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सोमवार, 5 सितंबर 2016

अंगिका भाषा और आभासी दुनिया

लोक भाषाएँ लोक संस्कृतिओं की संवाहक होती है.विभिन्न प्रकार की लोक भाषाएँ और लोक संस्कृतियां भारत की विभिन्नता में एकरूपता की अवधारणा को पुष्ट करती हैं.भारत की यही विशिष्टता है विभिन्नता में एकरूपता.इन्हीं लोक भाषाओँ में एक सुमुधर और चिर पुरातन भाषा है अंगिका.

अंगिका भाषा से मेरा परिचय अभी कुछ समय पूर्व ही हुआ है.मैं इस भाषा की विशिष्टता से अनभिज्ञ था. इसका एकमात्र कारण यह था कि अंगिका भाषा मैथिली भाषा के सामान ही प्रतीत होती है.दोनों भाषाओं में विभेद करना केवल उन्ही के सामर्थ्य की बात है जो या तो भाषाविद हैं अथवा जिनकी ये मातृ भाषा है.
आज के युग में हर भाषा अपनी विशिष्टता खो रही है. उदाहरणार्थ अवधी और भोजपुरी को ही देख लीजिए.अवधी कबीर, रहीम और तुलसी दास जी की भाषा रही है. एक से बढ़कर एक ग्रन्थ और दोहे इसमें रचे गए हैं.भारतीय जनमानस का सबसे प्रसिद्द ग्रन्थ “श्री राम चरित मानस ” भी अवधी में ही लिखा गया है.शायद ही कोई सनातन धर्मी हो जिसके घर में रामचरित मानस न मिले, किन्तु यह जिस भाषा में है उस भाषा को लोग भोजपुरी समझने लगे हैं. भोजपुरी हावी हो रही है अवधी पर क्योंकि उसे स्तरीय साहित्यकार नहीं मिल रहे हैं.संयोग से अंगिका भी इसी स्थिति से गुजर रही है.
अंगिका अंग प्रदेश की भाषा है. वही अंगराज कर्ण की भूमि.अंग प्रदेश सदैव से प्रासंगिक रहा है चाहे महाभारत काल की बात हो अथवा बुद्ध काल की। यह प्रदेश सदैव भारत राष्ट्र का गौरव रहा है, किन्तु यहाँ बोली जाने वाली भाषा अंगिका अपने अस्तित्त्व से संघर्ष कर रही है.
यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल आर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) ने तो इसे विलुप्त भाषाओं में चिन्हित किया है,इसका कारण एक मात्र यही है कि इस भाषा को अच्छे सृजक नहीं मिले.
अंगिका भाषा मिठास की भाषा है, ऐसी भाषा जो बहुत आसानी से सीखी जा सकती है.यूँ तो किसी भाषा का उत्थान या पतन उस भाषा को बोलने वालों की सामरिक आर्थिक,सामाजिक और वैयक्तिक क्षमता पर निर्भर करती है किन्तु कई बार कुछ समर्थ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो इन सभी परिस्थितियों की अभाव में भी अपनी भाषा और संस्कृति को आगे ले जा सकते हैं.
ऐसे ही कुछ समर्थ साहित्यकारों से मेरा परिचय हुआ जो अंगिका भाषा के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं.
आज बौद्धिक वर्ग एक ही दुनिया में दो तरह की दुनिया में खुद को जीता है. एक वास्तविक दुनिया और दूसरी आभासी दुनिया.
आभासी दुनिया अर्थात फेसबुक,ट्विटर और ब्लॉग वाली दुनिया. ये आभासी दुनिया बौद्धिक वर्ग के लिए किसी वरदान की तरह है.
यदि साहित्यकार अपने भाषा और संस्कृति को जीवित रखना चाहता है तो उसे दोनों तरह की दुनिया में प्रासंगिक होना पड़ेगा.
अंगिका साहित्य को आभासी दुनिया से जोड़ने का श्रेय जाता है कुंदन अमिताभ जी को.इन्होने ही सबसे पहले अंगिका.कॉम नाम की एक वेबसाइट बनायीं और अंगिका से जुडी पुरातन और नवीन सामग्रियों को प्रकाशित करना शुरू किया.
