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शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

ख़ामोशी

रात के अँधेरे मेँ,
ख़ामोशी
कुछ इस कदर
पाँव
पसारती है
कि,
समझना
मुश्किल हो जाता है
कि
ख़ामोश हम हैँ
या रातेँ ?

अनजान राहोँ पर,
ड़गमगाते
कदमो के सहारे
मँजिल तलाशना
मक्कारी
लगता है
फिर भी
हर रोज निकलता हूँ
तलाश मेँ,
कभी गिरता हूँ
कभी
गिरा दिया जाता हूँ ,
मीलोँ भटकता हूँ
पर
अफसोस
मँजिल फिर भी दूर लगती है.

रोशनी मिलती नहीँ,
अधेरे मेँ
कुछ सूझता नहीँ
पर
ज़िद है फिजा मेँ
घुली हुई विरानियोँ
के सहारे,
मँजिल पाने की
जानता हूँ
खामोशियाँ कुछ नहीँ कहतीँ
पर
इक उम्मीद है
कि
इनके बिना कहे,
सुन लुँगा
मँजिल की पुकार.
                                      (चित्र गूगल से साभार )

बुधवार, 25 दिसंबर 2013

थकान

मिला था तुमसे
कुछ
उलझनो की पोटली
लेकर,
सुनाया था तुम्हे
कुछ पुराने
बेमतलब जज्बातों को,
सोचा था
 सुलझा दोगे
अपने उलझनो की तरह,
पर तुम तो मुझे
सुन भी नहीं पाये.
क्या सुनोगे?
हर कोई अपनी शिकायतें
थक -हार कर
लाता है तुम्हारे पास,
इस थकान में
भूल जाते हो
तुम अपनी थकान.
रो भी नहीं सकते,
हस भी नहीं सकते.
तुम्हारी जिंदगी भी
गुजरती होगी
तकलीफें
सह-सह कर.

जाने क्यों मेरे जेहन में
कौंधते है कुछ सवाल
बिजली बनकर.

हर पल
हर वक्त
हर लम्हे,
तलाशता हूँ जवाब
पर
मिलती है सिर्फ बेचैनी.
समझ में नहीं आता
मेरी उलझने
सुलझती क्यों नहीं?
क्यों हारता हुँ
अक्सर अपनी परेशानियों से?
डर लगता है अब
अपने आप से,
किस ओर जा रहे है मेरे कदम?
बिना मेरी मर्ज़ी के....


शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

जलील (नारी उत्पीड़न पर कटाक्ष )

