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शुक्रवार, 30 अक्टूबर 2020

प्रोफ़ेशन बदलना क्राइम नहीं है...

कभी-कभी न ख़्याल आते हैं न ख़्वाब। ऐसा क्यों होता है, इसकी कोई वाजिब वजह पता नहीं। शायद पता भी न चले।

ज़िन्दगी अनसुलझी पहेली है, हम कई दफ़ा सुन चुके हैं। सुनते रहे हैं, या शायद सुनते रहेंगे। लेकिन हर पहेली, सुलझती है, धीरे-धीरे वक़्त के साथ। सबका कोई एक जवाब होता है। पर ज़िन्दगी, लाजवाब है। कुछ पता ही नहीं चलता। कभी, कभी भी।

एक साथ, क्या-क्या चलता है दिमाग़ में ज़ाहिर कर दें तो मुसीबत, न करें तो ऐसा लगे कि ख़ुद के साथ ही धोखा। कई बार लगता है कि जिस रास्ते से गुज़र रहे हैं, सही नहीं है। न हो सकता है। क्योंकि आस पास किसी को उस रास्ते से गुज़रकर मंज़िल नहीं मिली। सबने ख़ुद को खो दिया है। एक क़रार कर लिया है, ज़िन्दगी के साथ कि अब जो चल रहा है, चलने दो। आधे रास्ते में हैं, आधा ही तो पार करना है।

पर पता नहीं क्यों लगता है कि उसी आधे रास्ते में गड्ढा है, जिसमें से गिरेंगे आंख मूंदकर एक रास्ते पर चलने वाले।

....ऐसा सोचना ग़लत भी हो सकता है। शायद सबकी मंज़िलें एक सी न हों। सबने अपने-अपने रास्ते चुन लिए हों कि गड्ढे से स्टेप पहले रुक जाना है, या नाव लाकर तैर जाना है।


बस नाव नहीं चहिए। तैरना नहीं आता लेकिन नाव के ज़रिए सफ़र भी करना। तैराकी सीखनी भी नहीं है। 

रास्ता बदलना है। रास्ते ज़रूरी हैं, मंज़िलों के लिए। कोई एक नई राह गढ़ता है, हज़ारों उस नई राह के राही होते हैं। कई बार नहीं भी होते हैं। कई बार रास्ता बनाना ही मुमकिन नहीं होता। बन भी जाए तो कांटे उगते होंगे। चुभते भी होंगे, उन्हें निकाला जा सकता है। कुछ चुभेगा तो पता चलेगा कि ज़िन्दा हैं। बनी बनाई सड़कें आसान हैं। ऐसा लगता है कि घिसट के पहुंच जाएंगे कहीं पर।

बस दिक़्क़त घिसटने से है। यही फ़ीलिंग ठीक नहीं होती लाइफ़ में। 

किसी के मंज़िल और मुस्तक़बिल में झांकना ग़लत है। टोकना और भी ग़लत। क्यों ये उम्मीद हो कि कोई मेरी ही बताई राह पर चले? क्यों पुराने ढर्रे ही सबको अच्छे लगें? क्यों न किसी को कभी भी मंज़िल बदलने का हक़ हो, राहें भी? क्यों उम्मीदें बोझ बनें? क्यों न ऐसा हो कि मंज़िल और राहें बदल देने पर अपने सवाल न करें। वेलडन, सब ठीक है। तुम सही हो, दूसरों के साथ ग़लत नहीं करते तो ख़ुद क्यों ग़लत करोगे। मिल जाएगी न यार मंज़िल, बन जाओगे न जो बनना चाहते हो। नहीं भी बने तो फिर नए रास्ते पर चलना। फ़ेल होने के डर से कोशिश नहीं करोगे? जाओ यार.....कर लो न जो करना चाहते हो।

कभी-कभी ये सब सुनने के बाद भी लगता है कि कुछ ग़लत न हो जाए। ख़ुद के साथ, ख़ुद की सुनने में। सबको लगता होगा। ऐसा सोचना ग़लत है, बहुत ग़लत। कर लो न यार जो करना चाहते हो। बहुत पेनफ़ुल है वो वाली फ़ीलिंग, जिसमें जो आप करना चाहते हो, उसे पोस्टपोन करना पड़े।

