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मंगलवार, 20 मार्च 2018

मेरी किताबें अब अलमारियां पढ़ती हैं




अब मैंने पढ़ना छोड़ दिया है। मेरी किताबें, अलमारियां रोज़ पढ़ती हैं। उनसे जो छूट जाता है, उन्हें मेरा बैग पढ़ता है। मेरे कमरे में अलमारी, बैग, रैक, दरी, चटाई, बेड सब पढ़ने वाले बन गए हैं। जबसे उन्होंने पढ़ना शुरू किया है, मेरा पढ़ने का मन ही नहीं करता।

कई बार सोचता हूं जब रूम में इतने पढ़ाकू हैं तो उनसे कुछ पूछ लिया जाए, घंटों पूछता हूं पर कुछ बोलते ही नहीं। मेरे घर में पड़े सामान बहुत ढीठ हो गए हैं।

उनकी चुप्पी बिलकुल मेरी तरह हो गई है। जैसे मेरा हाल गणित वाली घंटी में हो जाता था, चुप, सन्न, शांत; ठीक वैसे ही।

मेरे हाथ पर तो बेहया के डंडे पड़ते थे लेकिन इन्हें तो मैंने कभी मारा ही नहीं। न ही इनसे मेरा गुरु और शिष्य का संबंध है। इनकी चुप्पी मुझे बहुत अखरती है।

मुझे भरोसा है, किसी दिन मैं यह समझ जाऊंगा कि मुझमें और इनमें कुछ भी अंतर नहीं। इन्हें भी कुछ नहीं आता और मुझे भी कुछ नहीं आता। फिर उसी दिन हमारी कट्टी ख़त्म हो जाएगी और ये मुझसे कहेंगे "दाल, भात, मिट्ठी, कब्बो न कट्टी।"

-इनका अभिषेक।

(फोटो स्रोत- फ्लिकर)

शनिवार, 17 मार्च 2018

क्योंकि साहित्यकार पत्रकार नहीं है



जीवंत किरदारों से प्रेरणा लेना हर लेखक का सामान्य व्यवहार है लेकिन जब लेखक किसी जीवंत किरदार का पीछा करने लगता है तो वह अनभिज्ञता में ही सही, अपने लेखकीय धर्म को तिलांजलि दे रहा होता है। किरदारों का पीछा पत्रकार करते हैं, साहित्यकार नहीं। साहित्य पत्रकारिता नहीं है।

कार्यव्यवहार की दृष्टि से साहित्यकार का काम पात्र रचना है, प्रपंच रचना नहीं। प्राय: ऐसा होता है कि किसी वास्तविक जीवन के किरदार से प्रभावित होते हुए साहित्यकार उसका पीछा करने लगते हैं। किसी किरदार को वास्तविक बनाने के प्रयास में किरदार को ओढ़ने-बिछाने लगते हैं। वहीं साहित्य का उसके मूलधर्म से विलगन हो जाता है।

अनुगामी होकर सब कुछ रचा जा सकता है लेकिन साहित्य नहीं क्योंकि साहित्यकार किसी का अनुगामी नहीं होता, जो होता है वह कुछ और ही होता है, साहित्य से उसका कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

वास्तविक जीवन के किरदारों से प्रभावित होकर किरदार गढ़े जाते हैं। ध्यान रहे, सिर्फ प्रभावित हुआ जाता है, किसी किरदार को अक्षरश: लिख नहीं दिया जाता है। कल्पना लेखक के लिए तूलिका की तरह है।
कोरे पन्नों पर छवि उकेरी जाती है। रंगमंच गढ़ा जाता है। कल्पित पात्र रचा जाता है। कल्पना को विस्तार दिया जाता है लेकिन किसी की जीवनी नहीं लिखते।

