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शनिवार, 3 मई 2014

चुनाव (एक उम्मीद )

आज-कल चुनावों का दौर है, भले ही यह महोत्सव अपने समापन की ओर बढ़ रहा हो लेकिन दर्शकों का उत्साह अपने चरम पर है. चुनाव के नतीजे का इंतज़ार सबको है. न्यूज़ चैनलों पर  नेताओं की वर्षों पुरानी घिसी-पिटी तस्वीरें रिपीट की जा रही हैं. कहीं राजनाथ सिंह तो कहीं सोनिया गांधी, बाकियों का तो नाम लेना भी गुनाह है. अरविन्द केजरीवाल भी कभी -कभी दिख जाते हैं. भला हो दिग्गविजय  सिंह जी का जिन्होंने मीडिया का ध्यान चुनाव से थोड़ा भटकाया. सिंह साहब कितने भले आदमी हैं ये तो देश की जनता जानती ही है. समय-समय पर बम फोड़ते रहते हैं. कांग्रेस जिस तरह से मीडिया से बाहर हुई थी दिग्गविजय जी ने फिर से ध्यान आकर्षित कराया और करें भी क्यों न पार्टी के स्वघोषित संकटमोचन जो हैं.
नेताओं की एक ख़ास बात है कि इनकी जनता से मिलने की इच्छा बलवती बस चुनावों में होती है, बाकी दिनों में विदेशी दौरों  से फुर्सत ही कब मिलती है जो ये जनता को याद करें. गलती नेताओं की नहीं है सत्ता पाकर देवराज इन्द्र भगवान को भूल जाते थे नेता तो स्वभाव से ही एहसान फरामोश होता है. चुनाव आते ही सारे नेता अपने-अपने कब्रों से भाग कर बहार आते हैं जनता की सेवा करने. भोली -भली जनता नेताओं को इतने दिनों बाद  देखकर पहचान नहीं पाती की ये वही नेता है जो पिछले चुनाव में ठग  के गया था और इस बार फिर आ गया है.
चुनाव में नेताओं के पर लग जाते हैं, धरती और आसमान एक लगता है इन्हे, फिर इनके लिए क्या कश्मीर क्या कन्याकुमारी? पालक झपकते ही मीलों की दूरियाँ पल भर में तय हो जाती हैं. इन्हे तो भाग-दौड़ से आराम मिलता है पर जनता तबाह हो जाती है इनके भाग-दौड़ से. कभी यहाँ सभा कभी वहां सभा. इन सभाओं के चक्कर में जनता घनचक्कर बन जाती है. मासूम जनता जो हर बार छलि जाती है, जिसका विश्वास हर बार टूटता है उसकी भी चुनाव से उम्मीद होती है कि इस बार परिवर्तन होगा. कोई नया चेहरा  देखने को मिलेगा पर अफ़सोस कि परिवर्तन की जगह पुनरावृत्ति होती है. पूरा  विश्व जानता है की भारतियों की प्रवित्ति ही ''पुनरावृत्ति''  है.
   सबसे बड़ी विडम्बना है की हम हमेशा उद्धारक खोजते हैं बनते नहीं. उद्धारक कभी कांग्रेस होती हैं तो कभी भारतीय जानता पार्टी. तीसरा मोर्चा इस लायक नहीं हैं कि उसे सत्ता दिया जाए. हर चुनाव का एक चेहरा होता हैं, और ये चेहरे बदलते रहते हैं. स्थिर होता हैं यदि कुछ तो वह है पार्टियों की  नीयत. कभी दुर्घटना से मनमोहन सिंह जी प्रधान मंत्री बन जाते हैं तो  दुर्भाग्य से लाल कृष्ण आडवाणी जी ''पी.एम इन वेटिंग'' ही रह जाते हैं. खैर लोकतंत्र में ऐसी घटनाएं होती रहती हैं.
 इस बार के चुनाव में कुछ नए चेहरे हैं. कांग्रेस तो खुद में एक नकाबपोश है जो चेहरा कभी दिखाती ही नहीं. सब कुछ इस पार्टी में दुर्घटना से होता है. भाजपा ने इस बार कुछ नया किया  है. नरेंद्र मोदी इस बार हर जगह दिख रहे हैं. गुजरात नरेश यूँ तो खुद को चाय बेचने वाला कहते हैं, ये भी उनकी अदा है जो इन दिनों खूब पसंद किया जा रही  है. जिस तरह से उनकी मार्केटिंग की गयी है लगता है की ''अबकी बार-मोदी सरकार''. मतलब साफ़ है कि इस बार सरकार भाजपा कि नहीं ''मोदी'' की बनेगी. विकास पुरुष से लेकर युगपुरुष तक सब कुछ जानता इन्हे  मान रही है. मोदी के नाम पर तो लाठियां तन जा रही है. मानो मोदी जी भगवान हों, और अधर्म का नाश करने के लिए संकल्पित हो गए हों. हांकने में तो इनसे बढ़कर कोई नहीं, ''वीर-गाथा'' काल के कवियों को भी इन्हे सुन के लज्जा आ जाए 'हाय! हम तो इनके सामने एक पल भी नहीं ठहर  सकते.
       कांग्रेस की बात की जाए तो इन्होने इतने घोटाले किये हैं कि जनता इन्हे कम से कम दस साल तो सत्ता में आने नहीं देगी. इनके अक्षमता से जनता कितनी व्यथित है यह कहने कि जरुरत नहीं है. ऊपर से मंहगाई, सरकार गिराने के लिए ये अकेले बहुत काफी है.
 जनता व्यथित हो जाए कहाँ? आम आदमी पार्टी बनी  थी, लोकतंत्र के लिए एक आशा की किरण बनकर आई, एक साल के भीतर बनी  पार्टी ने दिल्ली  में सरकार बना लिया, पर राजनीतिक अनुभवहीनता और पार्टी के सदस्यों का आपसी अंतरकलह  इस पार्टी को भी ले डूबा. अरविन्द केजरीवाल  व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छे  और ईमानदार छवि के  व्यक्ति हैं किन्तु इनके सहयोगियों के अल्पबुद्धिता के कारण राष्ट्रीय स्तर पर इनका आना असंभव है. देश कैसे सुधारेंगे जब असली कचरा इनके पार्टी में है, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र और न जाने कितने नाम जिनके बोलने से इस पार्टी कि खूब थू-थू हुई पहले उन्हें सुधारें  फिर देश सुधारने  के लिए अग्रषर हों .
              जनता बेवक़ूफ़ नहीं है फिर भी बार-बार बेवक़ूफ़ बनती है, कभी मज़हब के नाम पर तो कभी जाति के नाम पर यहाँ सरकार बनती है. समझ में ये नहीं आता कि भारतियों को गलत और सही क्यों नहीं दिखता? वोट डालते हैं या कोटा पूरा करते हैं? भविष्य से बहुत उम्मीदें हैं, देखते हैं कि हम गलतियां दोहराना बंद करते हैं या गलतियां अब हमारी मनोवृत्ति बन गयी हैं?

