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बुधवार, 26 अक्टूबर 2016
रविवार, 23 अक्टूबर 2016
शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन
शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन,
चिमनी भट्टी,शोर-शराबा कैंटीन में चौका बरतन ।।
दिनभर सारा काम करुं तो खाने भर को मिलजाता है,
कुछ पैसे मैं रख लेता हूँ कुछ मेरे घर भी जाता है।।
फटे हुए कपड़े मुन्नी के मां को नहीं दवाई मिलती
अपना भी तन मैं ढक पाऊँ इतनी कहाँ कमाई मिलती?
दिन-रात मैं मेहनत करता फिर भी पैसों की है तरसन,
शहर की ऊंची दीवारों में कैद हो गया मेरा बचपन।।
-अभिषेक
मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016
दशहरा, स्मृतियों के कोने से।
काश! ऐसा मुमकिन होता कि वैज्ञानिक कोई ऐसा टाइम मशीन बनाने में सफल हो जाते जिसमें बैठकर मैं अपने बचपन में पहुंच जाता। तब, जब मैं घर में खूब उत्पात मचाता था।उस वक़्त जब मैं स्कूल नहीं जाना चाहता था। उस वक़्त जब दशहरे की छुट्टी दशहरे से चार-पांच दिन पहले ही हो जाती थी और हम लोग इन छुट्टियों में खूब मस्ती करते थे।
दशहरा का मेला नवरात्र के पहले दिन से ही शुरू हो जाता था। मेला शोहरतगढ़ में लगता था।
मैं मनाता था हे भगवान! जल्दी से छुट्टियां हो जाएं और हमें मेला देखने को मिले।
पहले जब मैं बहुत छोटा था तो मुझे दिन में मेला दिखाने पाले काका ले जाते थे। काका पूरा मेला घुमाते थे। समोसा,जलेबी और खुरमा खिलाना फिक्स था। इसके बाद कोई एक खिलौना। काका से डर भी लगता था कोई डांट ना पड़ जाए कुछ जिद करने पे। सो जो मिलता बिना ना-नुकुर किये रख लेते थे। काका की उम्र ढली तो काका भीड़-भाड़ से परहेज़ करने लगे।
काका की जिम्मेदारी जब तक छूटी तब तक भइया बड़े हो गए थे। मैं भी ज्यादा चलने पर रोता नहीं था। पहले अम्मा केवल एक दिन मेला देखने देती थी लेकिन भइया के साथ ३दिन मेला घूमने की आजादी मिल जाती थी। शाम को कुछ खाकर भइया और मैं मेला देखने निकल जाते थे। शोहरतगढ़ तक पैदल जाना होता था। हम लोग अकेले ही नहीं जाते थे, पूरा गांव साथ जाता था।
खर्च करने को पैसा भी खूब मिलता।पहले दिन अम्मा से मिलता, दूसरे दिन मम्मी से मगर एकमुश्त अच्छी-खासी रकम पापा ही देते थे।
भइया के साथ मेला घूमने का मतलब होता था मस्ती की लॅाटरी लगना। मतलब भरपेट जीभ की सेवा और खिलौनों से भी थैली भरी रहती।
भइया से कभी रिमोट वाली कार की जिद करता तो कभी मैगजीन वाले पिस्टल की। कभी बड़ी सी प्लास्टिक वाली ए.के४७ तो कभी पटाखे वाले राइफल की।
इतने से मन थोड़े ही भरता था मेरा, अगले दिन नए खिलौनों की लिस्ट। मेरे पास अटैची भर के खिलौने रहते थे। भइया के पास जब कभी कुछ पैसे जमा हो जाते थे मेरे लिए खिलौने खरीद लाते थे।
वीडियो गेम, वाकमैन तो हर दो महीने खराब होता और नया मिलता।साल भर तक मैं खिलौना इकट्ठा करता और गर्मी की छुट्टी में सबको बांट देता।
मुझे खिलौनों से इतना प्यार था कि मम्मी जब कहीं पापा के साथ घूमने जाती थीं और मैं उनके साथ नहीं जा पाता था तो मेरे लिए घूस में खिलौना लाती थीं। बारहवीं तक मेरे पास खूब सारे खिलौने थे पर मेरठ जाने के बाद अचानक से एहसास हुआ कि अब मैं थोड़ा बड़ा हो गया हूँ।
सच कहूं तो ये खिलौने तभी तक अच्छे लगे जब तक भइया घर पर थे।भइया बाहर पढ़ने चले गए तो मेला छूट गया। हर बार इंतजार करता की भइया इस बार दशहरा की छुट्टी में घर आएंगे पर पूर्वी उत्तरप्रदेश में दशहरे की केवल एक दिन की छुट्टी होती। मेरा मन मेला देखने का करता ही नहीं तब। भला भइया बिना कोई मेला देखने की चीज़ होती है क्या?