कुंदन अमिताभ के इस पहल का परिणाम यह हुआ की अंगिका साहित्य से जुड़े बड़े नामों में से एक डॉक्टर अमरेंद्र, राहुल शिवाय और ऐसे ही अनेक साहित्यकारों ने इस विधा की रचनाओं को फेसबुक व अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर साझा करना शुरू किया.धीरे -धीरे फेसबुक पर अंगिका समाज बना और दर्ज़नों साहित्यकार अंगिका में कवितायेँ लिखने लगे. अंगिका पुनः जीवित होने लगी.
कोई भी भाषा विश्वपटल पर छा सकती है बस उसे कुछ समर्पित लोग मिल जाएँ. ऐसे ही एक समर्पित युवा साहित्यकार हैं राहुल शिवाय. फरवरी २०१६ में अंगिका भाषा को कविता कोष से जोड़ने का कार्य किया राहुल शिवाय ने. कविता कोष भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी वेबसाइट है. कविता कोष में शामिल होने से अंगिका भाषा को एक बड़ा मंच मिला. देखते ही देखते कविता कोष में २००० से अधिक रचनाएँ और १०० से ज्यादा रचनाकार शामिल हुए.अंगिका दिन प्रतिदिन प्रसिद्द होने लगी.
जिस भाषा को यूनेस्को ने विलुप्तप्राय कहा था वही भाषा एक बार पुनः प्रासंगिक हो उठी. यदि इसी तरह साहित्यकार इस भाषा के उत्थान के लिए दृढ संकल्पित रहे तो इस भाषा का राष्ट्रीय पटल पर आना निश्चित है.
लोक भाषा लोक संस्कृतियों को बाँध कर रखती हैं और यही लोक संस्कृतियां भारत की विशेषता रही हैं. इनके जीवित रहने से ही भारतीयता की पहचान है इसलिए इनका संरक्षण अनिवार्य है….
- अभिषेक शुक्ल
लोक भाषाएँ लोक संस्कृतिओं की संवाहक होती है.विभिन्न प्रकार की लोक भाषाएँ और लोक संस्कृतियां भारत की विभिन्नता में एकरूपता की अवधारणा को पुष्ट करती हैं.भारत की यही विशिष्टता है विभिन्नता में एकरूपता.इन्हीं लोक भाषाओँ में एक सुमुधर और चिर पुरातन भाषा है अंगिका.
अंगिका भाषा से मेरा परिचय अभी कुछ समय पूर्व ही हुआ है.मैं इस भाषा की विशिष्टता से अनभिज्ञ था. इसका एकमात्र कारण यह था कि अंगिका भाषा मैथिली भाषा के सामान ही प्रतीत होती है.दोनों भाषाओं में विभेद करना केवल उन्ही के सामर्थ्य की बात है जो या तो भाषाविद हैं अथवा जिनकी ये मातृ भाषा है.
आज के युग में हर भाषा अपनी विशिष्टता खो रही है. उदाहरणार्थ अवधी और भोजपुरी को ही देख लीजिए.अवधी कबीर, रहीम और तुलसी दास जी की भाषा रही है. एक से बढ़कर एक ग्रन्थ और दोहे इसमें रचे गए हैं.भारतीय जनमानस का सबसे प्रसिद्द ग्रन्थ “श्री राम चरित मानस ” भी अवधी में ही लिखा गया है.शायद ही कोई सनातन धर्मी हो जिसके घर में रामचरित मानस न मिले, किन्तु यह जिस भाषा में है उस भाषा को लोग भोजपुरी समझने लगे हैं. भोजपुरी हावी हो रही है अवधी पर क्योंकि उसे स्तरीय साहित्यकार नहीं मिल रहे हैं.संयोग से अंगिका भी इसी स्थिति से गुजर रही है.
अंगिका अंग प्रदेश की भाषा है. वही अंगराज कर्ण की भूमि.अंग प्रदेश सदैव से प्रासंगिक रहा है चाहे महाभारत काल की बात हो अथवा बुद्ध काल की। यह प्रदेश सदैव भारत राष्ट्र का गौरव रहा है, किन्तु यहाँ बोली जाने वाली भाषा अंगिका अपने अस्तित्त्व से संघर्ष कर रही है.