दूसरों को कुछ भी लगे, आपके करियर का सही डिसीज़न आपसे बेहतर कोई नहीं ले सकता। ज़िन्दगी सबको मौके नहीं देती, रिपीटेड लाइन है, एक्सक्लूसिव नहीं। मौके हर बार मिलते हैं। दिखते नहीं, अलग बात हैं। देखने का हुनर सीखो, जब जो मिले लपक लो....निभे तो निभा लो, न सही लगे तो रास्ते अलग।

प्रोफ़ेशन बदलना क्राइम नहीं है, क्राइम है बिना पासपोर्ट के दुनिया बदल देना।

(डायरी इन दिनों। डोंट टेक इट सीरियस, लफ़्फ़ाज़ी है...)

Photo Credit-  DrAfter123 / stockphoto.com © 2018

सोमवार, 7 सितंबर 2020

शर्म तुमको मगर नहीं आती

 ब्लॉग का फ़ीचर इमेज बनाया है Mir Suhail ने.




अप्रिय कुपत्रकारों और संपादकों!


गंजेड़ी, भंगेड़ी और नशेड़ी जैसी कुछ विशिष्ट उपमाओं से आप विभूषित हैं। दैव कृपा से आचरण में भी उपमायें परिलक्षित होती हैं।

आपका अलौकिक ज्ञान, सोमरस और प्रभंजनपान के उपरांत ही बाहर निकलता है।

हे अग्निहोत्र के प्रखर प्रहरी!

आप भी यह जानते हैं कि रिया चक्रवर्ती से कहीं अधिक समृद्ध आपकी 'ड्रग्स मंडली' है। आपके अनुचर नित नए 'माल' के अनुसंधान में साधनारत हैं।

जिस तरह से माल फूंकना आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता है, ठीक वैसी ही रिया की भी। आयात-निर्यात में लिंगभेद के लिए स्थान कहां?

अपने कर्मक्षेत्र की समाधि पर खड़े हे गुरुवरों! आपके कुकृत्यों पर हम लाज से गड़े जा रहे हैं। शवों का व्यापार करना राजनीति की परिपाटी रही है। आप जुझारू हैं, आपने राजनितिज्ञों का एकाधिकार ख़त्म कर दिया है।

ऊब हो रही है, घुटन भी। उस मनहूस घड़ी को कोसने का मन कर रहा है जिस घड़ी मसीजीविता की राह पर चले थे।

आत्मश्लाघा में पगलाये हुये नहुषों, पतित होकर अजगर ही होना है। एक दिन ऐसा आ सकता है कि कुकुरमुत्तों की छाया में बरगद पले।

पितृपक्ष है, आप पितरों की साधना पर शौच कर रहे हैं। आत्मावलोकन करें, आपको, अपने-आप से घिन आएगी।

-अभिषेक शुक्ल.

रविवार, 30 अगस्त 2020

नाचै-गावै तूरै तान, राखै तेकर दुनिया मान!

 जीवन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण सूक्तियां गांवों में रची गई हैं. भले ही वे इस मंशा के साथ न रची गई हों कि कालांतर में उन्हीं पंक्तियों पर जीवन का कार्य-व्यवहार टिका होगा. भले ही शहर उन्हें खारिज करें, या पूर्वाग्रह के चलते उनका बहिष्कार कर दें लेकिन यथार्थ इससे परे नहीं.

सूक्तियां ऐसी, जो बोधगम्य हैं. उनके दर्शन को समझने के लिए किसी विद्वान की ज़रूरत नहीं. सुनते-सुनते बरबस समझ आए. कभी किसी खेत की मेड़ पर, या कहीं बरगद तले. या किसी काकी-माई को आपस में काना-फूसी करते हुए देखते वक़्त.

उन बातों को भाषाविद किसी भी श्रेणी में बांट लें. उन्हें सूक्ति कहें, मुहावरे कहें, लोकोक्तियां कहें या कोई भी नाम दें, लेकिन दुनियादारी समझने की कुंजियां वही हैं.

शेष सब बौद्धिक वितंडा से इतर कुछ नहीं.