जब मैं दसवीं में था तब भइया बाहर पढ़ने चले गए थे।मेला तब भी लगता था लेकिन मैं जाने से कतराता था। पता नहीं क्यों मेले के नाम से रुलाई छूट पड़ती।
कई बार उपेन्द्र जबरदस्ती ले जाता था। इमोशनल ड्रामा आज भी वो टॅाप क्लास का करता है।
इंटरमीडियट कम्प्लीट हुआ तो मेरठ पढ़ने आ गया। अजनबी शहर तो हर पल मेला लगता है।
( यहां नौचंदी मेला लगता है जिसमें हम भाई-बहन सब साथ में जाते थे..इसके बारे में फिर कभी लिखूंगा)
यहां कब नवरात्र लगता कब बीत जाता कुछ पता ही नहीं चलता था। दशहरे वाले दिन मेरठ में कंकड़खेरा में मेला लगता है। रावण का पुतला फूंका जाता है। यहां मेला दिखाने के लिए वीरु भइया थे। इस मेले में हम केवल धूलयुक्त गोलगप्पे खाते थे, फिर मीठा पान खाते थे।
दूसरे साल से राजेश भइया मिल गए, फिर अशोक भइया।चौथे साल तक तो पूरी फौज ही इकट्ठी हो गई थी। अंशू,अंकित और मनीष भी आ गए थे। मेरठ में आखिरी दशहरा याद है धमाकेदार मना था। मेले से लौटकर जब हमारी टोली वापस आई तो न जाने कैसे माइकल जैक्सन की आत्मा राजेश भइया में घुस गई थी। कभी लेट के तो कभी नागिन डांस तो कभी चारो तरफ से नाचते। अंशू और अशोक भाई भी रंग में थे लेकिन राजेश भइया के सामने कोई टिक ही नहीं पा रहा था।
आज दशहरा है लेकिन आज फिर मैं मेला नहीं गया, आज वीरु भइया भी साथ नहीं थे। न जाने क्यों इस बार दशहरा बहुत खला।
सच कहूं तो बिना भाई-बहनों के कोई उत्सव, उत्सवमय लगता है क्या। जाने क्यों वही पुराने दिन याद आ रहे हैं। भइया के हाथों को पकड़े,नहर के किनारे वाली सड़क पर धीरे-धीरे चलना और भइया से कहानियां सुनते-सुनते घर तक पहुंच जाना..अम्मा का दरवाजा खोलना, उसे चहक कर नए खरीदे हुए खिलौने दिखाना,हफ्तों अपने खिलौनों पर इतराना....वो भी क्या दिन थे।
हर बार की तरह इस बार भी दुकानें सजी होंगी।पल्टन के पल्टन पैदल ही लोग शोहरतगढ़ की ओर जा रहे होंगे। बूढ़े-बुजुर्ग सब तैयार होकर गांव से निकल गये होंगे।भौजाईयां सातो सिंगार कर के मेला की ओर बढ़ चुकी होंगी।मजनूँ बेचारा फिर पिटा होगा।पल्टहिया भौजी फिर उसे ५०रुपए मेला करने के लिए दी होगी। भला दस रुपए में क्या मिलता है? ढंग का खिलौना भी नहीं मिलता इतने में। जलेबी, समोसा तो पूछो ही मत।सबके भाव आसमान पर छाए रहते हैं मेले में,
लेकिन कौन समझाए भौजाई को हर मेले में बेचारा कूटा जाता है......मैं भी यहां खुद को कूट रहा हूँ, कुछ पुरानी स्मृतियों को, बीती कहानियों को..उकेर रहा हूँ यादों के कैनवास पर भावों की तूलिका से , शनैः-शनैः।
