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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

कश्मीर की समस्या

कश्मीर में इन दिनों जो हो रहा है उसे देखकर
संदेह होता है कि हमारा देश वास्तव में एक
सम्प्रभु राष्ट्र है अथवा टुकड़ों में बाटे भू-
भागके अतिरिक्त और कुछ नहीं जहाँ
सियासत के नाम पर देश तक की सौदेबाज़ी
होती है।कभी पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर
का नासूरजो हमारे समर्थ होने के कल्पित
आभास पर एक काला धब्बा है असीम कष्ट
देता है तोकभी जम्मू और कश्मीर के
नागरिकों का पाकिस्तान प्रेम जो हमें
भीतर से खोखलाकरता है । पाकिस्तान
वर्षों से अपनी आतंकी और कुटिल छवि को
बरक़रार रखे हुए है। अक्सर अपने कुटिलता का
सबूत भी देता है। बात चाहे१९६५ की हो या
१९७१ और १९९९ के कारगिल युद्ध की हो
पाकिस्तान ने अपनी सधी-सधाई फितरत को
हर बार अंजाम दिया है।बेशर्म इतना है कि
तीन बार करारी हार के बाद भी लड़ने का
एक मौका नहीं छोड़ना चाहता। कश्मीर का
भारत में विलय होना पाकिस्तान की नजरों
में हमेशा खटकता है कि कैसे एक मुस्लिम
बाहुल्य प्रांत एक हिन्दू बाहुल्य राष्ट्र का
हिस्सा हो सकता है?कौनसमझाए इन
पाकिस्तानियों को राष्ट्र धर्म से नहीं
सद्भावना से से बनता है। ये तो पाकिस्तान
की बात हुई अब भारत की बात करते हैं। ऐसा
क्या है जो आजादी के छः दशक बाद भी
'जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में
अस्थायी उपबन्ध' अनुच्छेद ३७० आज तक हट न
सका या संशोधित न हो सका?एक राष्ट्र
और ''दो संविधान" सुनकर कितना बुरा
लगताहै न? अधिकतर 'एक्ट' जो भारत सरकार
पास करती है वे जम्मू और कश्मीर में शून्य होते
हैं। आप कुछ महत्वपूर्ण एक्ट्स के सेक्शन पढ़ सकते हैं
उनमे अधिकतर जम्मू और कश्मीर में अप्रभावी
होने की बात कही गयी है। उदहारण के लिए
"भारतीय दण्ड संहिता" के धारा 1 को देखते
हैं- संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का
विस्तार- यह अधिनियम भारतीय
दण्डसंहिता कहलायेगा और इसका विस्तार
जम्मू- कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत
पर होगा। भारत के सबसे बड़े और प्रभावी एक्ट
का ये हाल है तो सामान्य एक्ट्स की बातही
क्या की जाए। यह कैसी संप्रभुता है भारत देश
की? किसी राज्य को विशेष दर्जा कब तक
दिया जाना उचित है? जवाब निःसंदेह यही
होगा कि जब तक वो प्रदेश सक्षम न हो
जाए। अब किस तरह की सक्षमता का इंतज़ार
देश को है? एक देश और दो संविधान क्यों है?
कहीं न कहीं यह हमारे तंत्र की विफलता है
कि हम अपनों को अपना न बना सके। कश्मीर
के निवासियों से पूछा जाए कि आपकी
राष्ट्रीयता क्या है तो अधिकांश लोगों
का जवाब होगा 'कश्मीरी'। अपने आपको
भारतीय कहना शायद उनके मज़हब और मकसद
की तौहीन होती है। हमारे देश के नागरिक
होकर उनका पाकिस्तान प्रेम अक्सर छलक
पड़ता है ख़ास तौर से जब कोई पाकिस्तानी
नेता भारत आये या भारत और पाकिस्तान
का क्रिकेट मैच चल रहा हो, कश्मीरी
नौजवानों को पाकिस्तान जिंदाबाद के
नारे लगाने का मौका मिल जाता चाहे वो
कश्मीर में हों या दिल्ली एअरपोर्ट पर या
मेरठ के सुभारती विश्वविद्यालय में।
कश्मीरियों का लगाव पाकिस्तान से कुछ
ज्यादा ही है क्योंकि अराजकता और
जिहाद का ठेका पाकिस्तान बड़े मनोयोग
से पूरा करता है संयोग से अलगाव वादियों
को पाकिस्तान भरपूर समर्थन भी दे रहा है
और ज़िहाद के नाम पर मुस्लिम युवकों को
गुमराह भी कर रहा है।७० हूरों के लिए ७००
लोगों को बेरहमी से मारना केवल यहीं
