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सोमवार, 13 अप्रैल 2015

किसान का दर्द


किसान भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। एक किसान दिन-रात एक करके अन्न उपजाता है जिससे देश वासियों को दो वक्त की रोटी मिलती है। उद्योग-धंधों से जेब भर सकती है पेट नही, पेट भरने के लिए खेत चाहिए जिसे सुरक्षित रखना सरकार का दायित्व है किन्तु सरकार तो भूमि अधिग्रहण कानून के प्रवर्तन में व्यस्त है।
 देश में जब भी चुनाव का मौसम आता है तो किसानो को बारिश से ज्यादा आस सरकार से होती है पर सरकार तो अपने फायदे के लिए काम करती है चाहे वो राज्य सरकार हो अथवा केंद्र सरकार हो। किसानों के हिस्से में हमेशा कर्ज़ आता है जिसे चुकाने के चक्कर में किसान कभी जमीन बेचता है तो कभी ज़मीर।
बैंक उद्योगपतियों को करोड़ों रुपयों के लोन पास कर देता है और वसूली के लिए कोई जल्दी भी नहीं करता पर किसान सही समय पर पैसे न दें तो उनकी जमीन की कुर्की या निलामी करने पहले पहुँच जाता है। एक किसान जब लोन लेने जाता है तो उसके नाम लोन तब तक पास नहीं होता जब तक कि बैंक वाले अपना हिस्सा न वसूल लें।

Published on 20th april on dainik jagran
एक लाख रुपयों का लोन है तो पच्चीस हज़ार तो बैंक वाले घूस खा जाते हैं। एक किसान हर जगह शोषित होता है। उसके लिए उसके शोषित होने की वजह किसान होना नहीं है अपितु गरीब होना है। भारत में समता कहीं नहीं है। गरीबी उन्मूलन के दावे करके पार्टियां वोट बटोरती हैं और जैसे ही सत्ता में आती हैं सरकार अमीरों की हो जाती है। भारतीय जनता हर बार छली गई है। अच्छे दिनों की चाह में बुरे दिन कब गले पड़ते हैं पता ही नहीं चलता।
पिछले कुछ सप्ताह से उत्तर भारत में बारिश के कहर ने भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों का ध्यान भटका दिया है। बारिश और बिल के कशमकश में तड़पता किसान इतना व्यथित है कि किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है। बिन मौसम बरसात ने फसलें चौपट कर दी हैं। गेहूं की फसल एक बार के बारिश से बर्बाद हो जाती है खासतौर से जब फसल पक गयी हो तो फसल बर्बाद होने का खतरा और बढ़ जाता है। दुर्भाग्य से बारिश ने अपना काम कर दिया है और सरकार भी काम के समापन के दिशा की ओर उन्मुख है।
सरकार खुद को किसानो का मसीहा भले ही कह रही हो पर किसानो के मन में सरकार की अलग ही छवि बन रही है। भारत में विकास के लिए सरकार यदि भूमि अधिग्रहण बिल की जगह किसान सुधार बिल लाती तो तो देश की अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ होती और विकास के नए आयाम भी पैदा होते।
पिछले कुछ वर्षों से किसान कृषि कार्यों  की जगह आत्महत्या कर रहे हैं। वहज भी है। कृषि के लिए लोन लेना और फिर वापस न कर पाना, कभी अति वृष्टि तो कभी अना वृष्टि, कभी सूखा तो कभी बाढ़, सीमित संसाधन और अपेक्षाएं दर्जन भर, एक किसान कितना दर्द झेलता है और इस दर्द की दवा के लिए जब सरकार से उम्मीद करता है तो उस पर थोप दिया जाता है कोई न कोई नया बिल। 
सरकार क्यों नहीं समझती की बिल से ज्यादा जरूरी है बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ती। कृषि योग्य जमीनों पर सिंचाई की उचित व्यवस्था हो, खाद, बिजली की व्यवस्था हो, कृषि हेतु लिए गए ऋण में ब्याज़ की दरें कम हों तथा फसलों के विक्रय के लिए उचित बाजार हो। सरकार यदि बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराये तो उद्योगपतियों से कम कर किसान नहीं देंगे। आज भी भारत की सबसे ईमानदार कौम किसान ही है। सरकार किसानों के विकास के लिए कुछ नहीं कर रही है लेकिन भूमि अधिग्रहण बिल पर उनका समर्थन और सहमति दोनों चाहती है। यह कैसा न्याय है?
किसान के लिए खेत कमाऊ पूत होता है पर इस पूत पर हज़ार भूत चढ़े रहते हैं। कभी सूखा, कभी बाढ़, कभी आंधी कभी पानी और कभी जंगली जानवरों का प्रकोप। एक अनार और सौ बीमार वाली दशा होती है किसान की, फिर भी सरकार का मन पसीज नहीं रहा, किसान के कलेजे के टुकड़े को बिना छीने चैन कहाँ मिलेगा?
पिछले एक दशक से किसानों की संख्या तेजी से घट रही है। वजह भी है। लगातार घाटे सहना मुश्किल काम है और किसान तो वर्षों से घाटे ही खा रहा है। सारे व्यवसाय सफल हैं पर कृषि व्यवसाय निरंतर घाटे में है ऐसी दशा में किसानों की कृषि के प्रति उदासीनता प्रत्याशा से परे नहीं है।
 एक किसान अपने बच्चों को कभी किसान नहीं बनाना चाहता क्योंकि उसे पता है इस क्षेत्र में नुकसान ही नुकसान है। सरकार कृषि योग्य भूमि को भी आवासीय भूमि करार देकर कब छीन ले पता नहीं। इसलिए कैसे भी करके कामयाब बन जाओ चाहे ज़मीन बिके या ज़मीर, पर कामयाबी मिलनी चाहिए। किसानी तो नाकामयाबी का दूसरा नाम है।
कभी ऐसा कहा जाता था कि किसान कभी बेरोजगार नहीं हो सकता पर आज ये रोजगारी सांत्वना लगती है। कृषकों के पास कोई विकल्प नहीं है कृषि के अलावा, अन्यथा खेती से तो अब तक सन्यास ले चुके होते। सरकार किसानों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है, लेकिन इस दिशा में कोई काम सरकार को नहीं करना क्योंकि ये तो उद्योगपतियों की सरकार है।