व्यक्तिगत लेखन, लेखनी के लिए विष की तरह होता है। किसी पर व्यक्तिगत प्रहार यदि लेखक को सीधे तौर पर करना पड़ा तो उसे बौद्धिक रूप से अपंग ही कहा जाएगा।  कल्पना का विस्तार व्यक्ति को सार्वभौमिक बनाता है। किसी रचना को कालजयी बनाने की कला भी कल्पना शक्ति में ही निहित है, प्रपंच में नहीं।

पत्रकार जीवन भर लिखते हैं। सच लिखते हैं। यथार्थ भी। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर किसी को पत्रकारों के नाम याद नहीं रहते क्योंकि जाने-अनजाने में उन्हें भी वास्तविक किरदारों के पीछे भागना पड़ता है। किरदार तो वक़्त के साथ बदलते रहते हैं पर पत्रकार वहीं टिके रह जाते हैं। इसलिए इतिहास दोनों को भुला देता है।

पात्र बदलते रहते हैं। गतिशील जगत में भ्रम के अतिरिक्त कुछ भी स्थाई नहीं है। जीवन-मृत्यु भी नहीं। जिसे विधि गढ़ती है उसके भी किरदार बदलते रहते हैं। लेकिन जिन किरदारों को व्यक्ति रचता है वह स्थाई हो जाते हैं।

सिनेमा, साहित्य, कला, रंगमंच सैकड़ों उदाहरण हैं जहां किरदार अमर रह जाते हैं। कोई उन्हें रच कर चला जाता है, कोई उनमें नई संभावनाएं तलाशता है। सृजन स्थाई है, कहानियां बार-बार पढ़ी जाती हैं, ख़बर दोबारा नहीं पढ़ी जाती जब तक प्रश्न आजीविका से न जुड़ा हो।



सत्य को प्रत्यक्ष रूप से भी कहा जा सकता है, परोक्ष रूप से भी। साहित्य में प्रत्यक्ष को भी परोक्ष रूप से कहने की परंपरा है। प्रेमचंद ने भी सत्य कहा है, प्रसाद ने भी। महादेवी, अज्ञेय और बच्चन ने भी। सबने भोगा हुआ यथार्थ लिखा है लेकिन सबके कहने का ढंग अलग था। पहले पात्र रचा, फिर बात कही। किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं लगाए। बच्चन का सत्य अज्ञेय या धर्मवीर भारती का सच नहीं है। उन्होंने यथार्थ लिखा। अपना यथार्थ, किसी और का नहीं।

अज्ञेय ने न जाने किसे लिखा, पर चरित्र रच दिया। सच कह दिया। बता दिया कि विरूपता ही असली मनोविज्ञान है। मानव, जिन संबंधों को पवित्र समझता है, उन्हें आदिम मानव कुछ और ही समझता। सामाजिक बंधन थोपे जाते हैं, स्वाभाविक नहीं होते। बच्चन ईमानदार थे। उनमें सच कहने की क्षमता थी लेकिन कल्पना के पुट के साथ। उनकी आत्मकथा को भोगा हुआ यथार्थ नहीं कहा जा सकता।

सृजन की राह पर चलने वाले पथिक यदि वास्तविक जीवन के किरदारों का पीछा करते हैं तो उन्हें अपयश के अतिरिक्त कुछ और हासिल नहीं होता। किरदारों के पीछे भागते-भागते प्रपंच मनोवृत्ति बन जाती है। सामान्य व्यक्ति के लिए प्रपंच उसकी ज़िंदगी का हिस्सा होता है लेकिन लेखक के लिए नहीं। बचना चाहिए। ऐसा यथार्थ क्यों लिखना जिसे पढ़कर खेद हो, क्लेश हो और लोग आहत हों। लेखक का अपराध बोध ह्रदय विदारक होता है। शनै: शनै: वह अवसादी बनने लगता है।

अवसाद ही मृत्यु है। हालांकि उसके अवसादी होने में भी समाज का हित छिपा होता है। लेखक जब अवसाद में होता है तो सृजनशीलता स्वत: बढ़ जाती है। उसका अवसाद जग के लिए मनोरंजक होता है।

