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गुरुवार, 13 मार्च 2014

ग्लानि

इतिहास के पन्नों पर
उकेरे गए
कुछ तथ्यहीन
सत्य,
भय लगता है
 जिनके
 स्मरण से ही
वे अक्सर सामने आते हैं.


कभी प्रथा बनकर
तो
कभी रूढ़ि बनकर,
कहीं दहेज़
तो
कहीं अंतरजातीय  
विवाह के विरोध के
मुखरित स्वर बन कर.
खून बहते हैं
पानी की तरह,
मानवता
बस ''शब्द'' मालूम
पड़ता है
दबा-कुचला
किताबों के फटे पन्नों में.
प्रेम है आज भी सहज कब?
वर्जनाएं
पग-पग पर हैं
 इस पथ पर,
आहत हो जाता है
आत्मसम्मान
अभिभावकों का
प्रेम से,
जैसे सबसे जघन्य अपराध
प्रेम ही हो.
कुरीतियां जो व्याप्त हैं
समाज में
उनपर
पर्दा डालना ''इज्जत''
बचाना है,
और
अमानवीय परंपरा तोडना
अपराध है
जिसके लिए
मृत्युदंड  भी कम है.
बेटा गलती करे
तो उसकी माफ़ी है
पर
बेटी को मारने
की
परिपाटी है.
हाय रे समाज!
कितनी रूढ़ियाँ हैं
पग-पग पर.
बेड़ियां हैं
कभी रस्म बनकर
कभी रिवाज़ बनकर.
जलायी जाती हैं
निर्दोषों की चिताएं .
मानव की बस्तियों में
पिशाचों
की संख्या
इतनी अधिक कैसे
कहीं
मानव  
विलुप्त तो नहीं हो गया?
प्रथा की शक्ल में
कुरीति
रूढ़ियाँ
जिन्हे हम धो रहे हैं
बुजुर्गों की थाती की तरह
पीढ़ी दर पीढ़ी;
जिन
प्रथाओं  ने  मानवता  को
दूषित किया
उन्हें हमने
परंपरा कहा,
क्या सभ्यता है
परित्यक्त को अंगीकार कर
गौरवान्वित
होते हैं.
बुराइयों पर गर्व
ढोंग का शंखनाद
कैसी सभ्यता है
हम भारतियों की?
                           (चित्र गूगल से साभार)





5 टिप्‍पणियां:

  1. achcha likha hai.. samaj ka chitran sundar shabdon mein kiya hai aapne.

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  2. ये गलत प्रथाएँ हैं ... भ्रांतियां हैं जो समाज में पैदा हुई हैं अनेक वर्षों में .. इनको दूर करना ... इनसे निजात पाना है ... ऐसा नहीं है कि ये सभ्यता ही गलत है ...

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