दशहरा का मेला नवरात्र के पहले दिन से ही शुरू हो जाता था। मेला शोहरतगढ़ में लगता था।
मैं मनाता था हे भगवान! जल्दी से छुट्टियां हो जाएं और हमें मेला देखने को मिले।
पहले जब मैं बहुत छोटा था तो मुझे दिन में मेला दिखाने पाले काका ले जाते थे। काका पूरा मेला घुमाते थे। समोसा,जलेबी और खुरमा खिलाना फिक्स था। इसके बाद कोई एक खिलौना। काका से डर भी लगता था कोई डांट ना पड़ जाए कुछ जिद करने पे। सो जो मिलता बिना ना-नुकुर किये रख लेते थे। काका की उम्र ढली तो काका भीड़-भाड़ से परहेज़ करने लगे।
काका की जिम्मेदारी जब तक छूटी तब तक भइया बड़े हो गए थे। मैं भी ज्यादा चलने पर रोता नहीं था। पहले अम्मा केवल एक दिन मेला देखने देती थी लेकिन भइया के साथ ३दिन मेला घूमने की आजादी मिल जाती थी। शाम को कुछ खाकर भइया और मैं मेला देखने निकल जाते थे। शोहरतगढ़ तक पैदल जाना होता था। हम लोग अकेले ही नहीं जाते थे, पूरा गांव साथ जाता था।
खर्च करने को पैसा भी खूब मिलता।पहले दिन अम्मा से मिलता, दूसरे दिन मम्मी से मगर एकमुश्त अच्छी-खासी रकम पापा ही देते थे।
भइया के साथ मेला घूमने का मतलब होता था मस्ती की लॅाटरी लगना। मतलब भरपेट जीभ की सेवा और खिलौनों से भी थैली भरी रहती।
भइया से कभी रिमोट वाली कार की जिद करता तो कभी मैगजीन वाले पिस्टल की। कभी बड़ी सी प्लास्टिक वाली ए.के४७ तो कभी पटाखे वाले राइफल की।
इतने से मन थोड़े ही भरता था मेरा, अगले दिन नए खिलौनों की लिस्ट। मेरे पास अटैची भर के खिलौने रहते थे। भइया के पास जब कभी कुछ पैसे जमा हो जाते थे मेरे लिए खिलौने खरीद लाते थे।
वीडियो गेम, वाकमैन तो हर दो महीने खराब होता और नया मिलता।साल भर तक मैं खिलौना इकट्ठा करता और गर्मी की छुट्टी में सबको बांट देता।
मुझे खिलौनों से इतना प्यार था कि मम्मी जब कहीं पापा के साथ घूमने जाती थीं और मैं उनके साथ नहीं जा पाता था तो मेरे लिए घूस में खिलौना लाती थीं। बारहवीं तक मेरे पास खूब सारे खिलौने थे पर मेरठ जाने के बाद अचानक से एहसास हुआ कि अब मैं थोड़ा बड़ा हो गया हूँ।
सच कहूं तो ये खिलौने तभी तक अच्छे लगे जब तक भइया घर पर थे।भइया बाहर पढ़ने चले गए तो मेला छूट गया। हर बार इंतजार करता की भइया इस बार दशहरा की छुट्टी में घर आएंगे पर पूर्वी उत्तरप्रदेश में दशहरे की केवल एक दिन की छुट्टी होती। मेरा मन मेला देखने का करता ही नहीं तब। भला भइया बिना कोई मेला देखने की चीज़ होती है क्या?
