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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2017

किस ओर जा रहा है भारत में राष्ट्रवाद?

यदि आप स्वयं को भारतीय संस्कृति के रक्षक मानते हैं या आपको अपने घनघोर राष्ट्रवादी होने का अभिमान है अथवा आप भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सक्रिय सदस्य हैं तो आपसे एक अनुरोध है कि आप फिर से उन्हीं सांस्कृतिक मूल्यों का अध्ययन करें जिन्हें आपने बचपन में पढ़ा,सोचा या समझा है।
याद कीजिए जब आप घर से स्कूल के लिए निकलते थे तो स्कूल में आपको क्या-क्या सिखाया जाता था। कैसे प्रार्थना में आपको ये समझाया जाता था कि इस संसार में सब पूजनीय हैं, धरती माँ से लेकर पशु-पक्षी तक। किस तरह से आपको समझाया जाता था कि समाज समता मूलक है। दुनिया एक परिवार की भांति है जिसमें सबको परस्पर प्रेम और सहअस्तित्व की भावना को स्वीकार कर साथ-साथ रहना चाहिए।
कैसे समझाया जाता था कि दुनिया एक दर्पण की तरह है जैसा आपका आचरण होगा वैसा ही आपके साथ व्यवहार होगा।
 व्यवहार और आचरण की शुद्धता पर तो नैतिक शिक्षा की कक्षा ही लगाई जाती थी, जिसमें सिखाया जाता था कि शत्रु से भी मित्रवत् आचरण करो। शत्रुता अंततः प्रबल प्रेम के आगे हार जाती है। हर धर्म और विचारधारा का सम्मान करो। अपनी विचारधारा किसी पर थोपो मत। विचारधाराओं की लड़ाई को व्यक्तिगत लड़ाई न बनाओ।
मृदुभाषिता, अहिंसा और भाषा की सौम्यता पर तो दर्जनों श्लोक पढ़ाए और समझाए जाते थे।उन सारे  श्लोकों से,शिक्षाओं से आपके व्यवहार का विपथन आपको नितांत अतार्किक और अप्रासंगिक ही बनाएगा। इनमें से तो कोई एक लक्षण आपमें नहीं दिख रहा है।
समझ में नहीं आता कि ये सारी व्यवहारिकता आप लोगों के आचरण से रूठ कर कहां चली गई है। क्या गोस्वामी जी की चौपाई को सही मान लें कि 'जाको प्रभु दारुण दुख दीन्हा, ताकि मति पहिले हर लीन्हा'? बीते कुछ दिनों से तो यही लग रहा है।
ग़ज़ब पागलपन सवार है कुछ लोगों पर।
किसी भी संगठन का विनाश उसके आलोचक या प्रतिद्वंद्वी नहीं करते हैं। वे चाहते हैं कि वो संगठन फले-फूले तभी तो दमदार प्रतिद्वंद्वी मिलेगा आलोचना करने को,  हराने को। लड़ाई तो बराबरी वालों से ही अच्छी होती है न?
लेकिन यहां तो संगठन के अंध समर्थक ही संगठन को मिटाने के लिए पर्याप्त  हैं।
इस विनाश के मूल छिपा  है कार्यकर्ताओं का व्यवहार। व्यक्ति का  व्यवहार सामान्यतः उसके पारिवारिक संस्कारों पर निर्भर करता है, कई बार आस-पास का माहौल और सामाजिक दशा पर भी, किन्तु यह ध्रुव सत्य नहीं है। व्यक्ति के अच्छे या बुरे व्यवहार के अन्य कारण भी हो सकते हैं जैसे संगति,स्वभाव, रुचि इत्यादि।
यही अंधसमर्थक कार्यकर्ता संगठन की फजीहत कराते हैं। इनका पढ़ा-लिखा होना भी किसी काम का नहीं होता क्योंकि ये अपने विवेक का इस्तेमाल शायद ही कभी करते हैं। इसे मार दो, इसे पीट दो, ये फालतू बोल रहा है, ये ऐसे कैसे बोल सकता है। चलो साथियों आज इनपे बजा देते हैं, हाथ-पैर तोड़ देते हैं बहुत अकड़ आ रही इसमें...इस चक्कर में सारा संगठन हाशिये पर चला जाता है।
सामान्यतः भारत में जन्म लेने वाला हर दर्शन इसी उन्माद की भेंट चढ़ता है। अंधअनुयायियों की एक फौज पूरी विचारधारा को ले डूबती है। इनकी ख़ास बात होती है कि ये लोग न तो उस दर्शन को पढ़ते हैं न ही समझने भर की बुद्धि होती है। इन्हें केवल ठोकने-पीटने से मतलब होता है। संगठन की सदस्यता ये उस दर्शन से प्रेम की वज़ह से नहीं लेते बल्कि भौकाल बढ़ाने के लिए लेते हैं।
हर संगठन और विचारधारा को ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए। मूढ, कुसंस्कारी और क्रोधी व्यक्ति कभी भी विश्वसनीय नहीं होता और किसी संस्था के लायक नहीं होता। इनसे किसी संस्था का रत्ती भर भी फायदा नहीं हो सकता। हां! इनसे होने वाले नुकसान पर तो महापुराण लिखा जा सकता है।
भारत की सांस्कृतिक विरासत पर यदि आपको अभिमान है, भारतीय मूल्यों पर आपको गर्व है तो ठीक है। होना चाहिए, मुझे भी गर्व है। लेकिन मेरा गर्व अहंकार की परिधि में नहीं आता है।
लाठी- डंडों से आप सबको नैतिकता नहीं सिखा सकते। यह कृत्य स्वयं ही अनैतिक है। भारतीय दर्शन हिंसा की बात तो नहीं करता। शांति, अहिंसा, प्रेम, सौहार्द और सहअस्तित्व की भावना, भारत के मूल दर्शन का हिस्सा है। सोचिए कितने कटे हैं आप इससे। कितने भटके हुए हैं आप भारतीयता से। किस ओर ले जा रहे हैं आप समाज को?
असहिष्णुता, हिंसा और धार्मिक भेदभाव की ओर?
