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शनिवार, 23 अक्टूबर 2021

सरदार उधम: फ़िल्म नहीं, दस्तावेज़ है!

 इतिहास की भयावहता की वास्तविक गवाही जनश्रुतियां नहीं देतीं, इशारा ज़रूर कर देती हैं कि ऐसा हुआ होगा लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार अपनी जनश्रुतियों से कहीं ज़्यादा भयावह रहा होगा. किताबों से लेकर इतिहास के वैध दस्तावेज़ों तक, जनरल डायर के आदेश पर हुए इस हत्याकांड की भयावहता एक सी नज़र आती है.

शूजीत सरकार की फ़िल्म 'सरदार उधम' इस तरह से बन गई है कि उसी दौर में खींच ले जाती है. उन सारी बातों का ख़्याल रखा गया है, जिनके बारे में लोग पढ़ते-सुनते आए हैं. यह फ़िल्म कहीं भी अतिशयोक्ति नहीं लगी, घटनाएं थीं, उनके यथार्थ की चित्रण की कोशिश की गई है, जिसे माना जा सकता है कि ऐसा हुआ होगा.

नरसंहार वाली रात में उधम सिंह को भागते दौड़ते दिखाया गया है. कुछ सीन्स रुलाते हैं, कुछ इतने वीभत्स हैं जिन्हें देखकर कोई भी आंखें मूंद सकता है. सीन में बूढ़े हैं, बच्चे हैं, महिलाएं हैं, छोटी बच्चियां हैं, जिन पर दागी गई हैं अनगिनत गोलियां, एक वहशी अफ़सर के फ़रमान पर. अंतहीन लाशें, दर्द से कराहते लोग, पीड़ा, चित्कार, क्रन्दन. लाशों में ज़िन्दा लोग ढूंढता नायक. कोशिश यही कि जिनकी सांसें चल रही हैं, उन्हें तो इलाज मिल जाए. लोगों को बचाते हुए, ठेले पर लादते हुए उधम. इन दृश्यों में त्रासदी है, जिसे देखकर लोग सिहर उठेंगे.

कहते हैं यहीं उधम सिंह ने क़सम ली थी कि इस नरसंहार का बदला वे ज़रूर लेंगे. कैक्सटन हॉल वाले सीन में जब  माइकल ओ ड्वायर को उधम सिंह बने विकी कौशल गोली मारते हैं तो एक सुकून (अहिंसक होने के बाद भी) सा दिल में उतरता है. कैक्सटन हॉल के सीन में विकी कौशल इतने सहज लगे हैं कि वाक़ई लगता है कि ऐसा ही हुआ होगा.



पेंटनविले जेल में ऊधम को दी गई यातना से लेकर फांसी तक के सीन्स, वास्तविक लगे हैं. पटकथा और निर्देशन भी कमाल का है. एक अरसे बाद ऐसी फ़िल्म आई है, जिसमें सभी कलाकारों ने कमाल का अभिनय किया है.

ब्रिटिश अत्याचारों की जीती-जागती डॉक्यूमेंट्री बन गई है यह फ़िल्म. एक सीन में विकी कौशल जेल में एक अधिकारी से कहते हैं-

21 साल इंतजार किया मैंने. मर्डर को प्रोटेस्ट मानेगा या प्रोटेस्ट को मर्डर मानेगा आपका ब्रिटिश लॉ?

फिल्म के अंतिम दृश्यों में उधम सिंह (विक्की कौशल) का एक मोनोलॉग है. उधम सिंह, डिटेक्टिव इंस्पेक्टर जॉन स्वैन से कहते हैं, 'उस रात मैंने मौत देखी. एक बस वही अपनी थी, फिर सब अपने हो गए.  जब मैं 18 साल का हुआ तो मेरे ग्रंथी जी ने मुझसे कहा कि पुत्तर जवानी रब का दिया हुआ तोहफ़ा है. अब ये तेरे ऊपर है कि तू इसे ज़ाया करता है या इसको कोई मतलब देता है. पूछूंगा उनसे कि मेरी जवानी का कोई मतलब बना या ज़ाया कर दी.'

ये फ़िल्म का रिव्यू नहीं है. फ़िल्म बेहद ख़ूबसूरत बनी है. देख सकते हैं. सोशल मीडिया पर लोग कह रहे हैं कि इस फ़िल्म को नॉमिनेट करना चाहिए भारत को ऑस्कर के लिए. सही में कर देना चाहिए. कई वाहियात फ़िल्में ऑस्कर के लिए भेजी गई हैं. यह अच्छी बनी है. मिले भले ही न लेकिन दुनिया एक बार फिर देखे कि सभ्यता का पाठ पढ़ाने वाले 'ब्रितानी' कितने क्रूर और वहशी थे, जिन्हें अपने कुकृत्यों पर भी कोई पश्चाताप नहीं था.