जब मैं दसवीं में था तब भइया बाहर पढ़ने चले गए थे।मेला तब भी लगता था लेकिन मैं जाने से कतराता था। पता नहीं क्यों मेले के नाम से रुलाई छूट पड़ती।
कई बार उपेन्द्र जबरदस्ती ले जाता था। इमोशनल ड्रामा आज भी वो टॅाप क्लास का करता है।
इंटरमीडियट कम्प्लीट हुआ तो मेरठ पढ़ने आ गया। अजनबी शहर तो हर पल मेला लगता है।
( यहां नौचंदी मेला लगता है जिसमें हम भाई-बहन सब साथ में जाते थे..इसके बारे में फिर कभी लिखूंगा)
यहां कब नवरात्र लगता कब बीत जाता कुछ पता ही नहीं चलता था। दशहरे वाले दिन मेरठ में कंकड़खेरा में मेला लगता है। रावण का पुतला फूंका जाता है। यहां मेला दिखाने के लिए वीरु भइया थे। इस मेले में हम केवल धूलयुक्त गोलगप्पे खाते थे, फिर मीठा पान खाते थे।
दूसरे साल से राजेश भइया मिल गए, फिर अशोक भइया।चौथे साल तक तो पूरी फौज ही इकट्ठी हो गई थी। अंशू,अंकित और मनीष भी आ गए थे। मेरठ में आखिरी दशहरा याद है धमाकेदार मना था। मेले से लौटकर जब हमारी टोली वापस आई तो न जाने कैसे माइकल जैक्सन की आत्मा राजेश भइया में घुस गई थी। कभी लेट के तो कभी नागिन डांस तो कभी चारो तरफ से नाचते। अंशू और अशोक भाई भी रंग में थे लेकिन राजेश भइया के सामने कोई टिक ही नहीं पा रहा था।
आज दशहरा है लेकिन आज फिर मैं मेला नहीं गया, आज वीरु भइया भी साथ नहीं थे। न जाने क्यों इस बार दशहरा बहुत खला।
सच कहूं तो बिना भाई-बहनों के कोई उत्सव, उत्सवमय लगता है क्या। जाने क्यों वही पुराने दिन याद आ रहे हैं। भइया के हाथों को पकड़े,नहर के किनारे वाली सड़क पर धीरे-धीरे चलना और भइया से कहानियां सुनते-सुनते घर तक पहुंच जाना..अम्मा का दरवाजा खोलना, उसे चहक कर नए खरीदे हुए खिलौने दिखाना,हफ्तों अपने खिलौनों पर इतराना....वो भी क्या दिन थे।
हर बार की तरह इस बार भी दुकानें सजी होंगी।पल्टन के पल्टन पैदल ही लोग शोहरतगढ़ की ओर जा रहे होंगे। बूढ़े-बुजुर्ग सब तैयार होकर गांव से निकल गये होंगे।भौजाईयां सातो सिंगार कर के मेला की ओर बढ़ चुकी होंगी।मजनूँ बेचारा फिर पिटा होगा।पल्टहिया भौजी फिर उसे ५०रुपए मेला करने के लिए दी होगी। भला दस रुपए में क्या मिलता है? ढंग का खिलौना भी नहीं मिलता इतने में। जलेबी, समोसा तो पूछो ही मत।सबके भाव आसमान पर छाए रहते हैं मेले में,
लेकिन कौन समझाए भौजाई को हर मेले में बेचारा कूटा जाता है......मैं भी यहां खुद को कूट रहा हूँ, कुछ पुरानी स्मृतियों को, बीती कहानियों को..उकेर रहा हूँ यादों के कैनवास पर भावों की तूलिका से , शनैः-शनैः।
शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2016
नेह का सागर लाई नानी
अंतरिक्ष को पात्र बनाकर नेह का सागर लाई नानी
जिसमें सारी दुनिया तर हो वैसी ही गहराई नानी,
हमको हर-पल यही लगा की पग पग पर है साथ हमारे
कई दिनों से ढूंढ रहे हैं जाने कहाँ हेराई नानी?
आँखों में जब आँसू आते झट से विह्वल हो जाती थी
अब रो-रो कर बुरा हाल है कैसे हुई पराई नानी?
पल-पल क्षिन-क्षिन उन्हीं कहानी किस्सों की सुधि आती है
सावन की भीनी रातों में जिनको कभी सुनाई नानी,
सच है की नानी की गोदी गंगा से भी शीतल लगती
तभी हमें ये अक्सर लगता सब नदियों की माई नानी,
जब-जब नानी याद आती है आँखों से आँसू झरते हैं,
ऐसे छिपकर गुम होने की कैसी जुगत लगाई नानी?
