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बुधवार, 26 सितंबर 2012

.........बचपन .......

'' जब मैं छोटा बच्चा था,
 बस्ते में किताबें होती थी,
 हम चलते चलते थकते थे ,
 राहें कंकर की होती थीं .
 टेढ़े मेढ़े रास्तों में हम
 अक्सर गिर जाते थे ,
सड़कों को पैर से मार मार कर,
 भैया दिल बहलाते थे ,
मैं तो रो पड़ता था हरदम,
 आग उगलती गर्मी से ,
भैया मुझको गोद उठता,
 मम्मी जैसी नरमी से ,
जिन राहों से हम आते थे,
 थे वह बंजारों के डेरे ,
जब हम उनको दिख जाते थे ;
 मोटी मोटी लाठी लेकर,
 आस पास मंडराते थे,
 तब जब पीछे से एकदम,
 भैया जब आ जाता था,
 सबको मार मार कर,
ताड़ी पार कर आता था ,
 मुझको अब भी याद आती हैं,
भूली बिसरी सारी बातें ,
 जाने क्यों चुप चाप कही से ,
 भर आती हैं मेरी आँखें ,
 आज बदल गया है सब कुछ ,
सब कुछ फीका फीका है,
 मतलब की दुनिया है यारों,
 कोई नहीं किसी का है ,
 अब भी पढ़ते हैं हम सब,  
सब कुछ बदला बदला है,
 कही धुप कही छावं है,
 कुछ भी नहीं सुनहरा है,
 सड़के पक्की हो गयी अब तो ,
 पर उनमें है खाली पन,
 मुझको अक्सर याद आता है,
अपना प्यरा प्यारा बचपन ......''

रविवार, 16 सितंबर 2012

कवी

इन दिनों कुछ अजीब सा लग रहा है, कुछ लिखना चाहता हूँ पर शब्द साथ ही नहीं देते जैसे मैंने इन्हें कोई छति पहुचाया हो -
 न मैं कवी हूँ,
   न कवितायें मुझे अब,
रास आती हैं,
मैं इनसे दूर जाता हूँ,
ये मेरे पास आती हैं,
हज़ारों चाहने वाले पड़े
हैं इनकी राहों में,
मगर कुछ ख़ास
मुझमें है,
ये मेरे साथ आती हैं.




''कई चाहत दबी दिल में,
 जो अक्सर टीस भरती हैं,
 मेरे ख्यालों में आकर.
 मुझी को भीच लेती हैं ,
 कई राहों से गुजरा हूँ ,
दिलों को तोड़कर अक्सर ,
 मगर कुछ ख़ास है तुझ में,
 जो मुझको खींच लेती है ...

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

व्यथा

जब परिस्थितियां परिहास करें तो जाने क्यों दुःख होता है . यह हर कोई जनता है की प्रारब्ध में जो लिखा होता है वही होता है किन्तु यह जानते हुए हम दोष विधि को देते हैं ; इसमें हमारी गलती नहीं , मानव स्वाभाव ही ऐसा होता है. एक कहावत मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ की बकरी की माँ कब तक खैर मनाएगी? एक न एक दिन तो उसे काटना ही है. कब तक हम अपने प्रारब्ध से बचेंगे ? आज सुबह सुबह मैं सीढियों से उतर रहा था की अचानक सीढियों से पैर फिसला और मैं निचे पहुच गया . चोट बहुत आई और दर्द असहनीय है, किन्तु विवशता देखिये पीड़ा को आनंद में बदलना पद रहा है . विगत कई दिन से मैं अवसाद में हूँ जनता नहीं क्यों पर हर पल घुटन भरा होता है. किसी ने क्या खूब कहा है '' अगर आप शांति चाहतें है तो युद्ध के लिए तैयार रहें.'' मैं भगवन से प्रार्थना करता हूँ की सब कुछ ठीक हो पर कुछ ठीक नहीं होता . भगवन भी बड़े विवश और लचर हैं , किस किस की सुने ? सुनाने वाले हज़ार और सुनने वाला कोई नहीं .एक पक्षीय वार्तालाप करे तो किस से ? भक्त तो सभी हैं पर परम प्रिय भक्त तो कुछ एक ही होते हैं . मैं भागवान पर पक्षपात का आरोप नहीं लगा रहा पर कुछ तो अनुचित है जो मुझे वेदना में खीच रहा है. मेरी स्थिति कुछ ऐसी है
 '' किसी की जिन्दगी मैं जी रहा हूँ ,
हमारी मौत कोई मर रहा है. ''

