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शनिवार, 17 मार्च 2018

क्योंकि साहित्यकार पत्रकार नहीं है



जीवंत किरदारों से प्रेरणा लेना हर लेखक का सामान्य व्यवहार है लेकिन जब लेखक किसी जीवंत किरदार का पीछा करने लगता है तो वह अनभिज्ञता में ही सही, अपने लेखकीय धर्म को तिलांजलि दे रहा होता है। किरदारों का पीछा पत्रकार करते हैं, साहित्यकार नहीं। साहित्य पत्रकारिता नहीं है।

कार्यव्यवहार की दृष्टि से साहित्यकार का काम पात्र रचना है, प्रपंच रचना नहीं। प्राय: ऐसा होता है कि किसी वास्तविक जीवन के किरदार से प्रभावित होते हुए साहित्यकार उसका पीछा करने लगते हैं। किसी किरदार को वास्तविक बनाने के प्रयास में किरदार को ओढ़ने-बिछाने लगते हैं। वहीं साहित्य का उसके मूलधर्म से विलगन हो जाता है।

अनुगामी होकर सब कुछ रचा जा सकता है लेकिन साहित्य नहीं क्योंकि साहित्यकार किसी का अनुगामी नहीं होता, जो होता है वह कुछ और ही होता है, साहित्य से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

वास्तविक जीवन के किरदारों से प्रभावित होकर किरदार गढ़े जाते हैं। ध्यान रहे, सिर्फ प्रभावित हुआ जाता है, किसी किरदार को अक्षरश: लिख नहीं दिया जाता है। कल्पना लेखक के लिए तूलिका की तरह है।
कोरे पन्नों पर छवि उकेरी जाती है। रंगमंच गढ़ा जाता है। कल्पित पात्र रचा जाता है। कल्पना को विस्तार दिया जाता है लेकिन किसी की जीवनी नहीं लिखते।

व्यक्तिगत लेखन, लेखनी के लिए विष की तरह होता है। किसी पर व्यक्तिगत प्रहार यदि लेखक को सीधे तौर पर करना पड़ा तो उसे बौद्धिक रूप से अपंग ही कहा जाएगा।  कल्पना का विस्तार व्यक्ति को सार्वभौमिक बनाता है। किसी रचना को कालजयी बनाने की कला भी कल्पना शक्ति में ही निहित है, प्रपंच में नहीं।

पत्रकार जीवन भर लिखते हैं। सच लिखते हैं। यथार्थ भी। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर किसी को पत्रकारों के नाम याद नहीं रहते क्योंकि जाने-अनजाने में उन्हें भी वास्तविक किरदारों के पीछे भागना पड़ता है। किरदार तो वक़्त के साथ बदलते रहते हैं पर पत्रकार वहीं टिके रह जाते हैं। इसलिए इतिहास दोनों को भुला देता है।

पात्र बदलते रहते हैं। गतिशील जगत में भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी स्थाई नहीं है। जीवन-मृत्यु भी नहीं। जिसे विधि गढ़ती है उसके भी किरदार बदलते रहते हैं। लेकिन जिन किरदारों को व्यक्ति रचता है वह स्थाई हो जाते हैं।

सिनेमा, साहित्य, कला, रंगमंच सैकड़ों उदाहरण हैं जहां किरदार अमर रह जाते हैं। कोई उन्हें रच कर चला जाता है, कोई उनमें नई संभावनाएं तलाशता है। सृजन स्थाई है, कहानियां बार-बार पढ़ी जाती हैं, ख़बर दोबारा नहीं पढ़ी जाती जब तक प्रश्न आजीविका से न जुड़ा हो।



