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रविवार, 4 जनवरी 2015

ख़्वाब बिकते हैं।

ख़्वाब बिकते हैं
हमारे
मुल्क में
कभी कीमत
 तय
होती है
तो कभी
कोई कीमत ही नहीं
 लगती
सुकून की तरह
छिनते हैं
मासूम ख्वाब भी;
वे ख़्वाब जिन्हें हम
संजोते हैं
जिन्हें
पूरा करने की
तमन्ना लिए
होते हैं
हमारे रात-दिन
बिकते हैं
वही ख़्वाब
माटी के मोल;
कुछ सौदागर
सपनों का भी
सौदा करते हैं
कुछ कहूँ कैसे
ख़्वाब
बिकते हैं
हमारे मुल्क में।

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