बात एक दशक पहले की है, तब हमारे गाँव में पक्की सड़क नहीं थी ईंट के खडंजे हुआ करते थे. बारिशों में चलना मुश्किल होता था. गाडी तो दूर लोग साइकिल भी गाँव में घुसाने से डरते थे. चलने के लिए कोई ख़ास मुश्किल नहीं थी बस कपडे गीली मिट्टी से लथपथ हो जाते थे. इन सबसे बचने का एक ही उपाय था कि किसी तरह नहर के बाँध पर चढ़े  फिर कीचड़ से सुरक्षा हो जाती थी.हाँ अलग बात है कि कीचड़ की  जगह सुअरा (एक तरह का खर जो कपड़ों में बुरी तरह चिपक जाता है) पैरों में लगते थे जिन्हे छुड़ाने में जान निकल आती थी. स्कूल से आने के बाद यही एक काम मैं लगन से करता था.
                                    सड़क के दोनों किनारे शीशम के बड़े -बड़े पेड़ हुआ करते थे जिन पर गिध्दों का एकाधिकार हुआ करता था. कुल मिलकर १० से१२ पेड़ थे पर पेड़ पर पत्ते कम और गिद्ध अधिक. गाँव में जब कोई जानवर मरता था तो उसे घसीट कर नहर के पास छोड़ दिया जाता था. अब गिद्ध तो गिद्ध  ठहरे  यूँ ही उन्हें प्राकृतिक अपमार्जक नहीं कहा जाता. मांस देखते ही पहुँच जाते थे हजम करने. माल देखते ही लूट शुरू, पर गिद्धों का सरदार बड़ा न्यायप्रिय था सबको बराबर माल बांटता था, अलग बात है इन गिद्धों कि बारात में कौवे मज़ा  लूट लेते थे.
  अब गिद्ध  तो रहे नहीं इंसान ही गिद्ध हो गएँ हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि गिद्ध सिर्फ मारा मांस खाते थे, इंसान दोनों तरह के मांस खाता  है बस कुछ न कुछ होना चाहिए.इंसानों कि क्षुधा सिर्फ इतने से नहीं भरती अपने संतृप्ति के नए आयाम इंसान हर दिन गढ़ता है.इन गिद्धों के बीच कुछ कौवे भी हैं  जिन्हे आप मीडिया कह सकते हैं. कभी लोकतंत्र का एक मज़बूत स्तम्भ कही जाने वाली संस्था अब विदूषकों जैसा आचरण कर रही है. घटिया और सस्ती खबरे परोसना वो भी नमक मिर्च के साथ इसका स्वभाव बन गया है.आज ये कौवा उद्द्योगपतियों और नेताओं का गुणगान करने में जरा भी नहीं चूकता जहाँ रोटी दिखी पहुँच जाता है, और जहाँ रोटी नही मिली वहाँ अपनी कांव-कावं  वाली अपनी आवाज शुरू कर देता है.
      अभी कुछ महीने पहले भारत के विश्वविख्यात संत, क्षमा चाहता हूँ  कुख्यात संत आसाराम के कुकृत्य के लिए जबसे उन्हें कृष्ण जन्म भूमि में भेजा गया तबसे उनके नियमित नए -नए कारनामे सामने आ रहे हैं खैर आने भी चाहिए भारत में अवसर सबको सामान रूप से मिलता है किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं है हमारे यहाँ. हम बचपन से सुनते आये हैं  कि कोई कितना भी हत्यारा, लुटेरा या बलात्कारी क्यों न हो उसके मन में यही इच्छा पुष्ट  होती है कि उसका बच्चा आज्ञाकारी, सत्कर्मी तथा धर्मनिष्ठ बने, किन्तु हमारे असंत शिरोमणि आसाराम के कुपुत्र नारायण साईं बिलकुल अपने पिता पर गए हैं. बेटे पर पिता के वरद हस्त का परिणाम दिख रहा है. पिता १० नंबरी तो बेटा  १०० नम्बरी. अनुवांशिक गुणों  का इतना स्पष्ट स्थानांतरण अब तक विज्ञान ने कहीं नहीं देखा था, विज्ञान अचंभित है इन दिनों.
                                      अपने आपको भगवान् कृष्ण का अनुयायी कहने वाला आसाराम भगवान् से भी अधिक योग्यता रखता है. भगवान् ने तो आठ वर्ष  की  अवस्था में ''रास'' रचा था पर आसाराम ने जीवन के सातवें दशक में ''रास'' रच कर इतिहास रच दिया, देख लो भैया पुरुषत्व का प्रभाव.क्या दर्शन है बाप बेटों का. खैर क्या कहा जाए भारतीय जनता को जो अब भी ''पतितपावन आसाराम '' के भजन गा रही है. असंत आसाराम के पुत्र ''नारायण स्वामी'' ने नारायण तक को नहीं छोड़ा, घसीट  उठे भगवान् भी इसके चक्कर में.मंच पर स्वयं को कृष्ण ही समझता था ये असंत पुत्र. 'यूट्यूब' पर कई विडियो मिल जायेंगे पिता-पुत्र की मूनवॉक करते हुए. इनके नृत्य के आगे तो प्रभुदेवा  भी बगलें झाकने लगे. क्या मस्त राच रचते थे बाप-बेटे मंच पर.
       नारायण भी सोचते होंगे ऊपर से की क्या करूँ इनका, मेरा नाम धरातल पर बड़ा पवित्र समझा  जाता था. लोग अपने बच्चों के नाम मेरे नाम पर रखते थे पर अब लोग अपने बच्चों के नाम रावण, विभीषण, कुम्भकरण रख देंगे पर नारायण नहीं रखेंगे, खैर भगवान् की भी चिंता जायज है.