-अभिषेक शुक्ल
जिसमें सारी दुनिया तर हो वैसी ही गहराई नानी,
हमको हर-पल यही लगा की पग पग पर है साथ हमारे
कई दिनों से ढूंढ रहे हैं जाने कहाँ हेराई नानी?
आँखों में जब आँसू आते झट से विह्वल हो जाती थी
अब रो-रो कर बुरा हाल है कैसे हुई पराई नानी?
पल-पल क्षिन-क्षिन उन्हीं कहानी किस्सों की सुधि आती है
सावन की भीनी रातों में जिनको कभी सुनाई नानी,
सच है की नानी की गोदी गंगा से भी शीतल लगती
तभी हमें ये अक्सर लगता सब नदियों की माई नानी,
जब-जब नानी याद आती है आँखों से आँसू झरते हैं,
ऐसे छिपकर गुम होने की कैसी जुगत लगाई नानी?
-अभिषेक शुक्ल
शनिवार, 1 अक्टूबर 2016
''आज़ादी और आदिवासी''-अमरेंद्र किशोर
बीते सप्ताह एक किताब हाथ लगी ''आज़ादी और आदिवासी''।
इस किताब के लेखक हैं पत्रकार अमरेंद्र किशोर। प्रकृति पुत्रों की बनैली संस्कृति और उनके भाग्य में मढ़ी गयी विसंगति तथा समाज के साथ उनके संघर्ष पर अब तक लिखी गई सबसे सटीक किताबों में से एक किताब आज़ादी और आदिवासी भी है।
आम तौर पर जब हम आंकड़े इकट्ठा करने के लिए कोई किताब पढ़ते हैं तो अपने काम का विषय पढ़ कर किताब वापस लाइब्रेरी में रख देते हैं, ऐसे ही मंशा लिए मैं भी पढ़ने गया था पर एक लाइन ने पूरी किताब पढ़ा डाली मुझसे।
वो लाइन थी-
''कोई भी समूह जब अपने मूल से कटता है तो कई प्रकार की विसंगतियां उसके भाग्य में मढ़ जाती हैं।'' ये सच है।
हर समुदाय का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है जिसमें किसी भी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप करने का अर्थ होता है उस समुदाय की मान्यताओं को ठेस पहुँचाना। कई बार हस्तक्षेप इतना घातक होता है कि लोग विद्रोह कर देते हैं समाज के प्रति|यह विद्रोह इतना घातक होता है कि समाज सशस्त्र क्रांति की ओर बढ़ जाता है। विद्रोह धीरे-धीरे वाद में बदल जाता है और फिर उस वाद का नामकरण कर दिया जाता है, जैसे - नक्सलवाद, माओवाद, जंगलवाद।
फिर शुरू होता है राज्य का अत्याचार उस समाज पर कालांतर में राज्य और समुदाय एक-दुसरे से उलझते रहते हैं.
जंगल कटते जा रहे हैं और इन जंगलों में रहने वाले आदिवासी भी अपने जड़ों से कटते जा रहे हैं, जिस के कारण एक बड़ा तबका असन्तुष्ट है।
सरकार से असंतुष्ट लोगों को विद्रोही बनाना सबसे आसान काम होता है, उनके इसी मनः स्थिति का लाभ उठाने में चालाकी दिखाई नक्सलवादी संगठनों ने।
आदिवासी समाज का अस्तित्व जंगलों से है। आदिवासियों की संस्कृति निराली होती है, इतनी निराली जो शायद समाज के समझ में न आये।
आज़ादी मिलने से पहले आदिवासी अपने मूल स्वभाव में थे, यानी ब्रिटिश इंडिया से कटा-छटा। ब्रिटिश इंडिया में इनकी मूल स्थिति पर कभी प्रहार नहीं किया गया था। जंगलों से उनका रिश्ता भी शिकार तक सीमित रहा।