9 टिप्‍पणियां:

  1. Well written.Alas Kejriwal could survive.Rather than going for Loksabha elections,he should have consolidated his position in Delhi but over-ambition overtook him and caused his doom.

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (05-05-2014) को "मुजरिम हैं पेट के" (चर्चा मंच-1603) पर भी होगी!
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. हम नहीं सीखने वाले ... आदाज़ देश के आजाद नागरिक हैं ...
    जो मर्जी होगी करेंगे ... ऐसा ही हाल है अपने देश का तो ...

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  4. बहुत सुन्दर आलेख ... वैसे एक बात समझ लीजिये अरविन्द केजरीवाल भारतीय राजनीति का सबसे ज्यादा महत्वाकांक्षी व्यक्ति है , जो बहुत ही चतुर , चालाक एवं नौटंकीबाज है, एवं इमानदारी की दूकान खोलकर बैठा है.. लेकिन जरूररत पड़े तो ऐसा व्यक्ति किसी हद तक जा सकता है .. जब देश ही नहीं बचेगा तो ऐसी इम्मंदारी किस काम की , इसलिए देश बचा रहे , यह जरूरी है.. और देश तभी बचा रहेगा जब धर्म बचा रहेगा ...

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  5. चुनावी माहौल का बढ़िया चित्रण..... जनता का जागरूक होना ज़रूरी है

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  6. इस पोस्ट को पढ़ने में देर हो गयी क्यूंकि अब तो नरेंद्र मोदी पीएम बन ही गए

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