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मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

दशहरा, स्मृतियों के कोने से।

काश! ऐसा मुमकिन होता कि वैज्ञानिक कोई ऐसा टाइम मशीन बनाने में सफल हो जाते जिसमें बैठकर मैं अपने बचपन में पहुंच जाता। तब, जब मैं घर में खूब उत्पात मचाता था।उस वक़्त जब मैं स्कूल नहीं जाना चाहता था। उस वक़्त जब दशहरे की छुट्टी दशहरे से चार-पांच दिन पहले ही हो जाती थी और हम लोग इन छुट्टियों में खूब मस्ती करते थे।
दशहरा का मेला नवरात्र के पहले दिन से ही शुरू हो जाता था। मेला शोहरतगढ़ में लगता था।
मैं मनाता था हे भगवान! जल्दी से छुट्टियां हो जाएं और हमें मेला देखने को मिले।
पहले जब मैं बहुत छोटा था तो मुझे दिन में मेला दिखाने पाले काका ले जाते थे। काका पूरा मेला घुमाते थे। समोसा,जलेबी और खुरमा खिलाना फिक्स था। इसके बाद कोई एक खिलौना। काका से डर भी लगता था कोई डांट ना पड़ जाए कुछ जिद करने पे। सो जो मिलता बिना ना-नुकुर किये रख लेते थे। काका की उम्र ढली तो काका भीड़-भाड़ से परहेज़ करने लगे।
काका की जिम्मेदारी जब तक छूटी तब तक भइया बड़े हो गए थे। मैं भी ज्यादा चलने पर रोता नहीं था। पहले अम्मा केवल एक दिन मेला देखने देती थी लेकिन भइया के साथ ३दिन मेला घूमने की आजादी मिल जाती थी। शाम को कुछ खाकर भइया और मैं मेला देखने निकल जाते थे। शोहरतगढ़ तक पैदल जाना होता था। हम लोग अकेले ही नहीं जाते थे, पूरा गांव साथ जाता था।
खर्च करने को पैसा भी खूब मिलता।पहले दिन अम्मा से मिलता, दूसरे दिन मम्मी से मगर  एकमुश्त अच्छी-खासी रकम पापा ही देते थे।
भइया के साथ मेला घूमने का मतलब होता था मस्ती की लॅाटरी लगना। मतलब भरपेट जीभ की सेवा और खिलौनों से भी थैली भरी रहती।
भइया से कभी  रिमोट वाली कार की जिद करता तो कभी मैगजीन वाले पिस्टल की। कभी बड़ी सी प्लास्टिक वाली ए.के४७ तो कभी पटाखे वाले राइफल की।
इतने से मन थोड़े ही भरता था मेरा, अगले दिन नए खिलौनों की लिस्ट। मेरे पास अटैची भर के खिलौने रहते थे। भइया के पास जब कभी कुछ पैसे जमा हो जाते थे मेरे लिए खिलौने खरीद लाते थे।
वीडियो गेम, वाकमैन तो हर दो महीने खराब होता और नया मिलता।साल भर तक मैं खिलौना इकट्ठा करता और गर्मी की छुट्टी में सबको बांट देता।
मुझे खिलौनों से इतना प्यार था कि मम्मी जब कहीं पापा के साथ घूमने जाती थीं और मैं उनके साथ नहीं जा पाता था तो मेरे लिए घूस में खिलौना लाती थीं। बारहवीं तक मेरे पास खूब सारे खिलौने थे पर मेरठ जाने के बाद अचानक से एहसास हुआ कि अब मैं थोड़ा बड़ा हो गया हूँ।
सच कहूं तो ये खिलौने तभी तक अच्छे लगे जब तक भइया घर पर थे।भइया बाहर पढ़ने चले गए तो मेला छूट गया। हर बार इंतजार करता की भइया इस बार दशहरा की छुट्टी में घर आएंगे पर पूर्वी उत्तरप्रदेश में दशहरे की केवल एक दिन की छुट्टी होती। मेरा मन मेला देखने का करता ही नहीं तब। भला भइया बिना कोई मेला देखने की चीज़ होती है क्या?
जब मैं दसवीं में था तब भइया बाहर पढ़ने चले गए थे।मेला तब भी लगता था लेकिन मैं जाने से कतराता था। पता नहीं क्यों मेले के नाम से रुलाई छूट पड़ती।
कई बार उपेन्द्र जबरदस्ती ले जाता था। इमोशनल ड्रामा आज भी वो टॅाप क्लास का करता है।
इंटरमीडियट कम्प्लीट हुआ तो मेरठ पढ़ने आ गया। अजनबी शहर तो हर पल मेला लगता है।
( यहां नौचंदी मेला लगता है जिसमें हम भाई-बहन सब साथ में जाते थे..इसके बारे में फिर कभी लिखूंगा)
यहां कब नवरात्र लगता कब बीत जाता कुछ पता ही नहीं चलता था। दशहरे वाले दिन मेरठ में कंकड़खेरा में मेला लगता है। रावण का पुतला फूंका जाता है। यहां मेला दिखाने के लिए वीरु भइया थे। इस मेले में हम केवल धूलयुक्त गोलगप्पे खाते थे, फिर मीठा पान खाते थे।
दूसरे साल से राजेश भइया मिल गए, फिर अशोक भइया।चौथे साल तक तो पूरी फौज ही इकट्ठी हो गई थी। अंशू,अंकित और मनीष भी आ गए थे। मेरठ में आखिरी दशहरा याद है धमाकेदार मना था। मेले से लौटकर जब हमारी टोली वापस आई तो न जाने कैसे माइकल जैक्सन की आत्मा राजेश भइया में घुस गई थी। कभी लेट के तो कभी नागिन डांस तो कभी चारो तरफ से नाचते। अंशू और अशोक भाई भी रंग में थे लेकिन राजेश भइया के सामने कोई टिक ही नहीं पा रहा था।