आज़ादी के उपलक्ष्य में जब पूरे भारत में जश्न मनाया जा रहा था तो आदिवासियों ने भी जश्न मनाया होगा। कुछ उम्मीदें भी रही होंगी , कुछ प्रत्याशाएं भी पर जैसे-जैसे समय बीतता गया उनकी उम्मीदें टूटने लगीं। सरकारों को जंगल काटने से मतलब था ,कच्चा माल लूटने से मतलब था आदिवासियों से नहीं।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने पाँव पसारे। जंगल काटे जाने लगे, पहाड़ तोड़े जाने लगे।
आदिवासियों का वनों से एकाधिकार समाप्त होता गया और लालची दुनिया जंगलों में पांव पसारती गई। आदिवासियों और वनों की सुरक्षा के लिए सरकारों ने लाख कानून बनाये, पर वे इतने प्रभावी कभी नहीं रहे जो इन्हें सुरक्षा दे सकें।
जब सभ्य समाज असभ्यों के अरण्य में जाता है तो प्रलय मचता है। सफेदपोश लोगों ने जब जंगल की ओर रुख किया तो उनके काले कारनामों से वनपुत्रियां नहीं बच सकीं। बलात्कार से लेकर वेश्यावृत्ति तक सारी कुरीतियां जंगलों में आ गयीं।आदिवासियों का व्यक्तिगत जीवन कब सार्वजनिक हुआ ये उन्हे भी नहीं पता चला।दुनिया भर के फोटोग्राफर जंगलों में पहुँच गए। आदिवासियों के अंतरंग पल दुनिया भर की मैगज़ीनों में फीचर होने लगे।
बाजारवाद की एक महत्वपूर्ण शर्त होती है कि संसाधनों का अधिकतम दोहन करो। ये दोहन चलता रहा।कभी कुछ पैसे देकर तो कभी जबरदस्ती।
आदिवासियों का दैहिक, आर्थिक और मानसिक शोषण अब तक हो रहा है।सब जानते हैं उनकी संस्कृतियां नष्ट हो रही हैं, उत्पीड़न हो रहा है। ऐसे में कुछ मौका परस्त लोगों ने उनकी असंतुष्टि को खूब भुनाया है।
वैसे भी पीड़ित लोगों को बरगलाना सबसे आसान काम होता है। सरकार के खिलाफ हथियार पकड़ा दिए गए ,कुछ ने हथियार उठा लिए , कुछ ने मूक समर्थन दे दिया। नक्सली योद्धा तैयार हो गए।
भूखे इंसान का केवल एक मज़हब होता है भूख। भर पेट खाना जो दे वही देवता अच्छा। धर्मान्तरण के सबसे ज्यादा मामले आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं। विदेशों से संचालित ईसाई मिशनरियां ईश्वर का डर दिखा कर आदिवासियों को शिवप्रसाद से शिवा अलेक्जेंडर बनाती हैं। लालच देकर धर्म परिवर्तन।नेता जैसे चुनावी वादे करते हैं वैसे ही ये मिशनरियां समृद्धि के सपने दिखाकर धर्मान्तरण कराती हैं.
आदिवासी विसंगतियों में जीते हैं. न अस्पताल हैं, न स्कूल हैं, न रोज़गार न सर पे छत। ऐसे में सरकार से इन्हें प्यार भी कैसे हो? सरकार जब कुछ करने जाती है नक्सलियों के सरगना विकास की धज़्ज़ियाँ उड़ा देते हैं।
जंगल काटे जा रहे हैं।, जमीन छीनी जा रही है , विद्रोह तो होगा ही, आग तो सुलगनी ही है।
अमरेंद्र किशोर जी ने सरल शब्दों में आदिवासियों की व्यथा लिखी है, बरबस मन पसीज जाता है। आदिवासी महिलाओं की दशा पढ़कर वितृष्णा होने लगती है तथाकथित सभ्य समाज से। लूटने ,खसोटने के अलावा समाज कुछ नहीं समझता उन्हें।बड़े वर्गों के लिए ये महिलाएं शोषण की विषय वस्तु हैं.
