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शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

ख़्वाब

 कभी-कभी ख़्वाब भी 
  बिखरे पत्तों की 
 तरह होते हैं 
 कहीं भी-कभी भी 
 बहक जाते हैं 
 हवाओं से, 
 वजूद  तो है 
 पर 
  बेमतलब  
 खोटे सिक्के की तरह 
  जो होता तो है 
  पर 
 चलता नहीं 
 पत्तों का क्या है 
  इकठ्ठे  
 हो सकते हैं  
 लेकिन ख़्वाब? 
  हों भी कैसे 
 इतने टुकड़ों में  
 टूटतें हैं  
 कि 
 आवाज तक नहीं आती. 
 टूटे ख़्वाब  
 दुखते तो हैं  
 पर  
 जोड़ने की   
 हिम्मत नहीं होती 
 जाने क्यों 
 खुद की  
 बनाई हुई  
  कमज़ोरी 
 हावी हो जाती है  
 खुद पर, 
 ख़्वाब सहेजे   
 नही जाते  
 जिंदगी कैसे  
 सम्भले 
 हम इंसानों से?? 

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (16-11-2014) को "रुकिए प्लीज ! खबर आपकी ..." {चर्चा - 1799) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. कितना भी कुछ हो जाए लेकिन इंसान ख़्वाब देखना कहाँ छोड़ पाता है ...
    ..बहुत अच्छी रचना

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    1. छोड़ना भी नहीं चाहिए,हर बड़े उप्लब्धि की शुरुआत ख्वाब से ही होती है।

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  3. khwaabo k bina b jeena kya.... par khwaab to khwaaab h......sunder bhaawpurn rachna

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    1. शुक्रिया मैम।....ख्वाब ही तो इंसान की पूँजी होते हैं

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  4. हिम्मत से नए ख्वाब फिर से जुड़ने लगते हैं ...
    अच्छी रचना है ...

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    उत्तर
    1. सहमत हूँ सर! ब्लॉग पर आने के लिए बहुत-बहुत आभार|

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