ये आपकी राष्ट्रभक्ति है? एक हाथ में शराब, दूसरे हाथ में डंडा और मुंह में मां-बहन की गाली। उसी बीच में भारत माता की जय और वंदे मातरम् का नारा।
किस तरह के भारत का आप प्रतिनिधित्व कर रहे हैं?
मेरी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा एक संघ समर्थित विद्यालय में हुई है। पहली क्लास लगने से पहले वंदे मातरम्, जन-गण-मन और सरस्वती वंदना होती थी। इंटरवल में लंच से पहले अन्नपूर्णा प्रार्थना होती थी और शाम को छु्ट्टी से पहले राम और वंदे मातरम् का उद्घोष होता था। लेकिन इन सबके बावजूद भी किसी धर्म के प्रति दुराग्रह का पाठ नहीं पढ़ाया जाता था। सब बच्चे साथ रहते थे, खेलते थे,पढ़ते थे। देश प्रेम समझाया जाता था।
मैं संघ पोषित स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों को भी जानता हूँ। भारतीय दर्शन और व्यवहार पर जब ये छात्र बोलते थे तो मंत्रमुग्ध हो सुनने का मन करता था। वे सारे छात्र कहीं न कहीं स्थापित हो गए हैं। कोई पढ़ रहा है तो कोई पढ़ा रहा है। कोई प्रशासनिक सेवा में है, कोई सेना में है  तो कोई इंजीनियर है। कोई वकील है तो कोई डॅाक्टर है। सब कामयाब हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में नाम कर रहे हैं।
ये सारे वे लोग हैं जिन्होंने इन संस्थानों में पढ़ाई की है। संस्कारों को जिया है, सीखा है। ये लोग उन्मादी नहीं हैं।
अगर ये लोग उपर्युक्त संस्थानों में आ जाएं तो कितना अच्छा हो।
सावरकर को तो इन्होंने पढ़ा है, श्यामा प्रसाद मुखर्जी को तो इन्होंने पढ़ा है। भारतीय दर्शन और संस्कृति के प्रवक्ता तो ऐसे लोग हैं फिर ये लोग संगठनों में क्यों नहीं हैं? और वो लोग जो कार्यकर्ता कम गुंडे ज़्यादा हैं कहां से आए हैं? क्या सच में ऐसे संस्थाओं के सदस्यता के लिए अधिनियमित आहर्ता में नया संशोधन किया गया है? अब ऐसे ही लोग सदस्य बन सकेंगे जिनमें उत्पात मचाने का हुनर होगा?
विरोधी विचारधारा को सुने बिना तलवारें तान लेना कहां तक सही है। ये कहां का भारतीय दर्शन है?
लोकतंत्र में विचारधाराओं के सहअस्तित्व की स्वीकार्यता तो होनी चाहिए न?
सुनते क्यों नहीं? आपके पास भी अवसर आएगा असहमति का। अपने तर्कों से उन्हें अतार्किक सिद्ध करें। यह आपका संवैधानिक अधिकार है।लेकिन उनके विनाश के लिए हवन करना न शुरू कीजिए। आप जनमेजय की तरह निस्पाप नहीं हैं।
 अगर सब आपके ही विचारधारा का अनुसरण करने लगे तो भारत नीरस हो जाएगा। आपका  संगठन ही कई धुरियों में बंट जाएगा। कुछ अच्छे लोग ये उत्पात सहन नहीं करेंगे। अगर वे सब आपके संगठन से निकल गए तो फिर किसी भी दिन आप पर पूर्णकालिक बैन लगाया जा सकता है। जनता सब जानती है। किसी को भी एक हद से ज्यादा अवसर नहीं देती।
और हां! एक भारत और श्रेष्ठ भारत का सपना तभी पूरा हो सकता है जब आपका व्यवहार और आचरण संयमित हो। आप भारतीय मूल्यों को जानते हों, आप तार्किक होने के साथ-साथ बुद्धिमान और विनम्र भी हों , जिससे लोग आपको सुन सकें और आप लोगों को सुन सकें।
 लेकिन आपका अपने पथ से भटकाव देखकर नहीं लगता कि आपकी कोई ऐसी मंशा है। आप ही बताइये! कहां ले जाना चाहते हैं भारत को? भारत को छोड़िए आपकी वज़ह से भारत को कुछ नहीं होगा। बहुत लोग आए भारत को तहस-नहस करने  सब पता नहीं कहां चले गए।
आप अपने ही संगठन को कहां ले जा रहे हैं? क्या कोई भी बुद्धिजीवी आपके इन ओछी हरकतों को सहन करेगा?
यदि आप सच में चाहते हैं कि आपका संगठन आगे बढ़े, तो आपको दो काम जरुर करना चाहिए-
पहला- आप अपने संगठन से इस्तीफा दे दें। कुछ दिन आराम करें और फिर से संस्कार और अनुशासन सीख कर आएं। आत्मावलोकन करें, आपको आभास हो जाएगा कि आपको सिखाया क्या गया था पर आप कर क्या रहे हैं। अगर पता होने के बाद भी आपको ग्लानि नहीं हो रही है तो आप इन संस्थाओं के लायक नहीं हैं। पुनः सदस्यता लेने की सोचें भी मत।
कुछ और काम कर लीजिए। संगठन आपसे बरबाद ही होगा बनेगा नहीं।
दूसरा ये कि सुनना शुरू कर दीजिए। अगर आलोचना नहीं सुनेंगे तो सुधार नहीं आएगा। सुधार नहीं आएगा तो बिगड़े लोगों को समाज मुख्य धारा में कभी गिनता नहीं है। सुधार अपरिहार्य है। अपने प्रासंगिकता के लिए आपको सुधरना होगा।
ख़ैर, जो भी करना हो कीजिए लेकिन इतना उन्माद और अहंकार न पालें। कुछ भी यथावत नहीं रहता।
जानते हैं न अहंकार ईश्वर का भोजन है। भगवान ने कहा है तो सही ही होगा। न लगे तो ऐसे ही बने रहिए, आभास भी हो जाएगा। फिर खोजते रहिएगा भारत के भूगोल पर स्वयं को।
आपसे सहानुभूति है इसलिए इतना लंबा पुराण लिखा। अपने समय को आपके लिए खर्च किया वो भी नि:शुल्क। आगे सब आप की इच्छा।
जय हिंद! वंदे मातरम्।
-अभिषेक शुक्ल।

शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

यहां जब भी हवा चलती

यहां जब भी हवा चलती
तो आँखे नम सी होती हैं
कभी जब सोचता तुमको
तो रातें कम सी होती हैं,
अज़ब है ग़म का भी आलम
न मैं कुछ कह के कह पाऊँ,
बिना तेरे मेरी सांसें
बड़ी बेदम सी होती हैं।।
फोटो - पीयूष कौशिक
(पुराने पन्नों से😊)

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

चाहता हूँ आज तुमसे हार ख़ुद से जीत जाऊँ

चाहता हूँ आज तुमसे हार ख़ुद से जीत जाऊँ
मन कहे इक गीत गाऊँ।

जो तुम्हारे प्यार में हर पल नया संगीत ढूंढे
चल सके हर पल परस्पर साथ वो मनमीत ढूंढे,
रोज तन्हाई में खुद के संग तेरा नाम जोड़े
बावरा मन हर जगह खोया सा तेरा प्रीत ढूंढे।
काश! काली रात सा मैं भी किसी पल बीत जाऊँ
मन कहे इक गीत गाऊँ।।
-अभिषेक शुक्ल

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2017

पुष्प के अभिलाषा का अंत




पुष्पों के मन की अभिलाषा
 नहीं थी कभी मनुज को ज्ञेय,
मौन विषयक मृदु भावों पर
 बुद्धि ने लिया नहीं कुछ श्रेय।
 पुष्प की नियति मृत्यु की भेंट
 मनुज उसे तोड़ बहाएगा,
है तो करकट ही राहों का
 पंकों को क्यों अपनाएगा।
 पुष्प का रूप उसका दुर्भाग्य
 तोड़ कर मानव देता फेंक,
स्वार्थ फिर उसी स्वार्थ का त्याग
 मनुज के अपराधों में एक।।
-अभिषेक शुक्ल