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रविवार, 16 सितंबर 2012

कवी

इन दिनों कुछ अजीब सा लग रहा है, कुछ लिखना चाहता हूँ पर शब्द साथ ही नहीं देते जैसे मैंने इन्हें कोई छति पहुचाया हो -
 न मैं कवी हूँ,
   न कवितायें मुझे अब,
रास आती हैं,
मैं इनसे दूर जाता हूँ,
ये मेरे पास आती हैं,
हज़ारों चाहने वाले पड़े
हैं इनकी राहों में,
मगर कुछ ख़ास
मुझमें है,
ये मेरे साथ आती हैं.




''कई चाहत दबी दिल में,
 जो अक्सर टीस भरती हैं,
 मेरे ख्यालों में आकर.
 मुझी को भीच लेती हैं ,
 कई राहों से गुजरा हूँ ,
दिलों को तोड़कर अक्सर ,
 मगर कुछ ख़ास है तुझ में,
 जो मुझको खींच लेती है ...

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