गुरुवार, 17 जून 2021

अतृप्ति


पहाड़ों को ज़मीन अच्छी लग रही थी। ज़मीनों को समंदर। समंदर पठार बनना चाहता था; पठार अपने भीतर के घाव से जूझ रहा था। 

पठार की कुंठा थी कि हाय! न हम समंदर बने, न समतल रहे, न पहाड़ों में गिनती हुई। 

जिसका जो यथार्थ था, वही उसे काटने दौड़ रहा था। ईश्वर उलाहने, ताने सुनकर क्षुब्ध था, सबकी अतृप्त अभिलाषाओं का ठीकरा उस पर फूट रहा था। सबकी व्याधियों का नियंता वह तो नहीं, फिर दोषी क्यों?

दुःखी ईश्वर के मुंह से अनायास फुट पड़ा, संतुष्टि के आतिथ्य का अधिकारी वही, जो जड़बुद्धि हो

तब से ही, अवधूत सुखी हैं, बुद्धिमान पीड़ित। मूर्ख परमानंद में हैं, ज्ञानी कुंठित। इच्छा, अभीप्सा और प्रत्याशा के आराधक अवसाद में हैं, जड़भरत के अनुयायी मगन।

जो प्रश्न, बुद्ध से अनुत्तरित रहे, उन्हें अवधूतों ने सुलझा लिया। जहां बुद्धि है, वहां असंतोष है। जहां आनंद है, वहां बुद्धि का क्या प्रयोजन?

इतनी सी बात न ज़मीन को समझ आई, न समंदर को। न पहाड़ ने यथार्थ समझा, न पठार ने। अंततः हुआ यह कि पहाड़ दरकने लगे, पठार सिकुड़ने लगे, ज़मीन खिसकने लगी और समंदर विश्व के अपशिष्टों को सोख रहा है, धरती बनने के लिए।


इनमें से किसी की इच्छा, अभी तो पूरी नहीं हो रही, कुंठा है कि आकाश धर रही है। 

ईश्वर, विपद और विपत्तियों पर प्रसन्न हैं। आंख मूंदकर सोए हैं। कह रहे हैं- भोगो, अपनी-अपनी आकांक्षाओं का प्रारब्ध।

-अभिषेक शुक्ल.

गुरुवार, 1 अप्रैल 2021

जो लौट गये....क्या आयेंगे?

  जो लौट गए क्या आयेंगे?

थी राह अपरिचित कूच किये

किस हेतु चले कुछ ज्ञान नहीं, 

रुक सकते थे पर नहीं रुके

अनहोनी का भी भान नहीं,

थोड़े रूठे, फिर रूठ गये

हम उन्हें मना क्या पायेंगे?

जो लौट गये...क्या आयेंगे?


दोनों बुआ के साथ शायद आखिरी तस्वीर यही है.



राहें तय थीं, तिथियां तय थीं

हम विधिना से अनजान रहे

वे हुए मौन, फिर कहे कौन

किससे, किसकी पहचान रहे?


जो गया उसे लौटाने का

कहीं युक्ति जुगत ले जायेंगे?

जो लौट गये...क्या आयेंगे?


जो सृजक वही संहारक क्यों?

जो सुख दे, दुख का कारक क्यों?

वैतरणी की नौका धोखिल

फिर वह प्राणों की तारक क्यों?


गति जीवन की सुलझाएंगे

डूबे तो क्या पछतायेंगे?

जो लौट गये, क्या आयेंगे?


नियती सबकी हन्ता है क्या

जो लोग गये, किस ठौर गये?

किसने सांसों को गिन डाला

किसको लेकर किस ओर गये?


विधि ही कर्ता विधि ही दोषी

विधि को क्या समझाएंगे?

जो लौट गये, क्या आयेंगे?


जो छीना क्या वो तेरा था

उस पर क्या कम हक़ मेरा था,

यम ने कैसे दस्तक दे दी

घर मेरा रैन बसेरा था?


हम तेरा क्या कर पायेंगे

क्या बिन उसके रह पायेंगे

जो लौट गये, क्या आयेंगे...?


किसने जीवन की इति मापी

किसने जीवों में प्राण भरा,

किसकी सुधि में लेखा-जोखा

किसकी बुधि में निर्माण भरा? 


क्यों लगता है ऐसा जग को

कुछ प्रश्न सुलझ ना पायेंगे, 

जो लौट गये, क्या आयेंगे........?

मेरी बुआ.....ऐसे गई कि फिर आई ही नहीं.......!!!
13 मार्च 2021. बहुत मनहूस दिन था.

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

बोलना, ज़रूरी है क्या?