मिमांसा विद्वान करें, लेकिन वर्तमान इन्हीं सूक्तियों की व्याख्या है.

'नाचै गावै तूरै तान, तेकर दुनिया राखै मान'

मीडिया से लेकर सत्ता तक.


'अपने उघार बिलरिया कै गांती'

आत्मश्लाघा के अतिरेक में पागल मीडिया, जिसमें रहकर किसी भी सभ्य व्यक्ति का दम घुटे.


'बाड़ी बिस्तिुइया बाघेस नाजारा मारै.'

सीमाओं पर नजर फेरिये.


'सब हसै-सब हसै, चलनी का हसै जौने में 72 छेद.'

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था दिख रही है हर भारतीय को लेकिन अपनी दरिद्रता?


'चिरई कै जान जाय, लड़िकन कै खेलौना.'

मीडिया ट्रायल. चरित्र हनन.


'सेमर पालि सुगा पछितानै, मारै ठोड़ भुआ उधियाने'

कृतघ्नों पर परोपकार.


और नहीं याद आ रहा. जब याद आएगा, तब की तब देखेंगे.

गुरुवार, 23 जुलाई 2020

समय धरावै तीन नाम- परशु, परशुवा परशुराम

गांव में पहली बार दो तल्ले का घर तैयार हुआ. झोपड़ियों वाले गांव में पहली बार ईंट-गारा का पक्का मकान देखकर लोग हैरान रह गए. जब घर बन रहा था तब सुबह-शाम लोग यह देखने आते कि कैसे घर तैयार किया जाता है. जब घर बन गया तो ढींगुर दो तल्ले पर बड़का रेडियो पर गाना गवाते. जो घर देखने आता कहता कि ढींगुर की क्या गाढ़ी कमाई है.

यह घर ढींगुर का ही था. ढींगुर कोई ज़मींदार नहीं थे. न ही कोई बड़े काश्तकार. जो थे, उसके लिए हद दर्जे का दुर्दांत होना पड़ता है. दुर्दांत ही, जिसे दूसरों का ख़ून नोचने में मज़ा आए.

यह वही दौर था जब ढींगुर का परचम पूरे जवार में लहराता था. बिरादरी तो बिरादरी, दूसरे लोगों के भी कंकाल कांपते थे उन्हें देखकर. गांव में किसी की क्या मजाल जो उनके सामने तन के खड़ा हो जाए. तूती ऐसी बोलती थी कि जिस ज़मीन पर पांव रख दें, उन्हीं की हो जाती.

जवार की पूरी बंजर ज़मीन उन्हीं के नाम. जो छुटभैये मर्द बनते थे, ढींगुर की लाठी के सामने पस्त हो जाते थे. जो सज्जन थे, वे सरेंडर कर चुके थे. सारे गिरहकट्टों के सरदार थे ढींगुर. गांव के सारे धन्ना सेठ भी उनके सामने हार बैठे थे. किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि ढींगुर को मनमानी रोकने की हिम्मत करे. हिम्मत भी करे तो कोई कैसे, किसे सालभर भूखे मरना है.

भूखा ही मरने का तो डर था. थोड़े ही कोई आज वाला ज़माना था नहीं कि परदेस जाकर चार पैसे का जुगाड़ हो जाए. मनरेगा भी नहीं था कि गड़हा पाटकर चार पैसे मिल जाएं. तब पैसा मतलब खेती था. तो सबका धन, सिवान में गड़ा होता था, जिसकी रखवाली राम भरोसे होती थी.

किसान और व्यापारी में यही तो अंतर होता है कि एक अपना धन सात तिजोरी में बंद करके रखता है तो दूसरा खुले आसमान के तले. उसे आसमान से बरसती आफत से भी डर होता है और ज़मीन के गिद्धों से भी.