जायज हो सकता है।अलगाव वादियों की
ऑंखें पाकिस्तान केआतंरिक मसलों को देख कर
नहीं खुलतीं; राजनीतिक अस्थिरता, गृह युद्ध
कीस्थिति, आतंकवाद और भुखमरी के अलावा
पाकिस्तान में है क्या? एक अलग राष्ट्र की
संकल्पना करने वाले लोग गिनती के हैं पर
उनकेसमर्थन में खड़ी जनता को भारत का प्रेम
नहीं दिखता या आतंकवाद की पट्टी आँखों
को कुछ सूझने नहीं देती। कश्मीर के कुछ
कद्दवार नेता हैं जिनके बयान अभिव्यक्ति के
नाम पर छुब्ध करते हैं।अनुच्छेद ३७० विलोपन के
सम्बन्ध में बहस पर उनकी दो टूक प्रतिक्रिया
होती है कि यदि ऐसा होता है तो 'कश्मीर
भारत का हिस्सा नहीं होगा' ऐसी
प्रतिक्रिया आती है, भारतीय संप्रभुता पर
इससे बढ़कर और तमाचा क्या होगा? केंद्र
सरकार कब तक विश्व समुदाय के भय से अपने
ही हिस्से को अपना नहीं कहेगी? अनुच्छेद
३७० को कब तक हम "कुकर्मो की थाती की
तरह ढोएंगे? एक भूल जो नेहरू जी ने की थी कि
अपने देश की समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ में ले
गए और दूसरी भूल हमारी सरकारें कर रही हैं
जो कल के भूल को आज तक सुधार नहीं पायी
। हमारे आतंरिक मसले में भला तीसरे संगठन का
क्या काम? भारत सरकार जम्मू-कश्मीर की
सुरक्षा के लिए अरबों पैसे खर्च करती है पर बदले
में क्या मिलता है, सैनिकों की नृषंस हत्या?
जनता का दुत्कार और उपेक्षा? सुनकर हृदय
फटता है कि सैनिकों की हत्या के पीछे सबसे
बड़ा हाथ वहां की जनता का है। जो उनकी
हिफाज़त के लिए अपनों से दूर मौत के साए में
दिन-रात खड़ा है उसे ही मौत के सुपुर्द कर
दिया जाता है। क्या हमारे जवानों के
शहादत का कोई मतलब ही नहीं? कब तक
हमारे सैनिकों का सर कटा जाएगा? कब तक
भारतीय नारी वैधव्य की पीड़ा झेलेगी
सियासत की वजह से? कम से कम शहादत पर
सियासत तो न हो। हमेशा देश के विरुद्ध
आचरण करने वाली जम्मू-कश्मीर की प्रदेश
सरकार जो कुछ दिन पहले तक सत्ता में थी जब
महाप्रलय आया तो हाथ खड़े कर दिया और
केंद्र सरकार से मदद मांगी। सेना ने अपने जान
पर खेल कर कश्मीरियों की जान बचाई पर
सुरक्षित होने पर प्रतिक्रिया क्या मिली?
सैनिकों पर पत्थर फेंके गए, जान बचाने का
प्रतिफल इतना भयंकर? कभी-कभी
कश्मीरियों की पाकिस्तान-परस्ती देख कर
ऐसा लगता है कि ये हमारे देश के हैं ही नहीं,
फिर हम क्यों इनके लिए अपने देश के जाँबाज़
सैनिको की बलि देते हैं? एक तरफ पाकिस्तान
का छद्म युद्ध तो दूसरी तरफ अपनों का
सौतेला व्यवहार आम जनता को कष्ट नहीं
होगा तो और क्या होगा? अनुच्छेद ३७० का
पुर्नवलोकन नितांत आवश्यक है और विलोपन
भी अन्यथा पडोसी मुल्क बरगला कर
कश्मीरियों से कुछ भी करा सकता है
अप्रत्याशित और बर्बरता के सीमा से परे। एक
तरफ हमारा पडोसी मुल्क चीन है जो
सदियों से स्वतंत्र राष्ट्र "तिब्बत" को अपना
हिस्सा बता जबरन अधिकार करता है तो
दूसरी ओर हम हैं जो अपने अभिन्न हिस्से पर
कब्ज़ा करने में काँप रहे हैं। यह कैसी कायरता है
जो इतने आज़ाद होने के बाद भी नहीं मिटी।
दशकों बाद भारत में बहुमत की सरकार बनी
है,वर्षों बाद कोई सिंह गर्जना करने वाला
व्यक्ति प्रधान मंत्री बना है तो क्यों न
जनता के वर्षों पुराने जख़्म पर मरहम लगाया
जाए कौन सी ऐसी ताकत है जो भारत के
विजय अभियान में रोड़ा अटका सके?
आज़ादी के इतने वर्षों बाद कोई तो
निर्णायक फैसला होना चाहिए, सैनिकों के
शहादत का कोई प्रतिफल आना चाहिए।
भारतियों को बस एक ही बात खटकती है कि
देश एक है, संप्रभुताएक है, राष्ट्रपति और
प्रधानमंत्री एक हैं पर संविधान अलग-अलग
क्यों है? एक देश में दो संविधान क्यों है?