लाल सलाम ठोंकने वाले कार्ल मार्क्स के उत्तराधिकारियों को ज़मीन पे उतरकर कभी जंगल की हकीकत जाननी चाहिए। राजनीती की रोटी सेंकने से अच्छा है कभी उनसे मिला जाए जिन्हें रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जिनके नाम पे राजनीति करके इनकी रातें रंगीन होती हैं कभी उनकी व्यथा महसूस करें, लेकिन कितने शर्म की बात है कि जो पूंजीवाद के सबसे बड़े विरोधी लोग हैं वही निचले तबके को पूँजी के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते, उनके साथ खड़े होने का दावा तो करते हैं पर सिर्फ दावा ही करते हैं , उनके लिए काम नहीं करते ।
आप भी पढ़िए इस किताब को.ज़मीन,जंगल और रोटी को लेकर आदिवासियों अन्तर्द्वन्द्व को जानने के लिए ,शायद आप भी उस दर्द को महसूस कर सकें जिसे एक वर्ग दशकों से झेल रहा है ।
इस किताब के लेखक हैं पत्रकार अमरेंद्र किशोर। प्रकृति पुत्रों की बनैली संस्कृति और उनके भाग्य में मढ़ी गयी विसंगति तथा समाज के साथ उनके संघर्ष पर अब तक लिखी गई सबसे सटीक किताबों में से एक किताब आज़ादी और आदिवासी भी है।
आम तौर पर जब हम आंकड़े इकट्ठा करने के लिए कोई किताब पढ़ते हैं तो अपने काम का विषय पढ़ कर किताब वापस लाइब्रेरी में रख देते हैं, ऐसे ही मंशा लिए मैं भी पढ़ने गया था पर एक लाइन ने पूरी किताब पढ़ा डाली मुझसे।
वो लाइन थी-
''कोई भी समूह जब अपने मूल से कटता है तो कई प्रकार की विसंगतियां उसके भाग्य में मढ़ जाती हैं।'' ये सच है।
हर समुदाय का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है जिसमें किसी भी प्रकार का बाह्य हस्तक्षेप करने का अर्थ होता है उस समुदाय की मान्यताओं को ठेस पहुँचाना। कई बार हस्तक्षेप इतना घातक होता है कि लोग विद्रोह कर देते हैं समाज के प्रति|यह विद्रोह इतना घातक होता है कि समाज सशस्त्र क्रांति की ओर बढ़ जाता है। विद्रोह धीरे-धीरे वाद में बदल जाता है और फिर उस वाद का नामकरण कर दिया जाता है, जैसे - नक्सलवाद, माओवाद, जंगलवाद।
फिर शुरू होता है राज्य का अत्याचार उस समाज पर कालांतर में राज्य और समुदाय एक-दुसरे से उलझते रहते हैं.
जंगल कटते जा रहे हैं और इन जंगलों में रहने वाले आदिवासी भी अपने जड़ों से कटते जा रहे हैं, जिस के कारण एक बड़ा तबका असन्तुष्ट है।
सरकार से असंतुष्ट लोगों को विद्रोही बनाना सबसे आसान काम होता है, उनके इसी मनः स्थिति का लाभ उठाने में चालाकी दिखाई नक्सलवादी संगठनों ने।
आदिवासी समाज का अस्तित्व जंगलों से है। आदिवासियों की संस्कृति निराली होती है, इतनी निराली जो शायद समाज के समझ में न आये।
आज़ादी मिलने से पहले आदिवासी अपने मूल स्वभाव में थे, यानी ब्रिटिश इंडिया से कटा-छटा। ब्रिटिश इंडिया में इनकी मूल स्थिति पर कभी प्रहार नहीं किया गया था। जंगलों से उनका रिश्ता भी शिकार तक सीमित रहा।
आज़ादी के उपलक्ष्य में जब पूरे भारत में जश्न मनाया जा रहा था तो आदिवासियों ने भी जश्न मनाया होगा। कुछ उम्मीदें भी रही होंगी , कुछ प्रत्याशाएं भी पर जैसे-जैसे समय बीतता गया उनकी उम्मीदें टूटने लगीं। सरकारों को जंगल काटने से मतलब था ,कच्चा माल लूटने से मतलब था आदिवासियों से नहीं।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने पाँव पसारे। जंगल काटे जाने लगे, पहाड़ तोड़े जाने लगे।