संबंध जोड़ने के लिए होते हैं। उन्हें तोड़ने का माध्यम न बनें। सृजक बनें, ध्वनिविस्तारक नहीं। लिखें, प्रपंची न बनें। आपके भविष्य के लिए ज़हर है, आपका प्रपंची होना। ख़बर लिखेंगे या ख़बर बनेंगे फ़ैसला आपका है। सृजन का वृक्ष बनना है या आभासी दुनिया में 300 शब्दों की छोटी सी ख़बर, जिसका प्रकाशन प्राथमिकता के हिसाब से तय होता है, ऐसी ख़बर जिसे लिखने वाला ही याद नहीं रख पाता।

अंत में,

व्यक्तित्व का विस्तार ही जीवन है। इसमें निर्बाध रूप से बहते रहें, आप का सृजन किसी के पांव का कांटा न बने। चुभे न। सृजन का आधार यही है। स्वांत: सुखाय रचना की नींव में बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का मंत्र छिपा होता है। अदृश्य रूप से। इसकी अनुभूति तभी होगी जब आप सृजक बनेंगे, प्रपंची नहीं।

शुभमस्तु।

(भइया ने समझाया है, मैंने बस टाइप ही किया है)


(फोटो स्रोत: www.pexels.com)

शनिवार, 3 मार्च 2018

पर्दा है पर्दा, पर्दे के पीछे पर्दानशीं है



आवरण!
विरूपता को ढकने का आवरण. 
सहजता का बोध न होने देने का आवरण.
पर्दे के भीतर का कलाकार बाहरी दुनिया की दृष्टि से ओझल रहे, इस हेतु आवरण.
दुनिया को आवरण बहुत पसंद है क्योंकि आवरण, यथार्थ ढकने का साधन  है. भ्रम ही सही, किंतु कुछ क्षणों के लिए आवरण का भ्रम किसी को भी दुविधा में डाल सकता है.
अभिनेता भी यही आवरण ओढ़ते हैं क्योंकि आवरण ज्ञात को अज्ञात करने का साधन है. जब कोई अभिनय करता है तो उसके पूर्ववर्ती स्वरूप का ध्यान किसी को नहीं होता. उसकी सत्ता गौण हो जाती है, पटकथा का पात्र प्रासंगिक हो जाता है. अभिनेता की वृत्ति अभिनय है. अभिनय से परे  उसका व्यक्तित्व  होता है. स्वाभाविक, जैसा है वह, वैसा ही.

जिन्होंने अभिनय का ककहरा नहीं सीखा है वह अभिनेताओं से अच्छा अभिनय करते हैं. व्यक्तिगत जीवन में. क्योंकि दुनिया रंगमंच हो या न हो, दुनिया में अभिनेता बहुत हैं. जिनकी वृत्ति अभिनय है, उनका अभिनय क्षणिक है. जिनके लिए अभिनय वृत्ति नहीं है, उन्हें जीवन भर उसे ढोना पड़ता है. यथार्थ जीवन के अभिनेता  भीतर की प्रवृत्ति को बाहर के आचरण से नियंत्रित कर ले जाते हैं. उनका अभिनय स्वाभाविक लगता है. 

मुंशी प्रेमचंद ने कहा भी है, ''धूर्त व्यक्ति का अपनी भावनाओं पर जो नियंत्रण होता है वह किसी सिद्ध योगी के लिए भी कठिन है." ऐसे सिद्धयोगी दुर्लभ नहीं हमारे-आपके सामने घूम रहे हैं. मैं भी उनमें से एक हो सकता हूं, आप भी.

बुराइयों की  भनक किसी को नहीं लगेगी, अच्छाइयों के प्रचार के लिए पर्चे बांटे जा सकते हैं. बांटे भी जाते हैं क्योंकि जब आचरण का विज्ञापन किया जाता है तो रेट अच्छा लगता है. लाखों में. दूल्हा अच्छा बिकता है. लड़की का बाप अच्छा दामाद खरीदता है. राम जैसा.
अलग बात है, हर राम रावण है पर हर घोषित रावण का चरित्र उतना भी खराब नहीं होता जितना शोर मचाया जाता है. तात्पर्य यही कि पुण्यात्माओं से बड़ा पापी ढूंढने से नहीं मिलता. लड़का भी.