कहने के लिए तो राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, ग्रामीण भण्डारण योजना जैसे अनेक उपक्रम हैं पर दुर्भाग्य से ये योजना बनकर ही रह गए। सूचनाओं पर गौर करें तो इन योजनाओं से लाभान्वित होने वाले किसान गिनती के हैं। इस सरकार से अच्छे दिनों की उम्मीद थी पर अच्छे दिन तो कहीं गायब हो गए हैं।
जब कोई कृषक किसान क्रेडिट कार्ड बनवाता है ऋण लेकर खेती करने के लिए तो डर लगता है; कहीं ऋण चुकाने के लिए जमीन न बेचनी पड़े क्योंकि मैंने अपने आस-पास यही देखा है। पहले किसान ऋण लेता है इस उम्मीद में कि वो ऋण खेती से ही चुका देगा पर खेती तो हर बार दगा देती है, समय बीतता जाता है और ब्याज बढ़ता जाता है फिर इसकी कीमत किसान को अपनी जमीन बेच कर चुकानी पड़ती है या परिवार सहित ख़ुदकुशी करके। मेरे देश के अन्नदाता की यही व्यथा है की परोपकार में सारा जीवन बिता देते हैं पर उनके जीवन के सुरक्षा की चिंता किसी को भी नहीं होती।
किसान आज भी परम्परागत खेती में विश्वास करते हैं। नए प्रयोग से डरते हैं क्योंकि न तो उनकी मदद के लिए कोई कृषि विशेषज्ञ आगे आते हैं न किसान मित्र जैसी कोई संस्था। पुराने ढर्रे को छोड़कर किसान जब तक नई पद्धतियों की ओर  ध्यान नहीं देंगे तब तक उनके अच्छे दिन नहीं आने वाले। पर नई तकनीक किसानों तक तब पहुंचेगी जब उन्हें इसके बारे में बताया जायेगा। जब सरकार किसानों की समस्याओं पर ध्यान देगी। बैंक सस्ते ब्याज़ पर लोन देंगे और लोन चुकाने के लिए पर्याप्त समय भी। एक सीमा तक के लिए शून्य ब्याज़ दर पर लोन किसानों को मिलनी चाहिए तभी किसान देश के विकास में सक्रिय भागीदारी निभा सकते हैं।
भारत में फसल बीमा से लगभग सारे किसान अनभिज्ञ हैं। इसी तरह पशु बीमा से भी। बीमा कंपनियों को चाहिए कि जनता को इस विषय से अवगत कराएं कि अब फसलों की भी बीमा होती है। किसी प्राकृतिक प्रकोप की दशा में भी बीमा कंपनी किसानो की सच्ची हितैषी बन उनके साथ खड़ी हैं। इससे किसानों का मनोबल बढ़ेगा और वे बेहतर विधि से खेती करने के लिए तत्पर रहेंगे।
किसानों की सुरक्षा के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों को प्रयत्न करना चाहिए तथा कृषि की बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए आगे आना चाहिए तभी किसान सुरक्षित रहेंगे और देश में अनाज आपूर्ति संभव हो सकेगा। देश तभी विकसित होगा जब किसान विकसित होंगे। 
केंद्र सरकार को ये आभास क्यों नहीं हो रहा है कि देश को भूमि अधिग्रहण बिल की नहीं किसान सशक्तिकरण की आवश्यकता है।
भारत आज भी गाँव में बसता है।
और गाँव में किसान बसते हैं जो भारत की शान हैं, अन्नदाता हैं यदि जमीन नहीं रहेगी तो अनाज कहाँ से आएगा? 
इतने जुल्म हम पर न करो सरकार! जीने का हक़ हमें भी है। देश के भाग्यविधाता हम भी हैं, 
हमारी जमीन छीनी गयी तो हम मर जाएंगे, हमें जीने दो,
हमारी जमीन मत छीनो।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सही बात आप नें लिखी है शुक्ला जी।मैं तो गाँव मैं ही रहता हूँ 30% से40% भी कटाई-मड़ाई नहीं हो पायी है।आप का लेख पढ़ रहा हूँ और सर बादल घूम रहे है ,अंज़ाम ईश्वर जाने .............सच्चाई बयान करता लेख।