11 टिप्‍पणियां:

  1. दलों में सामूहिक संकल्प शक्ति के अभाव नें मामले का काल विस्तार कर दिया है।बड़े फैसलों की सबसे बड़ी बाधा वर्तमान सरकार का राज्य सभा में "अल्पमत" है।लेख अच्छा एवं सार्थक है।मै आप की बात से सहमत हूँ।

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  2. दलों में सामूहिक संकल्प शक्ति के अभाव नें मामले का काल विस्तार कर दिया है।बड़े फैसलों की सबसे बड़ी बाधा वर्तमान सरकार का राज्य सभा में "अल्पमत" है।लेख अच्छा एवं सार्थक है।मै आप की बात से सहमत हूँ।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (19-04-2015) को "अपनापन ही रिक्‍तता को भरता है" (चर्चा - 1950) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  4. कश्मीर की समस्या पर...बहुत ही सार्थक लेख..इस मुददे पर सभी भारतीय को साथ आना चाहिए..

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  5. पडोसी देश तो फायदा उठाएंगे ही जब अपने घर ही कमजोर है ...
    हमारे नेता अपने स्वार्थ के चलते इस समस्या को सुलझाना ही नहीं चाहते ...

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  6. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  7. ये तो पाकिस्तान
    की बात हुई अब भारत की बात करते हैं। ऐसा
    क्या है जो आजादी के छः दशक बाद भी
    'जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में
    अस्थायी उपबन्ध' अनुच्छेद ३७० आज तक हट न
    सका या संशोधित न हो सका?एक राष्ट्र
    और ''दो संविधान" सुनकर कितना बुरा
    लगताहै न? अधिकतर 'एक्ट' जो भारत सरकार
    पास करती है वे जम्मू और कश्मीर में शून्य होते
    हैं। आप कुछ महत्वपूर्ण एक्ट्स के सेक्शन पढ़ सकते हैं
    उनमे अधिकतर जम्मू और कश्मीर में अप्रभावी
    होने की बात कही गयी है। उदहारण के लिए
    "भारतीय दण्ड संहिता" के धारा 1 को देखते
    हैं- संहिता का नाम और उसके प्रवर्तन का
    विस्तार- यह अधिनियम भारतीय
    दण्डसंहिता कहलायेगा और इसका विस्तार
    जम्मू- कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत
    पर होगा। एकदम सार्थक ! अभिषेक जी , कश्मीर में भारत ने कुछ ज्यादा ही लचीला रुख दिखाया है अब तक ! आगे देखें क्या होता है !

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  8. विचारोत्तेजक प्रस्तुति अभिषेक जी।
    ये पाकिस्तान का खोखला अहम है जो बार बार वो भारत से टकराने का झूठा माद्दा लेकर आ खड़ा होता है।
    और रही बात भारत की तो आपके विचारों से मैं भी पूर्णतः सहमत हूँ कश्मीर के मामले में भारत का इतना लचीलापन कतई जायज़ नहीं। और सिर्फ विश्व समुदाय से के भय से कब तक ये सब झेलना उचित है?
    "एक देश में दो संविधान क्यों है?" एकदम सार्थक सवाल।

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