सत्य को प्रत्यक्ष रूप से भी कहा जा सकता है, परोक्ष रूप से भी। साहित्य में प्रत्यक्ष को भी परोक्ष रूप से कहने की परंपरा है। प्रेमचंद ने भी सत्य कहा है, प्रसाद ने भी। महादेवी, अज्ञेय और बच्चन ने भी। सबने भोगा हुआ यथार्थ लिखा है लेकिन सबके कहने का ढंग अलग था। पहले पात्र रचा, फिर बात कही। किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं लगाए। बच्चन का सत्य अज्ञेय या धर्मवीर भारती का सच नहीं है। उन्होंने यथार्थ लिखा। अपना यथार्थ, किसी और का नहीं।

अज्ञेय ने न जाने किसे लिखा, पर चरित्र रच दिया। सच कह दिया। बता दिया कि विरूपता ही असली मनोविज्ञान है। मानव, जिन संबंधों को पवित्र समझता है, उन्हें आदिम मानव कुछ और ही समझता। सामाजिक बंधन थोपे जाते हैं, स्वाभाविक नहीं होते। बच्चन ईमानदार थे। उनमें सच कहने की क्षमता थी लेकिन कल्पना के पुट के साथ। उनकी आत्मकथा को भोगा हुआ यथार्थ नहीं कहा जा सकता।

सृजन की राह पर चलने वाले पथिक यदि वास्तविक जीवन के किरदारों का पीछा करते हैं तो उन्हें अपयश के अतिरिक्त कुछ और हासिल नहीं होता। किरदारों के पीछे भागते-भागते प्रपंच मनोवृत्ति बन जाती है। सामान्य व्यक्ति के लिए प्रपंच उसकी ज़िंदगी का हिस्सा होता है लेकिन लेखक के लिए नहीं। बचना चाहिए। ऐसा यथार्थ क्यों लिखना जिसे पढ़कर खेद हो, क्लेश हो और लोग आहत हों। लेखक का अपराध बोध ह्रदय विदारक होता है। शनै: शनै: वह अवसादी बनने लगता है।

अवसाद ही मृत्यु है। हालांकि उसके अवसादी होने में भी समाज का हित छिपा होता है। लेखक जब अवसाद में होता है तो सृजनशीलता स्वत: बढ़ जाती है। उसका अवसाद जग के लिए मनोरंजक होता है।

संबंध जोड़ने के लिए होते हैं। उन्हें तोड़ने का माध्यम न बनें। सृजक बनें, ध्वनिविस्तारक नहीं। लिखें, प्रपंची न बनें। आपके भविष्य के लिए ज़हर है, आपका प्रपंची होना। ख़बर लिखेंगे या ख़बर बनेंगे फ़ैसला आपका है। सृजन का वृक्ष बनना है या आभासी दुनिया में 300 शब्दों की छोटी सी ख़बर, जिसका प्रकाशन प्राथमिकता के हिसाब से तय होता है, ऐसी ख़बर जिसे लिखने वाला ही याद नहीं रख पाता।

अंत में,

व्यक्तित्व का विस्तार ही जीवन है। इसमें निर्बाध रूप से बहते रहें, आप का सृजन किसी के पांव का कांटा न बने। चुभे न। सृजन का आधार यही है। स्वांत: सुखाय रचना की नींव में बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का मंत्र छिपा होता है। अदृश्य रूप से। इसकी अनुभूति तभी होगी जब आप सृजक बनेंगे, प्रपंची नहीं।

शुभमस्तु।

(भइया ने समझाया है, मैंने बस टाइप ही किया है)


(फोटो स्रोत: www.pexels.com)

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-03-2018) को ) "भारतीय नव वर्ष नव सम्वत्सर 2075" (चर्चा अंक-2914) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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    1. आभार, आपने मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान दिया.

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  2. आपकी लिखी रचना आज "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 21मार्च 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. आभार भाई साहब. आपको भी नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं.

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  4. बेहतरीन वैचारिक अभिव्यक्ति‎ .

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  5. अभिषेक आप मुझसे छोटे ही होंगे लेकिन इस लेख के लिए प्रणाम आपको !!!! नमन आपकी प्रतिभा को !

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