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  2. बिल्कुल सही बात आप नें लिखी है शुक्ला जी।मैं तो गाँव मैं ही रहता हूँ 30% से40% भी कटाई-मड़ाई नहीं हो पायी है।आप का लेख पढ़ रहा हूँ और सर बादल घूम रहे है ,अंज़ाम ईश्वर जाने .............सच्चाई बयान करता लेख।

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  3. बहुत अच्छा लिखा है आपने !

    सरकार पूंजीपतियों की झोली भरने में लगी है ..माल्या ग्रुप पर बैंको का 6000 करोड़ का ऋण है , और सुब्रत राय सहारा साहब ग्राहकों के 20000 करोड़ न लौटा पाने के कारन,ग्राहकों क साथ धोखा करने के कारण, तिहाड़ जेल में है सरकार उनको बचाने में लगी है इन लोगो पर सरकार या बैंक वाले कुछ एक्शन लेंगे लेकि अगर किसान ऋण नही चुका पता है तो उसका खेत जब्त कर लिया जाता है . बी .जी.पी. ने 6000 करोड़ रूपये खर्च किये थे लोकसभा चुनाव में प्रचार के दौरान जो पैसा इन पूंजीपतियों ने लगाया था जिनमे आईडिया ग्रुप ने भी बी.जी.पी की फंडिंग की थी तो पूंजीपतियों को मालामाल करेगी सरकार !

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  4. बहुत सटीक और विचारोत्तेजक आलेख...

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