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मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

अज्ञात

प्रिय तुम मधु हो जीवन की,
तुम बिन कैसी मधुशाला?
जिसमे तुम न द्रवित हुए ,
किस काम की है ऐसी हाला?

तुम शब्द हो मेरे भावों के
तुम पर ही मैंने गीत लिखे,
तुमको सोचा तो जग सोचा,
और समर भूमि में प्रीत लिखे,

अवसाद तुम्ही, प्रमाद तुम्ही,
आशा और विश्वास तुम्ही ,
भावों के आपाधापी की
प्रशंसा और परिहास तुम्ही.

तुम्हे व्यक्त करूँ तो करूँ कैसे?
शब्द बड़े ही सीमित हैं,
किन भावों का उल्लेख करूँ?
जब भाव तुम्ही से निर्मित हैं.

तुम प्राण वायु तुम ही जीवन,
तुमको ही समर्पित तन-मन-धन,
जब -जब  भी तुम शून्य हुए
जीवन कितना निर्जन-निर्जन?





तुम व्यक्त, अव्यक्त या निर्गुण हो,
इसका मुझको अनुमान नहीं,
मेरे बिन खोजे ही  मिल जाना,
तुम बिन मेरी पहचान नहीं.

8 टिप्‍पणियां:

  1. तुम प्राण वायु तुम ही जीवन,
    तुमको ही समर्पित तन-मन-धन,
    जब -जब भी तुम शून्य हुए
    जीवन कितना निर्जन-निर्जन?-------

    बहुत सुंदर रचना
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    सादर

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी पधारे
    http://jyoti-khare.blogspot.in

    जवाब देंहटाएं
  2. कल 05/12/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  3. तुम्हे व्यक्त करूँ तो करूँ कैसे?
    शब्द बड़े ही सीमित हैं,
    किन भावों का उल्लेख करूँ?
    जब भाव तुम्ही से निर्मित हैं.......बहुत सुंदर.......

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह्ह्ह बहुत सुन्दर ..लयात्मक .. प्रेमानुभूति के अहसासों से लबरेज ..बधाई

    जवाब देंहटाएं
  5. उत्साहवर्धन हेतु आभार........आपकी टिप्पणियाँ मेरे लिए अनमोल हैं.

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