मैंने कुछ स्तरीय पाप किए होंगे जिनके बारे में मेरे अलावा कोई नहीं जानता. कोई मेरे बारे में अगर अफवाह भी उड़ाए तो  किसी को विश्वास नहीं हो सकता. बच्चन जी की एक पंक्ति है  जो मुझ पर फ़िट बैठती है, "पाप हो या पुण्य हो कुछ नहीं, मैंने किया, कभी आधे ह्रदय से." सबके लिए मैं अच्छा बच्चा हूं. गुड ब्वॉय. संस्कारी. मेरा कुसंस्कार शायद मुझ तक सीमित है. किसी को  मेरी कमियों की ख़बर भी नहीं होगी. मुझे भी नहीं. हो भी नहीं सकता. भावुकता में सतर्कता के साथ समझौता टूटने नहीं पाया. टूट भी नहीं सकता. लेकिन इससे मेरे पाप तो कम नहीं होंगे. जो किया है उसे भोगना है. किसी भी रूप में. मेरा पाप यह है कि अभिनय मेरी वृत्ति का हिस्सा नहीं है लेकिन मैंने अभिनय किया है. संस्कारी बने रहने का अभिनय, संस्कार को तिलांजलि देने के बाद भी.


तथाकथित संस्कार. घरवालों के लिए राम, भीतर से रावण. दर्पण मुझे काटने दौड़ सकता है अगर कभी सामने पड़ गया तो. कब तक भागूंगा ख़ुद से. सामना तो होगा न कभी न कभी मेरा मुझसे.

प्यार! शरीर! आलिंगन! संबंध! विलगन! निष्कर्ष, चरित्र हनन.
मैं चरित्रवान, मेरे साथ किसी कार्य में जिसकी बराबर की संलिप्तता वह चरित्रहीन.
मैं पुरुष, वह स्त्री.
समाज के लिए मैं राम, वह सुपर्णखा.
मैं अपने घर की मर्यादा का  रक्षक, वह कुलटा.
मैं उत्तम चरित्र का पुरुष, वह वैश्या.
ऐसा क्यों?
मुझे पर मेरे घर को गर्व, मैं कुलदीपक!!
वह कलंकिनी.
महिलाएं कुलटा हैं. पुरुष चरित्रवान हैं.
यह आदिम संविधान द्वारा रची गई माया है. कई युग बीतेंगे इससे पार पाने में. सच यही है.


मेरी तरह लाखों संस्कारी बच्चे घूम रहे हैं. पवित्र. शाश्वत. पावक की तरह. सूर्य से भी अधिक ओजस्वी. दीपमान. संस्कारी तो राम से भी अधिक.
बच के रहिएगा. राम, रावण से ज़्यादा बुरे हैं. कलियुग वाले.
कुकर्म कोई बचा नहीं है. सत्कर्म का आवरण है. पीढ़ियां बीत जाएंगी उस आवरण का अनावरण करने में क्योंकि बहुसंख्यक समाज की अवधारणा अल्पसंख्यक समाज की नियति बन जाती है. न जाने क्यों. बनी-बनाई अवधारणाएं टूटती नही हैं. तोड़ भी नहीं सकते हैं.
मैं भी ग़लत हूं. आप भी ग़लत हैं. सामाज भी ग़लत है. सच पच नहीं पाता. आमाशय समाज का दुर्बल है.
आवरण की आदत लग गई है. लोग वल्कल वस्त्र पहन कर व्यभिचार करते हैं. मैं भी. बहुत प्यारा बच्चा हूं, सबकी नज़रों में. दुआ कीजिए मेरे आवरण का अनावरण न होने पाए.

-अभिषेक शुक्ल


(फोटो स्रोत: Heraldsun)