आदिवासियों का वनों से एकाधिकार समाप्त होता गया और लालची दुनिया जंगलों में पांव पसारती गई। आदिवासियों और वनों की सुरक्षा के लिए सरकारों ने लाख कानून बनाये, पर वे इतने प्रभावी कभी नहीं रहे जो इन्हें सुरक्षा दे सकें।
जब सभ्य समाज असभ्यों के अरण्य में जाता है तो प्रलय मचता है। सफेदपोश लोगों ने जब जंगल की ओर रुख किया तो उनके काले कारनामों से वनपुत्रियां नहीं बच सकीं। बलात्कार से लेकर वेश्यावृत्ति तक सारी कुरीतियां जंगलों में आ गयीं।आदिवासियों का व्यक्तिगत जीवन कब सार्वजनिक हुआ ये उन्हे भी नहीं पता चला।दुनिया भर के फोटोग्राफर जंगलों में पहुँच गए। आदिवासियों के अंतरंग पल दुनिया भर की मैगज़ीनों में फीचर होने लगे।
बाजारवाद की एक महत्वपूर्ण शर्त होती है कि संसाधनों का अधिकतम दोहन करो। ये दोहन चलता रहा।कभी कुछ पैसे देकर तो कभी जबरदस्ती।
आदिवासियों का दैहिक, आर्थिक और मानसिक शोषण अब तक हो रहा है।सब जानते हैं उनकी संस्कृतियां नष्ट हो रही हैं, उत्पीड़न हो रहा है। ऐसे में कुछ मौका परस्त लोगों ने उनकी असंतुष्टि को खूब भुनाया है।
वैसे भी पीड़ित लोगों को बरगलाना सबसे आसान काम होता है। सरकार के खिलाफ हथियार पकड़ा दिए गए ,कुछ ने हथियार उठा लिए , कुछ ने मूक समर्थन दे दिया। नक्सली योद्धा तैयार हो गए।
भूखे इंसान का केवल एक मज़हब होता है भूख। भर पेट खाना जो दे वही देवता अच्छा। धर्मान्तरण के सबसे ज्यादा मामले आदिवासी क्षेत्रों से आते हैं। विदेशों से संचालित ईसाई मिशनरियां ईश्वर का डर दिखा कर आदिवासियों को शिवप्रसाद से शिवा अलेक्जेंडर बनाती हैं। लालच देकर धर्म परिवर्तन।नेता जैसे चुनावी वादे करते हैं वैसे ही ये मिशनरियां समृद्धि के सपने दिखाकर धर्मान्तरण कराती हैं.
आदिवासी विसंगतियों में जीते हैं. न अस्पताल हैं, न स्कूल हैं, न रोज़गार न सर पे छत। ऐसे में सरकार से इन्हें प्यार भी कैसे हो? सरकार जब कुछ करने जाती है नक्सलियों के सरगना विकास की धज़्ज़ियाँ उड़ा देते हैं।
जंगल काटे जा रहे हैं।, जमीन छीनी जा रही है , विद्रोह तो होगा ही, आग तो सुलगनी ही है।
अमरेंद्र किशोर जी ने सरल शब्दों में आदिवासियों की व्यथा लिखी है, बरबस मन पसीज जाता है। आदिवासी महिलाओं की दशा पढ़कर वितृष्णा होने लगती है तथाकथित सभ्य समाज से। लूटने ,खसोटने के अलावा समाज कुछ नहीं समझता उन्हें।बड़े वर्गों के लिए ये महिलाएं शोषण की विषय वस्तु हैं.
लाल सलाम ठोंकने वाले कार्ल मार्क्स के उत्तराधिकारियों को ज़मीन पे उतरकर कभी जंगल की हकीकत जाननी चाहिए। राजनीती की रोटी सेंकने से अच्छा है कभी उनसे मिला जाए जिन्हें रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ता है, जिनके नाम पे राजनीति करके इनकी रातें रंगीन होती हैं कभी उनकी व्यथा महसूस करें, लेकिन कितने शर्म की बात है कि जो पूंजीवाद के सबसे बड़े विरोधी लोग हैं वही निचले तबके को पूँजी के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते, उनके साथ खड़े होने का दावा तो करते हैं पर सिर्फ दावा ही करते हैं , उनके लिए काम नहीं करते ।
आप भी पढ़िए इस किताब को.ज़मीन,जंगल और रोटी को लेकर आदिवासियों अन्तर्द्वन्द्व को जानने के लिए ,शायद आप भी उस दर्द को महसूस कर सकें जिसे एक वर्ग दशकों से झेल रहा है ।