जब हम हद से ज़्यादा बोलते हैं, तब हमें अंदाज़ा भी नहीं होता कि हम कितना ग़लत बोल गए हैं. बोलना ग़लत नहीं है, लेकिन इतना ज़्यादा बोलना, हर बात पर बोलना, बिना सोचे-समझे बोलना, सही भी नहीं है. सोचने में वक़्त लगता है, बोलने में मुंह खोलने की देर होती है, शब्द ख़ुद-ब-ख़ुद आने लगते हैं.


ज़्यादा बोलना, कभी-कभी कुछ लोगों को देखकर लगता है कि गंभीर क़िस्म की बीमारी है, जिसका इलाज अभी बना नहीं है. अगर होता तो वे लोग ख़ुद जाकर दवाई लेते. क्योंकि पता तो उन्हें भी होता होगा कि वे ज़्यादा बोलते हैं, जो सेहत के लिए ठीक नहीं है. सिर्फ़ इसलिए कि वे सेंटर ऑफ अट्रैक्शन बने रहें, बोलना है.


बोलना न किसी नशे की तरह होता है, जिस इंसान में बोलने की आदत लगे, उसे दुनिया के किसी रिहैबिलेशन सेंटर में डाल दीजिए, निकलकर फिर उसे उतना ही बोलना है, जितना वो पहले बोलता था. सच न, कभी ज़्यादा हो नहीं सकता. थोड़ा सा होता है, लिमिटेड. झूठ की ख़ासियत है कि वो इतना ज़्यादा होता है, कि उसे एक्सप्लेन करने के लिए, ये ज़िन्दगी छोटी पड़ जाए.


झूठ एक आर्ट है. झूठों से बड़ा आर्टिस्ट कोई होता ही नहीं है. पलभर में ऐसा सीन क्रिएट करते हैं कि हां, ऐसा ही हुआ होगा, यही हुआ होगा. सच सिंपल होता है. बिलकुल भी अट्रैक्टिव नहीं. कई बार इतना सादा कि सच से ऊब हो जाए. कुछ बेहद अच्छी बॉलीवुड की आर्ट फ़िल्मों की तरह.

 

तस्वीर- IIMC के दौरान की है. 4 साल पहले.

हदें, कुछ सोचकर बनाई गई होंगी. शायद अतिरेक रोकने के लिए. लेकिन बोलने की आदत लग जाए, तो बोलते रहेंगे, नए सीन क्रिएट करते रहेंगे. अपनी ही बातों में फंसते रहेंगे, पर बोलेंगे. क्योंकि बोलना ही है. आदत है. अच्छी हो या बुरी, पर है तो है. 


जो चीज़े बोलने पर लागू होती हैं, लिखना भी कुछ वैसा ही है. बहुत लिख रहे होते हैं तो पता भी नहीं लगता कितना ग़लत लिख गए हैं.

आदतें हैं, एक सी ही होती हैं....

मंगलवार, 5 जनवरी 2021

बुद्ध और बुद्धू....

 शेली, किट्स और ब्राउनिंग कभी पसंद नहीं आए। पसंद आई तो विलियम वर्ड्सवर्थ की फंतासी। नौवीं में पहली बार पढ़ी और अब तक पढ़ रहा हूं लूसी ग्रे।  मैथ्यू अर्नाल्ड भी पसंद आए।  टेनिसन को पढ़ा तो नींद आई। 

और भी होंगे, जिन्हें पढ़ा लेकिन जाना नहीं। कुछ याद रखने लायक लगा ही नहीं। क्या है न जब आपको कविता पढ़ने के लिए डिक्शनरी खोलनी पड़े तो क्या ही मज़ा?

हम भाषा सीख सकते हैं, शब्दार्थ समझ सकते हैं लेकिन मर्म नहीं जान सकते। जानते तो शायद गीतांजलि हमें भी समझ आ गई होती। 

ये लोग काव्य जगत के सर्वकालिक कवि हैं, साहित्य के विद्यार्थियों को इन पर श्रद्धा होगी लेकिन जिसने मन को छुआ, वह कोई और था। कुछ ने कहा कबीर हैं, कुछ ने कहा शब्द जानो, कवि क्षणभंगुर है।

और कवि ने ख़ुद आकर कहा-

भँवरवा के तोहरा संग जाई...

मैंने कहा, 'इसका क्या प्रयोजन?'

कवि ने कहा कि दुनिया ही निष्प्रयोज्य है, तुम्हें प्रयोजन की प्रत्याशा क्यों?

मैंने कहा, 'अर्थ की लालसा।' 

कवि ने कहा कि लालसा से बुद्ध भागे, तुम कहां टिकोगे?

मैंने पूछा, 'क्या बुद्ध लालसा के मारे थे?'

कवि ने कहा हां, 'लालसा ने उन्हें बुद्ध बनाया, तुम्हें बुद्धू।'


कवि से कई बार कई सवाल किया, लेकिन कवि इतना ही दोहराता रहा, 

भँवरवा, के तोहरा संग जाई....


-अभिषेक शुक्ल.