इसी खुलेपन का तो फ़ाएदा उठाते थे ढींगुर. दिन में जो भी ढींगुर से अकड़ता, रात में उसका खेत सफाचट. ढींगुर अपने गुर्गों को लेकर खेत पर पहुंचते और रातो-रात फसल काट ले जाते. दिन में बेचारा किसान खेत पहुंचकर माथ पीटता. थाना-पुलिस का आलम ये कि कोई किसी की बात न सुने. पुलिस का आज ही वाला चेहरा कल भी तो था.
जो आदमी किसी तरह से दो वक़्त के खाने का जुगाड़ कर पाता हो, उससे क्या ही पुलिस उगाही कर पाती. जब पैसा नहीं तो सुनवाई क्या?

और ढींगुर, लूट का माल बराबर बांटने में भरोसा रखते थे. जितना ख़ुद खाते, उतना ही दूसरों को खिलाते. लूट के माल का एक हिस्सा साल-छह महीने में थाने पर पहुंच जाता. फिर गांव की सुधि कौन ले.

लूट, डकैती, चोरी, छिनैती, जुआ-गुच्ची, कौन सी ऐसी कुलत्ति थी जो ढींगुर किए नहीं. अत्याचारी इंसान सिर्फ दूसरों के लिए ही नहीं होता. अपने घर पर भी वह अत्याचारी रहता है. गांव के मज़लूमों पर जैसा अत्याचार, वैसा ही अपने घरवाली पर. दारू पीने के बाद तो आलम यह रहता था कि पत्नी को ढोल बना देते थे.

हर तीसरे दिन ढींगुर बहू, कराहती ही मिलतीं. ढींगुर के चार बच्चे हुए. 4 बेटियां भी. बेटियां बियाह के बाद घर चली गईं. बेटे धीरे-धीरे बाप के रास्ते पर चले. कहते हैं जो जितना तपता है, ढलता भी उसी रफ़्तार से है. धीरे-धीरे ज़माना बदला. ढींगुर को दमा हो गया. जवानी का पाप बुढ़ापे में नज़र आने लगा.

बेटे निकले बाप से जार जवा आगे. उन्होंने पाप का ककहरा अपने घर से ही सीखा. जो-जो ढींगुर ने दूसरों के साथ वही उनके साथ हुआ. चार बेटों में चार लक्षण. एक बेटा निकला जुआरी. दूसरा बेटा निकला शराबी. तीसरा बेटा निकला गंजेड़ी और चौथा निकला फराडी.

बेटे जवान हुए और ढींगुर ढल गए. जुआरी बेटा बड़ा था. धूम-धाम से शादी हुई. शादी के एक महीने बाद बांटकर घर से अलग हो गया. ढींगुर ताकते रह गए. शराबी बेटा दूसरे नंबर का था. उसकी शादी हुई तो तीसरे महीने अपनी पत्नी को छोड़कर किसी और के साथ फुर्र हो गया. सोचा भी नहीं कि कोई तीसरा भी आ रहा है, जिसकी ज़िम्मेदारी से वो भाग रहा है. ढींगुर का इतना तो चला कि उसे ज़मीन जायदाद से बेदख़ल कर दिया.

गंजेड़ी बेटा तीसरे नंबर का था. दिनभर गांजे में व्यस्त. गांजा पीने के बाद इंसान स्वघोषित महादेव का भक्त हो जाता है. सो उसने भक्ति की राह चुन ली. ढींगुर के रहते ही ऐसा फ़रार हुआ कि अब तक नहीं आया. सबसे छोटा जो फराडी था, वो ढींगुर का ही अपडेटेड वर्जन था. जितने ऐब ढींगुर में, उतने ही उसमें.

शादी के कुछ महीने तक तो किसी ने उसे देखा ही नहीं, चौथे महीने से पत्नी को पीटने की प्रैक्टिस शुरू कर दी. इतना मारता कि कई बार मरने की नौबत आ जाती. ढींगुर की बुढ़ापे में ख़ूब दुर्गति हुई. हर तीसरा आदमी गाली देकर निकल जाता. ज़माना बदल गया था. सबके जेब में पैसा था. पुलिस तो उसकी की जिसका पैसा. ढींगुर की कमाई रह नहीं गई थी, खेती-किसानी पर बेटों ने डाका डाल लिया.