आज दशहरा है लेकिन आज फिर मैं मेला नहीं गया, आज वीरु भइया भी साथ नहीं थे। न जाने क्यों इस बार दशहरा बहुत खला।
सच कहूं तो बिना भाई-बहनों के कोई उत्सव, उत्सवमय लगता है क्या। जाने क्यों वही पुराने दिन याद आ रहे हैं। भइया के हाथों को पकड़े,नहर के किनारे वाली सड़क पर धीरे-धीरे चलना और भइया से कहानियां सुनते-सुनते घर तक पहुंच जाना..अम्मा का दरवाजा खोलना, उसे चहक कर नए खरीदे हुए खिलौने दिखाना,हफ्तों अपने खिलौनों पर इतराना....वो भी क्या दिन थे।
हर बार की तरह इस बार भी  दुकानें सजी होंगी।पल्टन के पल्टन पैदल ही लोग शोहरतगढ़ की ओर जा रहे होंगे। बूढ़े-बुजुर्ग सब तैयार होकर गांव से निकल गये होंगे।भौजाईयां सातो सिंगार कर के मेला की ओर बढ़ चुकी होंगी।मजनूँ बेचारा फिर पिटा होगा।पल्टहिया भौजी फिर उसे ५०रुपए मेला करने के लिए दी होगी। भला दस रुपए में क्या मिलता है? ढंग का खिलौना भी नहीं मिलता इतने में। जलेबी, समोसा तो पूछो ही मत।सबके भाव आसमान पर छाए रहते हैं मेले में,
लेकिन कौन समझाए भौजाई को हर मेले में बेचारा कूटा जाता है......मैं भी यहां खुद को कूट रहा हूँ, कुछ पुरानी स्मृतियों को, बीती कहानियों को..उकेर रहा हूँ यादों के कैनवास पर भावों की तूलिका से , शनैः-शनैः।

3 टिप्‍पणियां:

  1. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 13/10/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  2. बचपन की स्मृतियाँ ताउम्र साथ रहती हैं.

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