यूनाइटेड नेशन्स एजुकेशनल, साइंटिफिक एंड कल्चरल आर्गेनाइजेशन (यूनेस्को) ने तो इसे विलुप्त भाषाओं में चिन्हित किया है,इसका कारण एक मात्र यही है कि इस भाषा को अच्छे सृजक नहीं मिले.
अंगिका भाषा मिठास की भाषा है, ऐसी भाषा जो बहुत आसानी से सीखी जा सकती है.यूँ तो किसी भाषा का उत्थान या पतन उस भाषा को बोलने वालों की सामरिक आर्थिक,सामाजिक और वैयक्तिक क्षमता पर निर्भर करती है किन्तु कई बार कुछ समर्थ पुरुष ऐसे भी होते हैं जो इन सभी परिस्थितियों की अभाव में भी अपनी भाषा और संस्कृति को आगे ले जा सकते हैं.
ऐसे ही कुछ समर्थ साहित्यकारों से मेरा परिचय हुआ जो अंगिका भाषा के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं.
आज बौद्धिक वर्ग एक ही दुनिया में दो तरह की दुनिया में खुद को जीता है. एक वास्तविक दुनिया और दूसरी आभासी दुनिया.
आभासी दुनिया अर्थात फेसबुक,ट्विटर और ब्लॉग वाली दुनिया. ये आभासी दुनिया बौद्धिक वर्ग के लिए किसी वरदान की तरह है.
यदि साहित्यकार अपने भाषा और संस्कृति को जीवित रखना चाहता है तो उसे दोनों तरह की दुनिया में प्रासंगिक होना पड़ेगा.
अंगिका साहित्य को आभासी दुनिया से जोड़ने का श्रेय जाता है कुंदन अमिताभ जी को.इन्होने ही सबसे पहले अंगिका.कॉम नाम की एक वेबसाइट बनायीं और अंगिका से जुडी पुरातन और नवीन सामग्रियों को प्रकाशित करना शुरू किया.
कुंदन अमिताभ के इस पहल का परिणाम यह हुआ की अंगिका साहित्य से जुड़े बड़े नामों में से एक डॉक्टर अमरेंद्र, राहुल शिवाय और ऐसे ही अनेक साहित्यकारों ने इस विधा की रचनाओं को फेसबुक व अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर साझा करना शुरू किया.धीरे -धीरे फेसबुक पर अंगिका समाज बना और दर्ज़नों साहित्यकार अंगिका में कवितायेँ लिखने लगे. अंगिका पुनः जीवित होने लगी.
कोई भी भाषा विश्वपटल पर छा सकती है बस उसे कुछ समर्पित लोग मिल जाएँ. ऐसे ही एक समर्पित युवा साहित्यकार हैं राहुल शिवाय. फरवरी २०१६ में अंगिका भाषा को कविता कोष से जोड़ने का कार्य किया राहुल शिवाय ने. कविता कोष भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी वेबसाइट है. कविता कोष में शामिल होने से अंगिका भाषा को एक बड़ा मंच मिला. देखते ही देखते कविता कोष में २००० से अधिक रचनाएँ और १०० से ज्यादा रचनाकार शामिल हुए.अंगिका दिन प्रतिदिन प्रसिद्द होने लगी.
जिस भाषा को यूनेस्को ने विलुप्तप्राय कहा था वही भाषा एक बार पुनः प्रासंगिक हो उठी. यदि इसी तरह साहित्यकार इस भाषा के उत्थान के लिए दृढ संकल्पित रहे तो इस भाषा का राष्ट्रीय पटल पर आना निश्चित है.
लोक भाषा लोक संस्कृतियों को बाँध कर रखती हैं और यही लोक संस्कृतियां भारत की विशेषता रही हैं. इनके जीवित रहने से ही भारतीयता की पहचान है इसलिए इनका संरक्षण अनिवार्य है….
- अभिषेक शुक्ल

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