पैसा सबके पास पहुंच गया था. चोरों का स्टारडम घट गया था. ख़ुद ढींगुर का भी. छोटे बेटे ने एक दिन नाराज़ होकर ढींगुर को पीट दिया. ऐसे पिटाई की कि ढींगुर की पूरी ज़िन्दगी में नहीं हुई थी. माथे से ख़ून बह रहा था. बेटा ही सात पीढ़ी न्यौत रहा था बाप की. ढींगुर को सदमा लग गया. मुश्किल से 12 दिन जिए थे. हानि में मर गए.

दुर्गति अब शुरू हुई. ढींगुर अपने पीछे छोड़ गए थे एक पत्नी, जो आजीवन उनके सुख-दुख में शामिल रही. सुख तो उसे कभी मिला नहीं, मिली बस मार. वक़्त की भी, नियति की भी.

अर्धांगिनी वाला जो कॉन्सेप्ट है न, वह कलियुग में भी फलीभूत होता है. ढींगुर के हिस्से का आधा पाप तो भोगकर वे चले गए, आधा सिरे आया पत्नी के. बेटे एक से बढ़कर एक नालायक. मां के पास जो भी है, उस पर डाका डाल गए. हर किसी ने मां को निकाल दिया. 

मां को मिला अलगाव. मां ने सबको हिस्सा दिया, मां किसी के हिस्से नहीं आई. मां ही बेसहारा हो गई. शराबी पूत का जो लाल वो छोड़कर भागा था, वह भी जवान हुआ. जिस घर में वह रह रही थी, वही शराबी पूत के हिस्से आया था. घर निकाला हो गया था, लेकिन एक हिस्सा ढींगुर के जीते-जीते उसे मिल गया था. पोते का आश्रय मिला दादी को. पोते ने कुछ दिन दादी के पास पैसे भेजे, फिर यह जताने लगा कि वही उसे जिला-खिला रहा है. ऐसा था नहीं. मेहनत-मजदूरी करके वो ख़ुद कमा रही थी. दो वक्त का खाना, उसी के भरोसे उसे मिल रहा था.

पोते ने भी एक दिन तनकर कहा कि मेरा घर छोड़कर जाओ, मेरा सारा पैसा तुम लुटा दे रही हो. चार जवान बेटों की मां के पास घर नहीं. ढींगुर का बनवाया घर जर्जर होकर ढह गया था. बच्चों ने अपनी-अपनी कमाई से घर तैयार कर लिया था. मां के सिर पर छत नहीं था. छप्पर के मकान में महलों में रह चुकी राजमाता रह रही थी. जिसका पूत न हुआ, उसका पोता क्या होगा?

खेत मां के नाम, घर मां के नाम लेकिन बेटों ने सब हड़प लिया. ढींगुर का सारा यत्न, सारी व्यवस्था, सारा रुतबा धरा का धरा रह गया. उनके मरने के महज कुछ दिन बाद ही सब का सब खत्म हो चुका था. मकान खंडहर था. घर तोड़ा इसलिए गया कि बेटों को हिस्सा नहीं मिल रहा था.

हिस्सा मिला, किसी का निवाला छिन गया. ढींगुर बहू की किस्मत में मार लिखी थी. मार मिली. कभी बहुओं की तो कभी समय की. कुछ जीव ऐसे होते हैं, जिनके भाग्य में दुख मढ़ा गया होता है.

ढींगुर ने मरने से पहले कहा भी था कि जवानिया में हम तपेन, बुढ़पवा हम्मे तापत है. जितना ढींगुर ने जिस तरीके से कमाया था, उन्हीं के सामने वह ख़त्म हो गया.

जो धन जइसे आत है, सो धन तइसे जात. ढींगुर भवन से गुज़रता हर शख़्स यही कहते हुए निकलता है. आज सब मरे हुए ढींगुर को नसीहत दे रहे हैं, वही लोग, जो उनके सामने कभी बोल नहीं सके थे. ढींगुर बहू भी सब कुछ सहते, सहाते कह ही देती हैं कभी-कभी.

समय धरावै तीन नाम. परशु, परशुवा परशुराम.

-अभिषेक शुक्ल.

सोमवार, 1 जून 2020

मौलिकता भ्रम से इतर कुछ भी नहीं.....