        इन बाप बेटों के कारनामे एक-एक करके खुलते गए, नारायण साईं पर दो बहनों के यौन शोषण का आरोप लगा, (५ वर्ष पूर्व का कृत्य) नारायण साईं ने खुद भी कबूला कि एक दासी का बेटा उसका खुद का बेटा है. और भी कई मामले सामने आये और धर्म से खिलवाड करने वाले जेल भी पहुचे. इन दिनों बड़ी नयी - नयी ख़बरें आ रही हैं पर ये समझ में नहीं आता इनका अत्याचार पिछले कई वर्षों से चल रहा था पर मीडिया खामोश क्यों थी?  क्या पांच साल पहले मीडिया, महिला आयोग, पुलिस, मानवाधिकार संगठन जैसी संस्थाएं नहीं थी क्या? या आसाराम के साम्राज्य में सर उठाने कि हिम्मत किसी में नहीं थी?
 पीड़िताओं के साथ जो पिछले कुछ वर्षों से हो रहा था वो क्या था? कोई साधना या आसाराम का सम्मोहन जो उसके जेल जाने के बाद टूटा? वजह का तो कुछ पता नहीं पर एक बात तो समझ में आ ही गयी कि पीड़िता ने थोड़ी सी हिम्मत दिखाई होती और मीडिया ने अपनी रूचि दिखायी होती तो नारायण साईं कब का अंदर हो चुका होता, समाज उसकी पूजा न करता. करतूतें तो इनकी बहुत दिनों से प्रकाश में आ रहीं थी पर शायद  मीडिया का पेट भरा जा रहा था, भाई पैसे किसको काटते हैं? पैसा बंद तो पूजा बंद. मीडिया को जब तक पैसे मिले तब तक खबरें सुर्ख़ियों में नहीं आयीं, पैसा न मिलते ही स्टिंग ऑपरेशन चालु हो गए.फिर क्या आसाराम ये आसाराम वो, टी.आर.पी के लिए हर दिन नए मसाले का जुगाड़.
  खैर आसाराम और नारायण साईं के गिरफ्तारी के बाद महिला संगठनों कि सक्रियता बढ़ी है, हालांकि यौन अपराधों की संख्या भी बढ़ी है.मीडिया का ये काम  अच्छा लगा कि अब थोड़ी सक्रियता आ गयी है या यों कहिए फुर्त हो गयी है. परिणामस्वरुप न्यायाधीश, वकील, लेखक, संपादक, पत्रकार और डॉक्टर सब नप गए हैं, जिनके भी खिलाफ  यौन उत्पीड़न  का मामला उठा सीधे जेल गए, और मीडिया भी पीछे पड़ गयी बिना किसी भेद भाव के. इतनी सक्रियता देखकर फख्र हो रहा है कि चलो इस अंधेर नगरी में किसी को न्याय तो मिला, वर्ना अन्याय देखने की तो हमे आदत पड़ गयी है.
           मीडिया के सक्रियता के चलते ही दिल्ली के सामाजिक कार्यकर्ता खुर्शीद अनवर ने आत्महत्या कर लिया, शायद बेइज्जती बर्दाश्त नहीं हुई. क्या था क्या नहीं ये तो राज ही रह गया पर अब कोई किसी लड़की की मदद करने से थोडा डरेगा कि क्या पता कब क्या आरोप लग जाए. विपद को कौन जनता है. एक आम आदमी होकर खुर्शीद अनवर में इतनी शर्म थी तो आसाराम और उसके बेटे में शर्म नदारद क्यों है? पतितों कि तरह अब भी जिन्दा हैं. क्या ये बाप-बेटे पैदाइशी  जलील हैं?
                               एक बात तो माननी पड़ेगी कि नारी सदियों से उपेक्षित और शोषित रही है; इसके लिए काफी हद तक नारी खुद जिम्मेदार है.मुंह में ताले और हाथों में बेडियाँ जकड़ी रहेंगी तो यही स्थिति वर्षों तक यथावत रहेगी. इंसानों को भी सोचना चाहिए कि वो इंसान हैं गिद्ध  नहीं, यदि खसोटना सीखेंगे तो विलुप्त हो जायेंगे, बेहतर होगा कुछ मानवीय गुण भी बचा के रखें. समाज को समझना चाहिए कि अधिकारों का उपयोग यदि उचित रूप से हो तो आसाराम जैसे लोग जेल में पहुँच जाते हैं और थोडा सा भी गलत तरीके से हो तो खुर्शीद अनवर जैसे लोगों से समाज भरा पड़ा है...

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

अज्ञात

प्रिय तुम मधु हो जीवन की,
तुम बिन कैसी मधुशाला?
जिसमे तुम न द्रवित हुए ,
किस काम की है ऐसी हाला?

तुम शब्द हो मेरे भावों के
तुम पर ही मैंने गीत लिखे,
तुमको सोचा तो जग सोचा,
और समर भूमि में प्रीत लिखे,

अवसाद तुम्ही, प्रमाद तुम्ही,
आशा और विश्वास तुम्ही ,
भावों के आपाधापी की
प्रशंसा और परिहास तुम्ही.

तुम्हे व्यक्त करूँ तो करूँ कैसे?
शब्द बड़े ही सीमित हैं,
किन भावों का उल्लेख करूँ?
जब भाव तुम्ही से निर्मित हैं.

तुम प्राण वायु तुम ही जीवन,
तुमको ही समर्पित तन-मन-धन,
जब -जब  भी तुम शून्य हुए
जीवन कितना निर्जन-निर्जन?





तुम व्यक्त, अव्यक्त या निर्गुण हो,
इसका मुझको अनुमान नहीं,
मेरे बिन खोजे ही  मिल जाना,
तुम बिन मेरी पहचान नहीं.