बुधवार, 5 सितंबर 2012

प्रश्न

क्यों दुःख होता है दुःख में ;
 क्यों सुख होता है सुख में;
 क्या यही भाग्य अवलोकन है?
 क्या यही विधाता का मन है?
क्यों दुःख होता है दुःख में ;
 क्यों सुख होता है सुख में;
 क्या यही भाग्य अवलोकन है?
 क्या यही विधाता का मन है?
 मैंने बस दुःख को जाना है ,
इक दुखद स्वप्न इसे माना है
 यह वैतरणी की धरा है ,
 इसे पार कर के कुछ पाना है.
 इस लघु जीवन में कष्ट बहुत हैं ,
 पग-पग पर बाधाएँ हैं ,
 जो तनिक मार्ग से भटक गए,
 मुंह खोले विपदाएं हैं ;
 सुख के साधन का पता नहीं ,
दुःख परछाईं जैसे चलता ,
अनुसन्धान करूँ कैसे ?
 जब मन में रही न समरसता ;
 अब बार- बार क्यों भटक रहा,
 क्या मार्ग मिलेगा मुझे कहीं?
 या चिर निद्रा में सो जाऊं?
 मिट जाएगा संताप वहीँ .....................

संताप

कुछ कहने से डर लगता है
 जाने क्या होगा अंजाम मेरा,
मेरी रूह कांपती है अक्सर
 कैसे होगा सब काम मेरा ,
 मेरी राहें सब से जुदा हैं क्यों?
 कुछ करता हूँ कुछ हो जाता है,
जिन राहों से गुजरता हूँ मैं.
  कुछ न कुछ खो जाता है ;
भूली बिसरी रातों ने
 कुछ ऐसे दर्द दिए हैं मुझे ,
मैं भूलूं तो याद आती हैं ,
मैं अब तक भूल सका न जिन्हें ,
 शायद वो पहली गलती थी ;
जब जज्बातों ने दम तोडा था
 मैं सीधा सदा बच्चा था,
मेरी राहों में सौ रोड़ा था ,
 हर बाधा मैंने पार किया
 गिर गिर कर उठाना सीखा ;
सब कुछ अपना मैं वार दिया
, मेरे वार पे जो प्रहार हुआ
 उसका कटु अनुभव अब तक है
' जो भौतिकता ने छीना था;
 वह अदभुत कलरव अब तक है
 जब शून्य हो गयी थी स्मृतियाँ ,
 भव शून्य हो गया था जीवन ,
 बस अधरों में मैं विस्मृत था
 न जड़ ही रहा न रहा चितवन .
 संकल्पों का संधान किया 
मैंने पहला विषपान किया ;
 धर्म- कर्म था था भूल चूका ,
 विधि में मैंने व्यवधान किया .
 अब भूल रहा शैनः शैनः ,
 अपने अर्जित उन पापों को ;
 जब मृत्यु मेरी आ जाएगी
 तब भूलूंगा संतापों को ..............................

रविवार, 2 सितंबर 2012

.. अधूरा लगता है.........

अधूरा लगता है ये चाँद जैसे इन तारों ने अकेला छोड़ दिया हो तन्हा सिर्फ तन्हा ; चांदनी रात में ठंडी हवाएं जो कभी सुकून देती थी अब आग लगती हैं ; लफ्जों की हकीक़त सामने आकर, तन्हाई के लिबास में सिसकियाँ भारती है साथ है तो बस तान्हापन ; वक़्त के थपेड़ों ने जर्जर कर दिया है न साँसे थमती हैं न नब्ज; सब कुछ ठहरा- ठहरा क्यों लगता है ? रेतों के मकान में रह- रह कर जीना तो सीख लिया है जीना तो सीख लिया है , कायनात की तबाही भी अब अनजान नहीं है ; वक़्त के दिए हजारों जख्म अब भी दुखते हैं ; हकीक़त के लहरों ने केवल तड़प दी है वरना साहिल पे भटकना तो आदत है..............