मौलिकता अनैतिक भ्रम से इतर कुछ भी नहीं. एक साहित्यकार पूरा जीवन पढ़ने-लिखने में खपा दे, घट-घट भटके, अनुभवों की गंगा पार कर ले तो भी जीवन के अंत तक वह कुछ भी मौलिक नहीं लिख सकता है. कुंवर नारायण यह कहकर जा चुके हैं. उनसे पहले भी कई लोगों ने यही कहा है, उनके बाद भी कई लोग यही कह रहे हैं. आगे भी लोग यही कहेंगे.

मौलिकता एक आदर्श स्थिति है, आदर्श स्थितियां अस्तित्व में होने के लिए नहीं होतीं. सोचकर देखिए कि ऐसा क्या आप कहेंगे, जिसे दूसरों ने न कहा हो. क्या लिख देंगे, जिसे कभी न लिखा गया हो. ऐसा क्या आपने पढ़ा है, जो इससे पहले न लिखा गया हो. जो मैं लिख रहा हूं ये भी मौलिक नहीं. जो आप लिखेंगे उसे भी मौलिक नहीं कहा जा सकता. सब कही-सुनाई बातें हैं, पढ़ते-गुनते चलिए.

मौलिक होने का चस्का जिसे लगता है, उसकी साहित्यिक गतिविधियां धीरे-धीरे कम होने लगती हैं. लिख दें तो लगता है कि यह तो लिखा जा चुका है. न लिखें तो लगता है कि रचनाओं को गर्भ के भीतर ही मार दे रहे हैं.

रचनाकारों की ऐसी भी प्रजाति है जो ख़ुद तो न जाने क्या-क्या लिखते हैं लेकिन दूसरे की रचनाओं को अमौलिक होने का प्रमाणपत्र देते हैं. सच यही है कि किसी ने कुछ भी मौलिक नहीं लिखा है. लिखा ही नहीं जा सकता है. अब अगर महर्षि वाल्मीकि, वेदव्यास या कालिदास फिर से अवतार ले लें तो भी कुछ ऐसा न लिख सकें, जो कभी लिखा न गया हो.

दोहराव सामान्य सी बात है. एक ही बात लोग रोज़ कह रहे हैं. आगे भी कोई कुछ नया नहीं कहेगा. नहीं, मैं भविष्य में कोई किताब या महाकाव्य नहीं लिख रहा जिसके अमौलिक होने पर लोग कोसेंगे मुझे, जिसके बचाव की अग्रिम पटकथा मैं लिख रहा हूं.

मैंने कुछ भी मौलिक नहीं लिखा है, लिख भी नहीं सकता. जिन्हें पढ़ा है, उनका प्रभाव हो सकता है मेरी शैली में झलके. ऐसा भी हो सकता है कि मैं पूरी तरह वही भाव लिख रहा हूं लेकिन सच मानिए यह जानबूझकर नहीं होगा. ऐसा होता रहेगा, बार-बार होता रहेगा. मैं चाहूं भी तो मौलिकता के भ्रम में जी नहीं सकता.

प्यारे वरिष्ठ साथियो,
यह भ्रम आपको भी नहीं होना चाहिए............सृजनशीलता बनी रहेगी.

सोमवार, 11 मई 2020

ना जाइब परदेस.....


माथे पर झोला लिये, मन में लिए जुनून
काटो तो पानी बहे, इतना पतला खून।
बेहद पथरीली डगर, पानी मिले न छांव,
शहरों से ठोकर मिला, हम चल बैठे गांव।

भूख यहां भी वहां भी, पर वो अपना देस,
रूखा-सूखा खाय ल्यो, जइहौ मत परदेस।
अपनी माटी प्रेम की, वाकी माटी सौत
अपनी ने जीवन दिया, दूजी ने दी मौत।












घाम लगे पाथर पड़े, कब इसकी परवाह
शहरों से अनसुनी थी, मजदूरों की आह।

सूखी रोटी गांव की, चुटकी भर का नोन
कटे कइसहूं आज बस, कल की सोचे कौन।
माना अपने गांव में, रहता बहुत कलेस।
कुल पीड़ा स्वीकार है, ना जाइब परदेस।

- अभिषेक शुक्ल.

(तस्वीर- साभार PTI)