...चलो बिताते हैं कुछ
पल...अपने साथ....अपनों के साथ.....।

4 टिप्‍पणियां:

  1. ढ़ोलक की तान पर आल्हा मैने भी सुना है।खूब आनन्द आता था सुननें में।मैं तो गाँव में ही हूँ।पर जो गाते थे वो नहीं रहे।अतीत की याद दिलाती रचना।अति सुन्दर रचना शुक्ला जी।

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  2. ढ़ोलक की तान पर आल्हा मैने भी सुना है।खूब आनन्द आता था सुननें में।मैं तो गाँव में ही हूँ।पर जो गाते थे वो नहीं रहे।अतीत की याद दिलाती रचना।अति सुन्दर रचना शुक्ला जी।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-08-2015) को "भारत है गाँवों का देश" (चर्चा अंक-2062) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. अतीत कि यादें समेटे सुंदर रचना.

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